मंजू शर्मा
भाई दूज के उपलक्ष्य में किसने ऐसी कथा गढ़ी होगी जिसमें लोकभाषा में रेंगनी (शायद अरंडी) का काँटा छोटी प्यारी बहनों को पाँच बार जीभ में चुभोना होता होगा!
गोबर के एक से बढ़कर एक जहरीले जीव जैसे कि साँप, बिच्छू प्रतीकात्मक तौर पर बनाए जाते हैं और पूजा के समय उन सभी प्रतीकों को लाठी से कूटकर मारा जाता है यूँ कि यमराज के दरवाज़े को कूट देना है और किसी भी बला को भाई के पास फटकने नहीं देना है।
आज वाकई बचपन की अपने ही की गई इन नादानियों पर गुदगुदी भी हो रही थी और कोफ्त भी कि किस हद तक बेटियों की मासूमियत के साथ त्योहार और इन मिथकीय परंपराओं के नाम पर यह छलावा किया जाता है!
कभी राखी की रक्षा सूत्र के नाम पर, कभी भाई दूज के नाम पर, कभी जिउतिया के नाम पर और कभी करवा चौथ के नाम पर। हर बार केंद्र में केवल पुरूष ही रक्षा के केंद्र में क्यों होते होंगे?
इस बात को इतने सतही तरीकों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी बताया और समझाया जाता रहा है कि बेटियाँ भी भावनात्मक तौर पर नीरीह होते-होते विवाह के बाद अपनी भी बेटी को इन्हीं रिवाज़ो की गठरी को बेटी के सिर पर भी रखती जाती है।
अब अकुलाहट होती है और बेचैनी भी कि वाकई क्या रक्षा केवल पुरुषों की ही होनी चाहिए, चाहे वह पति के रूप में हो, भाई के रूप में हो या बेटे के रूप में हो, भले ही उसके लिए पत्नी तीज में निर्जला उपवास रखें या जिउतिया में कठोर से कठोर अनाज माँ को निगलना पड़े ताकि बेटे भी वज्र की तरह कठोर शरीर के हों और उनका कोई बाल भी बाँका न कर सके।
सबके पीछे में तमाम कुचक्र नज़र आता है कि बस स्त्रियों को हमेशा एक असुरक्षा की बोध को उसके जेहन में डाल दो कि उसे रक्षक के तौर पर एक भाई, पिता, पति और बेटा चाहिए।
इनकी भूमिका बतौर रक्षक इस कदर महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि उनके जीवन के लिए हर त्योहार, उपवास के कठोरतम विधानों को भी रिवाज में शामिल करते हुए शनै: शनै: कुरीतियों में शामिल कर लिया गया।
आख़िर पत्नी, बहन और माँ के लिए कोई व्रत और उपवास क्यों नहीं निर्धारित किया गया जिसमें उनके लिए भी लंबी उम्र की मनोकामना एक पति, भाई और बेटा करते, उपवास करते, निर्जला रहते और पूजा करते आरती उतारते।
सवाल मन में आते हैं,सबके उत्तर भी अब जानती हूँ क्योंकि उम्र के इस पड़ाव में परम्पराओं की आड़ में इन कुरीतियों के पीछे पितृसत्तात्मक समाज की अजगरी पाश के मायने और जकड़न भी समझने लगी हूँ।
इतना मुश्किल नहीं है समझना कि कमतर बताते हुए शारीरिक तकलीफों के बहाने बेटी से लेकर बहू और माँ बनते हुए तमाम कष्ट सहने की आदत डालते जाना और आजीवन उम्र के हर पायदान पर किसी न किसी के नाम पर खुद को भूलते जाना स्त्री के स्थायी भाव की तरह शामिल कर दिया जाता है।
हम और हमारा यह पितृसत्तात्मक समाज, न बदला है न बदलेगा कुछ भी। सबकुछ यथावत रखने के पीछे भी हम स्त्रियाँ ही हैं क्योंकि उसे पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण करने का बेहतर माध्यम भी स्त्रियाँ ही बनती जाती हैं।
मंजू शर्मा, शिक्षा एमए, एमएड। लगभग 14 वर्षों से अध्यापन कार्य। वर्तमान में ओपीजिन्दल, तमनार, छतीसगढ़ में हिंदी की अध्यापिका हैं। निरंतर कविता लेखन। स्त्रीकाल और छतीसगढ़ की राज्य स्तरीय पत्रिका में कई कविताएं, समीक्षाएं व साक्षात्कार प्रकाशित। खाली समय में बागवानी का शौक।