शालिनी श्रीनेत
जहां मजदूर पैदल जाने को मजबूर हैं, वहां की स्थिति पर और क्या बात करना। स्पष्ट हो जाता है कि हमारी व्यवस्था कैसी है। इसी सिलसिले मे हम बात करते हैं भारत के सेक्स वर्कर्स पर।
एक अच्छी खासी है संख्या है सेक्स वर्कर और वेश्याओं की। वेश्याओं के कोठे पर क्या व्यवस्था होगी क्या नहीं, कितना कमिटमेंट होता है उनके दलालों का पता नहीं… पर ट्रांसजेंटर और सेक्सवर्कर के बारे में मैं जानती हूँ। क्योंकि मेरा रंग पर मैंने इनका इंटरव्यू किया है। वो भी दिहाड़ी मजदूर की तरह ही हैं। रातों को चुपके से पुलिस से बच-बचाकर, छुपकर कहीं झाड़ी में तो कहीं ट्रक के पीछे तो कहीं किसी के बताए गए स्थानों पर पहुँचकर या जाकर सेक्स करने के बदले मिलते हैं कुछ पैसे।
क्या इनकी भी कहीं सुनवाई होती है? क्या इनके लिये भी इस कोरोना के दौर में कोई व्यवस्था की गई है। तीन दिन से ये बातें दिमाग में चल रही थीं। कुछ दोस्तों से इस पर बातचीत भी की पर संतोषजनक जानकारी नहीं मिली। फिर मेरा रंग ने बातचीत की नोएडा में रहने वाले आलिया से। आलिया एक ट्रांसजेंडर है और खुद एक सेक्स वर्कर भी। इन ट्रांसजेंडर्स का एक ग्रुप भी है जिसमें से ज्यादातर लोग इसी पेशे से अपना गुजर-बसर करते है। आलिया ने बताया कि मैम बहुत दिक्कत हो रही है खाने-पीने की। पहले थोड़े-बहुत पैसे थे तो अपने घर माता-पिता के लिए भेज दिए। जाड़े भर काम चला नहीं, इस साल पुलिस वालों ने भी बहुत परेशान किया। दिल्ली वाले कहते थे नोएडा चले जाओ तो नोएडा वाले कहते थे दिल्ली जाओ। बहुत उलझन भरा रहा पिछला साल।
इनके पास आजीविका का पहले ही कोई साधन नहीं था। ये देह व्यापार के जरिये ही अपना जीवन यापन करते थे। अब कोरोना की वजह से इनके सामने बहुत बड़ा संकट आ गया है। एक और सेक्स वर्कर योगिता से जब बातचीत हुई तो उसने बताया अब तो क्लाइँट भी नहीं मिल रहे। थोड़े-बहुत पैसे थे जो घर भेज चुके थे। अब न पैसा है न खाने की व्यवस्था। इधर कमाई भी ठीक से नहीं हो रही थी कि तब तक कोरोना आ गया।
ये सेक्स वर्क के जरिये जो कमाते हैं उससे मिले पैसे भी बचाकर नहीं रख पाते। एक और ट्रांसजेंडर प्रीति ने बताया कि हम लोगों का कोई अकाउंट नहीं है तो कोई सेविंग भी नहीं है। यहां घर में पैसे रख नहीं सकते। चोरी का डर रहता है। क्योंकि हम लोग तो रात भर बाहर रहते हैं अपने काम के चक्कर में। थोड़े-बहुत जो पैसे थे भी वो चोरी के डर से घर भेज दिए थे अब हाथ एकदम खाली है।
रागिनी का कहना है कि पैसे बचे तो अंगूठी बनवा ली। अब भूख से मरे जा रहे हैं। इतने भी पैसे नहीं हैं कि ब्रेड-बटर भी खरीदकर खा सकें। माही का कहना है कि कई लोगों के पास तो अकाउंट इसलिए नहीं है कि आधार नहीं बन पाया है तो हमारा अकाउंट भी नहीं खुल सका। हम लोग पैसे नहीं बचा पाते। अब खाने को नहीं है। इन सभी लोगों का कहना है कि रूटीन गड़बड़ होने से हम लोग घर पर खाना भी नहीं बना पाते तो अक्सर बाहर से ही खाते हैं। आजकल पैसा भी नहीं है और खाना भी नहीं मिल रहा दुकानों पर।
मेरा रंग के इस सवाल पर कि आप हमारे माध्यम से सरकार या पब्लिक तक कोई बात पहुंचाना चाहते हैं? तो उनका कहना था कि सरकार से हमारी अपील है कि उन्हें हमारे बारे में सोचना चाहिये। उन्होंने हमारे थर्ड जेंडर को मान्यता तो दे दी है मगर हमारे कमाने-खाने का भी कोई अच्छा सा जरिया भी हो, जिससे हमें भी दो पैसे का प्राफिट हो। उन्होंने कहा कि आप ऐसा कुछ लिखियेगा जिससे हमारी बात सरकार तक पहुँचे। हम तो मजबूरी की वजह से सेक्स वर्कर बने हैं।
ये वो लोग हैं जो वंचित रहे जाताें हैं हमारी चर्चाओं से। सामान्य तौर पर हम इन पर बातचीत करने में भी असहज होते हैं। जिस तरह से हम समाज की तमाम समस्याओं पर और अन्य तबकों पर बात करते हैं वहीं इनकी समस्याओं पर चर्चा न के बराबर है। टीवी चैनल वाले भी जितनी समस्याएँ गिना सकते हैं रोज गिना रहे हैं पर अभी तक मेरी नजर किसी भी चैनल की किसी भी ऐसी खबर पर नहीं पड़ी जिसमें ट्रांस्जेंडर और खास तौर पर सेक्स वर्कर पर बातचीच सुनने को मिली हो। शायद उनके लिए भी इनकी समस्यायें बहुत अहमियत न रखती हों या हमारा समाज ही ऐसा है कि हम इन सारे मुद्दों को नजरअंदाज़ करते रहे हैं, कर रहे हैं और शायद करते रहेंगे। हालांकि यह मुद्दा साहित्य में भी अब देखने को मिल रहा है। इन पर तमाम किताबें और आर्टिकल पढ़ने को मिल जाएंगे पर आम जिंदगी में इन पर सहजता से बातचीत नहीं होती।
शालिनी श्रीनेत मेरा रंग फाउंडेशन की संचालक हैं और महिला अधिकारों के लिए काम करती हैं।