हँसने का यह मतलब नहीं कि हमारे साथ बदतमीजी की जाए!


बैंगलोर में हुई शर्मनाक घटना का कलंक हमारी सोसाइटी से शायद इतनी जल्दी न मिटे, मगर यह भी सच है कि धीरे-धीरे करके लोग उसे भूल ही जाएंगे। मगर जब भी हम इसे याद करेंगे तो दिमाग में सिर्फ एक ही सवाल उमड़ेगा कि इतने कानून बनने के बाद भी क्या लड़कियां सच में सुरक्षित हैं? अगर नहीं हैं तो क्या वजह है इसके पीछे?

अगर हम इस सवाल का जवाब ढूंढने निकलते हैं, तो हमे ज्यादातर यही जवाब मिलेंगे कि या तो गलती लड़की की है या ज़माने की, जिसमें लड़कियों को इतनी छूट मिली हुई है कि लड़के ऐसी हरकतें कर बैठते हैं। होता यही है कि जब किसी लड़की के साथ बदतमीजी हो जाती है तो लोग कहते है कि लड़की का चाल-चलन ठीक नहीं था। वो खुद ऐसे कपड़े पहनती थी तो सामने वाले की क्या गलती है? कई बार यह भी कहा जाएगा कि अरे, वो लड़की खुद सबसे हँस-हँसकर बातें करती थी, वो तो खुद ऐसी बदतमीजियों को न्योता दे रही थी।

लोग बेटियों को जन्म तो देते हैं पर उन्हें जिंदगी जीने का अलग ही नजरिया दिखाते हैं जो बेटों को नहीं दिखाया जाता। क्यों लड़कियों को ही समझाया जाता है कि उन्हें किस तरह के कपड़ें पहनने चाहिए? बेटी बाहर जाती है तो हम कहते है की छोटे कपडे पहनकर मत जाना, पर हम अपने बेटे से नहीं कहते कि किसी भी लड़की को बुरी नजर से मत देखो। हम हमेशा बेटी को सिखाते है कि घर की इज़्ज़त बनाके रखना.. बजाय इसके कि बेटों को कभी समझाएं कि किसी की इज़्ज़त से मत खेलना।  बेटी को समझाते हैं लड़को से ज्यादा हंस-हंसकर बात मत करना मगर बेटों को नहीं सिखाते कि कोई भी लड़की अगर हँसकर बात करे तो उसका गलत मतलब नहीं निकालना। बेटी के फ़ोन पर नजर तो होती ही है पर ये भी देखें कि बेटा इंटरनेट में क्या देख रहा है।

हमने अपनी बेटियों को कभी ये नहीं सिखाया कि जब भी कोई गलत इरादे वाला इंसान तुमसे टकराये तो उस वक़्त तुम्हें क्या करना चाहिए। कैसे अपने आपका बचाव करना चाहिए। कुल मिलाकर लड़कियों के साथ होने वाली घटनाओं में कानून-व्यवस्था से ज्यादा गलती हमारे समाज में हो रही परवरिश की ही है क्यूंकि हमने कभी इस बात पर ज़ोर नहीं दिया कि कोई कुछ भी पहने, कुछ भी करे हम उसे गलत मानसिकता से नहीं देखेंगे।

हर घर में माँ-बाप अपने बेटियों को बाहरी दुनिया से सावधान करते हुए जरूर नजर आएंगे। शायद यह सोचकर कि हमारी बेटी ऐसा करेगी तो मुसीबत कभी उसका दरवाज़ा नहीं खटखटायेगी। मगर हकीकत में ऐसा होता नहीं है। उल्टे हम उसे और डरपोक व कमजोर बनाते चले जाते हैं। अपनी बेटी को मुसीबत से दूर भागने की जगह उसे हालातों से लड़ना सिखाया जाये तो हर कदम में उसकी फ़िक्र करने की जगह उस पर फ़ख्र महसूस होगा। वरना हालातों से डरकर वो दूसरों के सहारे जीने लगती है।

लड़कियों के मामले में तो कहा जाता है कि उन्हें धोखा गैरों से नहीं, अपनों से मिलता है…  तो किस अपने से हमें कब ख़तरा हो जाये, हम इस बारे में अंदाजा भी नहीं लगा सकते। और तब वो दर्द हम किसी से बयां भी नहीं कर पाते। ऐसे में तो अगर बेटियां सर से लेकर पाँव तक भी ढकी हों या किसी से ज्यादा बात भी न करे तो भी उसके साथ आत्याचार हो जाता है। फिर हम कोसते है अपनी किस्मत को, क्यों?

एक बार बस हम ये सोच कर देखें कि क्यों न हम अपने बच्चो की परवरिश में थोड़ा सा बदलाव लाएं। अगर परवरिश में थोड़ा सुधार लाकर हम समाज को और बेहतर कर सकते हैं, अगर अपनी बेटी, बहन, बहू को सुरक्षित रख सकते है तो क्यों हम ये नहीं कर सकते? आखिर हम तो उसी समाज मे रहते है न जहाँ लड़कियों पर अत्याचार हो रहा है, तो शुरुआत हम करेंगे देखते-देखते लोग सीखेंगे। आज इन्हीं मुद्दों पर गौर करें तो महसूस होता है कि हम आगे तो बढ़ते जा रहे हैं पर हमने अपनी मानसिकता को एक सीमा में बांधकर रखा है।

कुल मिलाकर हम लड़कियां अपनी परवरिश का तरीका बदलकर  भागने की जगह लड़ना सीखें। लड़कियों का पार्टी में जाना, खुलकर जीना, लड़को के साथ घूमना, उनसे खुलकर बात करना… उनके चरित्र के मापने का पैमाना न बनाया जाए। किसी लड़की के खुलकर हँसने का यह मतलब नहीं है कि उसके साथ बदतमीजी की जाए।

Shipra MIshraलड़कियों की परवरिश पर चर्चा करता यह लेख भेजा है मेरा रंग की पाठक शिप्रा मिश्रा ने। वे सतना, मध्य प्रदेश में रहती हैं और पत्रकारिता में शिक्षा हासिल की है। 

आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है

2 COMMENTS

LEAVE A REPLY