महिलाएं अब छोड़-तोड़ रही हैं स्त्री विमर्श का मर्दाना पाठ


देवेंद्र आर्य

स्त्रियों के लिए अपनी सम्वेदनाएं उड़ेलने वाले पचास ऐसे कवियों-कथाकारों की सूची बनाना चाहता हूं जो अपनी बहन या पत्नी से यह कह सकें कि आज तुम स्त्री-विमर्श पर आयोजित फलां गोष्ठी में जाओ, स्त्री उत्पीड़न के विरोध में धरने पर बैठो, घर मैं सम्हाल लूंगा। खाना मैं बना लूंगा। आओगी तो साथ बैठ के खाए-बतिआएंगे।

जिस दिन मैं यह सूची तैयार कर लूंगा, उस दिन कहूंगा कि साहित्य में पुरूष प्रायोजित स्त्री विमर्श शीघ्र ही अपना सामाजिक आधार प्राप्त कर लेगा।

आप बाहर स्त्री मुक्ति की बात करेंगे और घर पहुंचते ही सामंतों की तरह आदेश देंगे, यार ज़रा चाय पिलाओ ! और हां, कल क्या पहनुंगा, देख लिया है? एक लम्बी फरमाइश जिसमें वक्त़ ज़रुरत फ़रियाद का कोमल पुट भी कवि महोदय डाल देते हैं।

अपनी अंतरंग महफ़िलों में सगर्व बताते हैं कि मुझे तो चाय बनाना भी नहीं आता।

और उनकी श्रीमती जी इसे अपने सुहाग का वरदान समझती हैं कि उनका पति लूल-लंगड़, मानसिक रुप से विकलांग न होते हुए भी पूरी तरह उन पर निर्भर है। एक दिन न रहूं तो बेचारे परेशान हो जाते हैं। यही पत्नियां मां के रुप में अगली विकलांग पति-पीठी तैयार करती हैं।

आप सच में स्त्रियों को सदियों की सामाजिक आर्थिक मानसिक गुलामी से आजा़द देखना चाहते हैं तो उनकी समस्याओं के भोक्ता बनिए। सम्हालिए एक वक्त किचन। सप्ताह में एक दिन झाड़ू-पोंछा कीजिए। दीजिए उन्हें भी साप्ताहिक अवकाश। उनके घरेलू श्रम की मूल्य शाब्दिक सराहना मात्र से नहीं, आमदनी के रुप में दीजिए और भूल जाइए कि आपने उनका बैंक खाता भी खुलवा रक्खा है। समय, श्रम और निर्विकार लगाव की आर्थिक क्षति-पूर्ति का हिसाब मत मांगिए।

याद रखिए आप कमासुत हैं तो आपको सेवानिवृत्त होने की सुविधा है, अधिकार है। घर-सीमित पत्नियां तो सीधे चिता पर ही सेवा निवृत्त हो पाती हैं। पुरुष-श्रम और महिला-श्रम की तुलना सम्भव ही नहीं, न ही उसके लिए ‘अतिरिक्त मूल्य’ का कोई सिद्धांत अभी तक तो नहीं गढ़ा गया है। आप पृथ्वी के लिए कुछ नहीं कर सकते सिवा यह ध्यान रखने के कि उसकी व्यवस्था में अनावश्यक बाधा न बनें। स्त्री पृथ्वी ही तो है और पृथ्वी कभी अवकाश ग्रहण करना चाहे तो क्या मंज़र होगा !

पता है कि स्त्रियों के श्रम और सहनशीलता की बदौलत मौज करने वाले पुरुष रचनाकार तर्क देंगे कि मजदूरों की मुक्ति की बात करने का मतलब मजदूर बन जाना नहीं है। तो बंद कर दीजिए ग्राउंड रिपोर्टिंग की अपेक्षा मीडिया से। टेबुल रिपोर्टिंग, ग्रंथालय आधारित सम्वेदनाएं और हवाई इच्छाएं तो चल ही रही हैं। चलती रहेंगी। चलता रहेगा छाया-युद्ध।

इस फ़र्जीफिकेशन को महिलाएं समझ रही हैं। छोड़-तोड़ रही हैं स्त्री विमर्श का मर्दाना पाठ। अकारण नहीं कि महिला रचनाकारों को जहां कहीं सम्पादन या संचालन का अवसर मिल रहा है, वे ‘स्त्री लेखन ‘ या ‘स्त्री विमर्श’ के लिए महिलाओं को ही तरजीह दे रही हैं। यहां दलित विमर्श या दलित लेखन में जन्मना दलित होने के पूर्वाग्रह का उदाहरण देना या लेना अनुचित और अप्रासांगिक है। दिखने भी लगा है पुरुष रचनाकारों का लिबलिबाना कि स्त्री विमर्श में हम क्यों नहीं? यह ‘प्लीज’ ! की मुद्रा सुकून देने वाली है ।

मैं भूल नहीं पाता हूं ममता कालिया जी का वह इंटरव्यू जिसमें अपनी रचना प्रक्रिया पर पूछे गए प्रश्न पर उन्होंने बताया था कि दाल चूल्हे पर चढ़ा कर वे कहानी पूरी करने लगती थीं ।

नक्काल सम्वेदनाएं तुम्हें मुबारक हो पुरुषों । अब और नही… स्त्री-पुरुष की समानता और सह-मुक्ति का सिद्धांत ! पहले घर से शुरू करो फिर महफ़िल में अपनी सम्वेदना चमकाना।

देवेंद्र आर्य

देवेंद्र आर्य हिंदी के जाने-माने गीतकार और ग़ज़लकार हैं। पहला ग़ज़ल संग्रह किताब के बाहर 2004 में प्रकाशित। इससे पहले दो गीत संग्रह और एक कविता संग्रह प्रकाशित। केन्द्र सरकार के मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार तथा उ. प्र. हिन्दी संस्थान के विजयदेव नारायण साही पुरस्कार से सम्मानित।

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