शिवरात्रि – पार्वती और शिव के ब्याह का दिन। एक स्त्री के लिए अक्सर ब्याह यानि निर्बाह। निर्बाह यानी मजबूरी। अपने व्यक्तित्व से, अपने स्वप्न से, अपने होने की अपार संभावनाओं से समझौता । लेकिन भारतीय समाज की मिथकीय चेतना में गहरे पैठे आदि- युगल पार्वती और शिव की कथा में बहुत कुछ है, जो भारतीय स्त्री को आत्मसात करने की जरूरत है- संकल्प, स्वतंत्र -चेतना, साहस और रचनाधर्मिता।
जो पार्वती शंकर की प्रीत को प्राप्त करने के लिए अपने माता- पिता की आज्ञा की अवहेलना करती है। युगों- युगों तक तप करती हैं। शिव उनके प्रेम की परीक्षा लेते हैं। तब जाकर कहीं वह शिव को प्राप्त कर पाती हैं। लेकिन ब्याह के बाद शिव को टूट कर प्यार करने के बावजूद अपनी सबसे कीमती चीज अपने व्यक्तित्व का विसर्जन कभी नहीं करती हैं पार्वती।

इस प्रणय और दाम्पत्य कथा में कई ऐसे प्रसंग हैं, जहां पार्वती अपनी स्वतंत्र- चेतना का प्रयोग करते हुए शंकर के मन के खिलाफ जाकर न केवल फैसले लेती हैं, बल्कि उन फैसलों पर बिना किसी ग्लानि के अमल भी करती हैं। एक तो इस तरह कि बहु प्रचलित कथा सीता का रूप धर वन में राम की परीक्षा लेने की ही है। शंकर के अस्तित्व को शामिल किए बगैर ही अपने पुत्र गणेश को जन्म देना कहीं न कहीं पार्वती की प्रचंड रचनाशीलता, अत्यांतिक साहस और अपने प्यार पर अटूट विश्वास की कहानी है। कई अवसरों पर मतभेद होने के बावजूद उनके बीच मनभेद के उदाहरण शायद ही मिलते हैं। इसकी वजह तो यही हो सकती है कि दोनों ने अपनी निजता को बनाए रखते हुए एक- दूसरे को प्रेम किया।
आदि- युगल की कथा कहती है की ब्याह स्त्री मात्र का पुरुष के प्रति समर्पण नहीं है अपितु दो व्यक्तित्वों की रचनाशील, सर्वसुन्दर पूरकता का आजीवन समारोह है। लेकिन इस पूरकता में स्त्री और और पुरुष की रुढ छवियों के हस्तक्षेप का निषेध है। ऐसा इसलिए कि स्त्री- पुरुष की अपनी- अपनी विशेषताओं के बावजूद भी हर व्यक्ति स्वयं में विलक्षण होता है और उस विलक्षणता का अन्वेषण और उसकी सतत अभिव्यक्ति ही किसी भी रिश्ते के सुन्दर और प्रेमपूर्ण होने के तरीके हो सकते हैं।

पार्वती कई बार स्त्री और पत्नी होने की रुढ छवियों के पार चली जाती हैं। चौसर खेलने की कथा तो यही कहती है। चौसर के खेल में शिव पार्वती से एक- एक कर अपनी सभी वस्तु हार जाते हैं, यहां तक कि अपना एक मात्र वस्त्र बाघ का छाल भी और पत्ता पहन कर वहाँ से कार्तिकेय के साथ प्रस्थान कर जाते हैं। यहां पार्वती चाहती तो उन्हें रोक सकती थीं और कह सकती थीं कि खेल ही तो था – “पति परमेश्वर के साथ भला ऐसा बर्ताव कैसे किया जा सकता है!” लेकिन यहाँ भी पार्वती एक पत्नी की मानिन्द कतई नहीं सोचती। आखिर स्वयम्भू को भी परिपूर्ण होने के लिए विजय के साथ-साथ पराजय का स्वाद भी चखना जरूरी है। और इस तरह वो चौसर- खेल के जरिए शिव को हार का स्वाद चखा कर उन्हें पूर्णता की ओर ले कर जाती हैं।
ध्यान देने की बात यह भी है कि शिव- पार्वती के रिश्ते में जो अहम का संघर्ष पहली नज़र में दिखता है, वो दरअसल एक- दूसरे के पूरक बनने का ही आयोजन है। तभी तो चौसर में हार जाने के बाद जब शिव कैलाश- पर्वत से चले जाते हैं, तो पार्वती का प्रेमिल जिया अपने पिया के लिए व्याकुल हो जाता है। विरह की अग्नि में जल रही पार्वती भला अपने पुत्र गणेश को कैसे बताए कि शिव के बिना उसके तन- मन की क्या हालत हो रही है। सो इतना भर कहती है कि मन नहीं लग रहा कि भला मैं चौसर किसके साथ खेलूँ, जाओ पिता को ढूँढ लाओ।
मेधा यह लेख मेधा ने लिखा है। वे सत्यवती महाविद्यालय ( सान्ध्य) में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। साहित्य- संगीत, पत्रकारिता, जन आन्दोलन, आत्म-अन्वेषण उनके जीवन और सक्रियता के कुछ महत्वपूर्ण आयाम हैं।
Bhut khoobsurat blog likha hai…. Ek Stri ka pura vyaktitv hai…