लड़कियां शर्म छोड़ खुलकर बोलें छेड़खानी के खिलाफ


इलाहाबाद की एक छात्रा लोकल बस से सफर कर रही थी। हवा के ठंडे झोकों ने उसे नींद के आगोश में ढकेल दिया। ऐसा हम सबके साथ होता है। मैं स्वयं गाड़ी के भीतर बैठते ही सो जाता हूं। दिल्ली में भारी ट्रैफिक के चलते गंतव्य तक पहुंचने में खासा वक्त लग जाता है। ऐसे में नींद बड़ा सुकुन देने का काम करती है। तो वह लड़की साम्या हल्की नींद में थीे जब उसे महसूस हुआ कि उसकी छाती में कुछ दबाव सा बन रहा है। वह जाग गई। पाया की पिछली सीट में बैठे एक (अ) मानुष का हाथ उसकी छाती में चहलकदमी कर रहा है।

लड़की साहसी है। कानून की छात्रा है। उसने तुरंत शोर मचाया। ड्राइवर से गाड़ी को निकट के थाने में ले जाने को कहा। सहयात्रियों ने भी उसका साथ दिया। छेड़ने वाले व्यक्ति को घेर लिया ताकि वह भाग न सके। जैसा की अमूमन होता है कुछेक ने ज्ञान दिया कि शिकायत दर्ज कराने से कोई फायदा नहीं। मनचले ने माफी मांग ली। आगे से ऐसा किसी के संग न करने का वायदा भी किया। साम्या नहीं मानी। उसने थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी। छेड़ने वाले की गिरफ्तारी हो गई। यहां तक जो कुछ हुआ वह कम से कम इतना आश्वस्त करने वाला रहा कि पीड़िता ने साहस किया, साथ वालों ने साथ दिया और पुलिस ने कार्यवाही की। चूंकि हमारे यहां ऐसा कम ही होता है इसलिए इस घटना के प्रचारित होने पर जनता ने साम्या को सराहा, सिस्टम पर भी भरोसा जताया।

फिर कहानी में टिवस्ट् आ गया। यकायक ही साम्या ने अपनी शिकायत थाने जाकर वापस ले ली। साम्या कहती है कि उसने अपने परिवार के कहने पर शिकायत वापस ली। नामालूम कैसे छेड़खानी करने वाले के परिवार वालों को साम्या का मोबाइल नंबर मिल गया। उस पर रोज दबाव बनाया जाने लगा। हालांकि अभी तक वह व्यक्ति जेल में है लेकिन शिकायतकर्ता द्वारा अपनी शिकायत वापस लेने के चलते उसकी जल्द ही रिहाई होनी तय है।

जरा सोचिए साम्या तो हिम्मत वाली लड़की है। उसने साहस दिखाया और पुलिस तक पहुंच गई। लेकिन है तो यह अपवाद ही। अधिकांश ऐसे मामलों में पीड़ित लड़की मन-मसोसकर रह जाती है। परिवार के दबाव में आकर, समाज क्या कहेगा के नाम पर शिकायत करने से बचती है।

महिलाओं पर अपराध हमारे समाज में लगातार बढ़ रहे हैं। बेंगलुरू जैसे मेट्रो शहर में पिछले दिनों नववर्ष का स्वागत लड़कियों संग छेड़छाड़ की घटनाओं से हुआ। बेंगलुरू की पहचान महिलाओं के लिए सुरक्षित माने जाने वाले शहरों में होती है। यहां सीसीटीवी कैमरे की सुरक्षा व्यवस्था है जिसके चलते पिछले दिनों हुए वाकये सामने आए। सोचिए जरा हमारे गांव-देहात के हालात जहां ऐसा कुछ नहीं है। वहां का सामंती माहौल बलात्कार तक की घटनाओं को हर रोज घटने देता है। राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान केंद्र के आंकड़े स्पष्ट कर देते हैं कि किस तेजी से ऐसे अपराधों में वृद्धि साल दर साल हो रही है।

हर तीन मिनट में एक ऐसी घटना उस देश में घट रही हैं जो अपनी समृद्ध संस्कृति की दुहाई देते नहीं थकता। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ की हम बात करते हैं। सच्चाई यह है कि स्वयं हमारे देवताओं पर नैतिक द्रोह के आरोप हैं। ऋषि गौतम की पत्नी संग दुराचार करने वाला और कोई नहीं बल्कि स्वर्ग का राजा इंद्र था। वही इंद्र जिसके नाम की आहूति यज्ञों में डाली जाती थी। 2015 के आंकड़े स्तब्धकारी हैं। 34. 6 फीसदी मामले ऐसे सामने आए जहां अपराधी या तो पति है या फिर निकट के परिजन 25. 2 फीसदी मामले छेड़छाड़ के तो बलात्कार के 10. 6 फीसदी मामले सामने आए हैं। कुल 34,651 बलात्कार के मामलों में 33098 यानी 95. 5 फीसदी में अपराधी पीड़िता के जानने वाले थे।

सबसे घिनौना है बच्चों के साथ घटी ऐसी घटनाएं जिनमें लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, तेलंगाना और कर्नाटक से गरीब परिवारों की लड़कियों की तस्करी सबसे ज्यादा होने की बात भी सामने आई है। बेंगलुरू में हुई छेड़छाड़ की घटना के बाद हमारे राजनेताओं के बयान भी चिंताजनक हैं। ज्यादातर का मानना है कि इसके लिए पीड़िता ही जिम्मेदार होती है। ऐसों का कुतर्क है कि तंग, छोटे, भड़काऊ कपड़े पहनने के चलते वे पुरुष को ऐसा करने के लिए उकसाती हैं। यदि ऐसा है तो फिर छोटे शहरों, कस्बों में बलात्कार, छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए जहां महिलाओं पर सख्त पाबंदी रहती है। ऐसा है नहीं।

इन जगहों पर ज्यादा महिलाएं शोषित हैं। शर्म के मारे वे मुंह नहीं खोल पाती। उनका जमकर शोषण किया जाता है। आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी उन्हें भोग की वस्तु माना जाता है। सच तो यह है कि इस विकृत मानसिकता का विस्तार हो रहा है। जिस नारी का शोषण दशकों से कथित तौर पर नारी पूजने वाले देश में होता आया हो वहां अब हर क्षेत्र में नारी के आगे आने को हमारी सामंती सोच पचा नहीं पा रही है।

तालिबानी सोच रखने वाले हमारे राजनेता क्या हमारी स्त्री को वापस अठारहवीं शताब्दी में धकेल देना चाहते हैं जहां पर्दे के पीछे सारे कुकृत्यों को अंजाम दिया जा सके? क्या हमारी कानून-व्यवस्था इतनी लचर हो चुकी है कि संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों तक की रक्षा नहीं की जा सकती है?

यह आलेख है अपूर्व जोशी का। वे इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसाइटी के चेयरमैन हैं।

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