अनु चक्रवर्ती की कविताओं में परंपरागत काव्य भाषा और शिल्प में भी आधुनिक जीवन और मन की विडंबनाओं को प्रस्तुत करने का कौशल दिखता है। वे बिलासपुर छत्तीसगढ़ में रहती हैं। कविताओं के अलावा बतौर वॉइस आर्टिस्ट, पटकथा लेखक, रंगकर्मी, हिंदी फीचर फिल्मों की अभिनेत्री के रूप में भी उनकी प्रतिभा का विस्तार देखा जा सकता है। उनकी सक्रियता सामाजिक कार्यों तथा प्रकृति संरक्षण में भी है। मेरा रंग के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी दो कविताएं।
वो एक दिन लौटेगा…
जो छोड़कर गया है, वो एक दिन लौटेगा
अवश्य
जिसके लिए नीर बहाया है तुमने
उसे लगेगा अश्रुदोष
जिसने अनुराग को समझा मनोविनोद
उसे स्वस्ति नहीं मिलेगी कभी
जिसने पूर्ण समर्पण को किया अनदेखा
वो भोगेगा संताप भी
जिसने प्रेमत्व के बदले देना चाहा किंचित सुख
वह उपालंभ के अधिकार से भी होगा वंचित
अब देर हो चुकी
बहुत देर…
यानी काफ़ी देर हो जाती है न…!
तुम्हारा लौट कर आना
मेरे लिए अब कोई मायने नहीं रखता
अब बहुत देर
यानी…
काफ़ी देर हो चुकी ।
मेरे प्रिय !
काश ! क़े तुम लौट पाते थोड़ी देर पहले…
थोड़ी देर पहले तक मेरी पलकों के
झिलमिलाते मोतियों पर
तुम्हारे ही अक्स मौजूद थे ।
बस थोड़ी ही देर पहले तक
मेरा मन जाने कब से प्रतिक्षारत था
तुम्हारे द्वारा व्यक्त किये गए
हर्फ़-दर-हर्फ़ के लिए ।
अभी थोड़ी देर पहले भी मैं
बुन रही थी सपनों का सुंदर सजीला
एक संसार
तुम्हारा हाथ थामे-थामे ।
थोड़ी देर पहले तक,
मैं पूरी तरह से
भुलाने को तैयार थी एक बार फ़िर
तुम्हारी सारी ग़फ़लतें।
थोड़ी-सी देर पहले तक
मैंने संजो रखे थे
साथ बिताए तमाम वो
ख़ुशियों और
साझेदारियों के पलों को ।
थोड़ी देर पहले तक
मैंने अपने सारे गिले- शिक़वों से
कर लिया था
हमेशा-हमेशा के लिए तौबा ।
बस अभी थोड़ी देर पहले तक
मैं नज़रअंदाज़ कर देना चाहती थी
तुम्हारी सारी उपेक्षाओं को ।
थोड़ी ही देर पहले ही
मैं नए ज़ाविए से देख रही थी
बीती हुई अपनी ज़िन्दगी को ।
मगर मेरे हमनफ़स !
अब सच में बहुत देर
यानी…
काफ़ी देर हो चुकी।
तुम्हारे लाए मरहम अब
मेरे दर्द को कम न कर पाएंगे
मैंने रिश्तों के दरकने के दंश को
आख़िरकार चुपचाप सहना सीख लिया।