रोज़ा लक्ज़मबर्ग : जमीनी मुद्दों के साथ स्त्री मुक्ति का संघर्ष


वंदना चौबे

मध्यवर्गीय स्त्रियाँ अपने अभावों और संघर्षों को अकेली झेलती हुई अक्सरहां आत्मग्रस्तता की शिकार होकर एक ख़ास तरह के ‘अहं’ के भीतर चली जाती हैं। यदि वह सफल हो सकी तो एक ओहदेदार नौकरी या किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में किसी बढ़िया पद पर बैठकर नौकर-नौकरानियों-गाड़ी-बंगलों-क्लब-पार्टियों से लैस अंततः उसी सामंती-पूंजीवाद को पोषित करने के लिए औज़ार बन जाती है या न चाहते हुए भी अभिशप्त हो जाती हैं। इस तरह वह सब कुछ पाकर भी एक ख़ालीपन, अकेलेपन और आत्मग्रस्तता से घिरती जाती हैं।

स्त्री के इन संघर्षों से पूंजीवाद से साठ-गांठ किए हुए पितृसत्तात्मक समाज को दिक्कत नहीं होती; साथ ही सुधारवादियों-उदारवादियों को भी इसमें एक आड़ मिल जाती है। लगे हाथों वे भी स्त्री-अधिकारों पर कतारबद्ध हो लेते हैं। उधर उत्तर-आधुनिकतावाद ने अस्मितावाद के बहाने नई बौद्धिक मशक्कत में उलझाकर खाँचा-खाँचा बाँट कर सबको अकेला कर ही दिया है।

स्त्री मुक्ति के प्रश्नों को मध्यवर्गीय करुणा-भाववाद के दायरे से निकाल कर हमें रोज़ा लक्ज़मबर्ग (Rosa Luxemburg) की याद हमेशा करनी चाहिए। यूँ ही नहीं फ़ासीवाद मानसिकता के सोशल डेमोक्रेट्स ने रोज़ा की हत्या कराई! रोज़ा लक्ज़मबर्ग केवल स्त्री मुद्दों के चिंतन तक महदूद नहीं थीं- राष्ट्रीयता जैसे अनेक राजनीतिक मुद्दों पर लेनिन से उनकी सैद्धांतिक टकराहट थी।अतिरिक्त मूल्य और विदेश व्यापार के मसलों पर वे मार्क्स की आलोचना भी करती हैं। इस संदर्भ में उनकी किताब ‘पूंजी का संचय” महत्वपूर्ण है।

कई असहमतियों के बावजूद समाजवाद के संघर्ष में रोज़ा, क्लारा और लेनिन साथ खड़े रहे। रोज़ा के निधन पर लेनिन का वक्तव्य महत्वपूर्ण है। पेरिस कम्यून की नींव से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजदूर और स्त्री मुद्दों पर वे सक्रिय रहीं। स्त्री प्रश्नों पर उनका लिखा लेख ‘एक राजनीतिक प्रश्न’ बहुत महत्वपूर्ण है। तथाकथित स्वतंत्र, आधुनिक और लोकतांत्रिक देश भी जब जब स्त्री मताधिकार तक न क़ायम कर सके थे तब 1907 में रोज़ा ने ‘महिला मताधिकार और वर्ग-संघर्ष’ जैसा लेख लिखा।

निश्चित रूप से स्त्रीवादी चिंतन में सिमोन बुआ का काम बेहद महत्वपूर्ण है। स्त्रीवाद के नाम पर हमारा जितना वर्ग-हित सिमोन के माध्यम से होता है उस तरह रोज़ा और क्लारा से नहीं होता इसलिए जितना सुभीता हमें सिमोन द बुआ को याद करने में होता है उतना क्लारा जेटकिन और रोज़ा लक्ज़मबर्ग को याद करने में नहीं होता।

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस जो अब लगभग पूरी तरह बुर्जुवा मध्यवर्गीय रीति-नीति के ‘सेलिब्रेशन’ की तरह मनाया जाता है! जिसे सुविधाभोगी-उत्सवों ने हथिया लिया है- वे नहीं जानते कि इस दिन के लिए मजदूर स्त्रियों ने गोली खाई है। समाजवादी दुनिया के लिए कठिन संघर्ष किए हैं। 16-16 घण्टे हाड़-तोड़ काम के घण्टे कम करने, श्रम का मूल्य, बाल-मजदूरी के ख़िलाफ़ आंदोलन कर बड़ी संख्या में स्त्रियां जेल गईं। रैलियां और जुलूस हुए।यह स्त्रियों का पहला ठोस आंदोलन था जो सीधे ज़मीनी मुद्दों पर था- जिसका पुरज़ोर दमन हुआ तब महिला दिवस की सुबह साकार हुई।

इस दौर में सबसे सक्रिय और नेतृत्वकारी भूमिका रोज़ा लक्ज़मबर्ग की रही है। उनके जन्मदिन पर उनको लाल सलाम है!

Rosa Luxemburg was born on 5th March 1871 and she was a Polish and naturalized-German revolutionary socialist, Marxist philosopher and antiwar activist. She died on 15th of January 1919. (Read more)

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