जो रेप करता है सिर्फ वो नहीं आप भी अपराधी हैं!


हमारी कथनी और करनी में कितना अंतर है, इसका उदाहरण हम कुछ दिनों पहले दिल्ली में हुई रेप की घटना से देख सकते है।

जहाँ हम 8 मार्च को महिलाओं के स्वावलंबी होने, उनकी हिम्मती होने और परिस्थियों से लड़ने के जज़्बे की वाह-वाही करते नहीं थक रहे थे… वहीं उसके कुछ दिनों बाद घटी एक घटना में नेपाली लड़की को अपनी आबरू बचाने के लिए निर्वस्त्र ही छत से कूदना पड़ा। तब हमारे-आप जैसे लोग जो महिला दिवस पर स्त्रियों की रक्षा का दावा कर रहे थे, खामोश खड़े रहे। वह सबसे मदद की गुहार लगाती रही… किंतु किसी ने तन ढकने के लिए रूमाल तक नहीं दिया। उलटे उसके नग्न शरीर का वीडियो बनाते हुए नज़र आये।

नारी सम्मान की बातें जो हम महिला दिवस पर करते है क्या वो सिर्फ उसी क्षण के लिए होती है…या वो लड़की भारतीय नहीं थी, इसलिए हम उसकी मदद करना नहीं चाहते थे…अगर ऐसा है तो धिक्कार है हम सब पर। वजह चाहे जो हो पर इस हादसे से ये तो स्पष्ट हुआ कि 8 मार्च सिर्फ एक त्योहार की तरह हमारे जीवन में आता-जाता है। दिन खत्म होते ही उसका महत्व भी खत्म हो जाता है।

कहानी यहीं खत्म नहीं होती। जब अक्सर ऐसी घटनाओं में कोई लड़की बेरहमी से अपना दम तोड़ दे या बच भी जाये… तो शुभचिंतको की टोली हाथों में मोमबत्तियां लिए निकल पड़ती है, फिर पूरी दुनिया में ‘इनसाफ दो’ और ‘वी वांट जस्टिस’ के नारे गूंजते है। आरोपी को सज़ा मिले भी तो क्या सिर्फ वही आरोपी है जिसने बलात्कार किया है…। जी नहीं! ज़रा गौर करिएगा वो सभी लोग जो तमाशा देखते हैं, तड़पता गिड़गिड़ाता देख कर कन्नी काट लेते हैं वो भी अपराधी हैं।

जनता की जिस एकता से कानून हिल जाता है और सरकारें डगमगा जाती है, वही एकता उन पाखंडियों को उनकी सीमा में क्यूँ नहीं बांध सकती, क्यों हम जुर्म होने का इंतज़ार करते है? क्यों नहीं उसी समय हम अपने हिस्से की इंसानियत दिखाते हुए मदद का हाथ बढ़ाते है। इस दुर्घटना में लड़की के साथ लड़ना तो दूर उस पर किसी ने दया भी नहीं दिखाई…

‘पिंक’ जैसी फिल्मों को देख कर हम उन लड़कों पर गुस्सा तो दिखाते है, पर अमिताभ बच्चन के द्वारा निभाए किरदार पर गौर नहीं करते जिस तरह उन्होंने बिना मदद मांगे उन लड़कियों की मदद की थी। समाज में औरत की स्थिति सिर्फ कह देने से बेहतर नहीं होती है इसके लिए बदलाव की ज़रूरत है। पर बड़े अफ़सोस की बात है इस बदलाव के लिए हम दूसरे घरों से शुरुआत होने की आशा लिए बैठे रहते है।

मोमबत्ती पर 10 रूपए खर्च करने से अच्छा है पहले ही उस हाथ को थामा जाए जिसके लिए बाद में मोमबत्ती जलानी पड़ती है…।

यह लेख भेजा है मेरा रंग की पाठक शिप्रा मिश्रा ने। वे सतना, मध्य प्रदेश में रहती हैं और पत्रकारिता में शिक्षा हासिल की है। 

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