किस तरह मानसिक प्रताड़ना में बदल जाता है हमारे स्कूलों का अनुशासन


अदीबा ख़ानम

‘मैन्स सर्च फ़ॉर मीनिंग’ किताब पढ़ रही हूँ । पढ़ते हुए एक जगह ठहर जाती हूँ। फ्रैंकल बता रहे हैं कि किस तरह बहुत छोटी वजहों से भी उन्हें नाज़ी जर्मनी के कैम्प्स में पीटा जाता था। कई बार बिना वजह भी। इसी में अपने साथ हुए एक वाकये का ज़िक्र करते हैं जहाँ उन्हें सिर्फ इसलिए पीटा गया क्योंकि खाना मिलने वाली लाइन में वो थोड़ा सा इधर-उधर थे और इससे उभरी बेतरतीबी गार्ड को बुरी लगी। आगे वो इसके मनोवैज्ञानिक पक्ष पर कहते हैं कि ऐसे अन्यायों का असर शारीरिक रूप से कम मानसिक रूप से ज़्यादा पड़ता है और ये बात वो वयस्कों और बच्चों दोनों पर समान रूप से लागू होती है।

बस यहीं ठहर गई हूँ। याद आने लगा अपना स्कूल! फिर याद आने लगे वहाँ बीते बरस। याद आने लगी वही सुबह की प्रार्थना सभा जहाँ सभी बच्चे इकठ्ठा होते थे। इसी सभा से शुरू होता था कंट्रोल। हाँ कंट्रोल ही ! मैं उसे अनुशासन या नैतिक शिक्षा नहीं कहूँगी जिसमें बच्चे के मन को शामिल न किया जाए। हमें बताया जाता था कि लाइन इतनी सीधी, इतनी परफ़ेक्ट हो कि कहीं से कोई भी इधर-उधर न दिखे और यदि किसी से ऐसी चूक हो जाती तो बेशक़ वो पीटा न जाता लेकिन कई बार आस-पास की टीचर्स या उन लड़कियों द्वारा जो इस काम के लिए चुनी जाती, सीध में आने के लिए एक अजीब गुस्सैल स्पर्श के साथ धकेला जाता या सामने से किसी टीचर द्वारा ज़ोर से उसे डांटकर पूरी सभा में अपमानित किया जाता, कम ही सही लेकिन कभी-कभी किसी गुस्सैल शिक्षक द्वारा थप्पड़ भी रसीद किया जा सकता था।

ये किसी के लिये छोटी सी बात हो सकती है लेकिन अब तक अगर मुझे ये बातें याद हैं तो मैं यही कहूँगी कि ये बातें छोटी नहीं होतीं। ये बच्चों के मस्तिष्क पर गहरा और लंबा असर छोड़ती हैं। विद्यालयों में आपसे उम्मीद की जाती है कि आप साफ़-सुथरे कपड़े और जूते पहनें, दाँत और नाख़ून साफ़ रखें जिससे आप स्वस्थ रहेंगे। साफ़-सुथरे दिखें जिससे कि आपको पढ़ने और शिक्षक को पढ़ाने में मज़ा आए। यहाँ तक बात समझ आती है लेकिन बात इससे कहीं बहुत आगे जाती है।

अनुशासन के नाम पर आपको ऐसी छोटी-छोटी बेमतलब की बातों के लिए बाध्य किया जाता है जिसका कुछ हासिल ही नहीं है। आपको बताया जाएगा कि आपके बालों को कैसे रखना है, कितने लंबे बालों पर किस प्रकार की चोटी बनानी है और चोटी बनाते हुए मांग बीच से निकालनी है या साइड से, उसे बांधने वाले रिबन के धागे न निकलें इसके लिए उसे जलाना नहीं है बल्कि सुई धागे से सिलना है, रिबन सिकुड़े नहीं इसके लिए उन पर रोज़ इस्त्री करनी है। आंखों में काजल नहीं लगाना है। सफ़ेद दुपट्टे और सलवार पर बिना नील किये स्कूल नहीं आना है, दुपट्टा कितने नीचे तक पहनना है, उसकी तह कितनी लंबी और कितनी चौड़ी होनी है और उन पर आपको कहाँ-कहाँ पिन लगानी है कि ग़लती से भी वो दुपट्टा खिसककर आपके वक्षों का आभास न दे और ये हाल तब जब आप एक गर्ल्स स्कूल में हैं।

मुझे एक वाक़या याद आता है जिसमें एक लड़की जो कि कक्षा पाँच में थी और लंच के बाद उछलती कूदती अपनी कक्षा की ओर जा रही थी, उसे दो-चार शिक्षकों का ग्रुप घेरकर मैदान में ही (जहाँ अभी भी काफ़ी लोग थे) रोकता है और उससे कुछ सवाल करता है जिसे मैं दूर होने की वजह से सुन नहीं पाती हूँ। इसके बाद उनमें से एक शिक्षक उसके फ्रॉक में ऊपर की तरफ़ से हाथ डालती हैं और आसपास की टीचर्स को देख कर हँसती हैं।

जहाँ तक आज मैं अंदाज़ा लगा पाती हूँ तो शायद वो उस बच्ची से ये जानना चाहती थीं कि उसने ब्रा पहनी है या नहीं क्योंकि वो एक मोटी-ताज़ी बच्ची थी और पांचवी कक्षा में ही उसके वक्षों का उभार अच्छी तरह नज़र आने लगा था इसलिए उसके साथ ये अजीब व्यवहार उन शिक्षिकाओं को ज़रूरी लगता है। जब वो दृश्य मेरे मन पर इतनी गहराई से अंकित है तो उस बच्ची का क्या हुआ होगा जिसके साथ ये हुआ था। इस तरह के व्यवहार को क्या कहा जाएगा। क्या ये उस बच्ची का हरासमेंट नहीं था?

इन सभी नियमों का पालन हो रहा है या नहीं इसके लिए कई विद्यालयों में 12वी कक्षा की लड़कियों की एक टीम बनाई जाती है जो प्रार्थना के बाद वापस कक्षाओं में जाते समय सभी विद्यार्थियों के कपड़े, जूते, नाखून, बाल आदि चेक करते हैं। और यदि आप अनुशासन के इन सारे तथाकथित पैमानों पर खरे नहीं उतरते तो आपको अलग कर दिया जाता है। उसके बाद इस विभाग को देखने वाले शिक्षकों के समक्ष आपको तलब किया जाता है और फिर कई तरह से आपमानित किया जाता है।

इस सबके बाद विद्यार्थियों की साफ़-सफ़ाई को लेकर भी कई सवाल हैं जो एक शिक्षक होने के नाते मेरे मन में उभरते हैं। मैं उस बच्ची को कैसे सज़ा दे सकती हूँ जिसके कपड़े साफ़ सुथरे नहीं है और पूछ्ने पर पता चलता है कि उसके माँ-बाप दोनों शारीरिक श्रम करके उसे और उसके भाई बहनों को पालते हैं। चूंकि माँ भी काम करती हैं, तो अपने बाक़ी भाई बहनों को सम्भालने जैसी कठिन तथा थका देने वाली ज़िम्मेदारी कक्षा सात की उस बच्ची पर है। उसके पास 2-3 जोड़ी स्कूल ड्रेस नहीं है कि जाड़ों में वो उसे नियमित रूप से धो सके और इस बीच दूसरी जोड़ी पहनकर आ सके। जो सुबह खाना इसलिए नहीं खाकर आ पाती क्योंकि माँ चली गई थी और रात का बचा खाना नहीं था और अब उसे भूख मिटाने के लिए मिड-डे मील का इंतज़ार करना होगा। मुझे उस बच्ची को सज़ा देनी चाहिए या समाधान?

विद्यालयों में मौजूद फ़ेवरेटिज़्म का तो कहना ही क्या। न केवल पढ़ाई बल्कि कितने ही बच्चों का आत्मसम्मान, हुनर और रचनात्मकता इस फ़ेवरेटिज़्म की बलि चढ़ जाते हैं ।कक्षा में हमेशा अव्वल आने वाले विद्यार्थियों को सराहते हुए बाक़ी कक्षा को भूल बैठे शिक्षकों से मैं ये पूछना चाहती हूँ कि जब कोई विद्यार्थी सामाजिक पैमानों पर सफलता की ऊँचाइयों को छूता है तब माँ-बाप, स्कूल-कॉलेज को इसका श्रेय दिया जाता है और मिलना भी चाहिए। लेकिन जब कोई विद्यार्थी सामाजिक पैमानों पर असफ़ल होता है तब इसका दोष केवल विद्यार्थी के सर क्यों मढ़ दिया जाता है?

हम सभी के लिए स्कूल के दिनों की स्मृतियां बहुत मायने रखती हैं। स्कूल से कॉलेज, फिर नौकरी तक पहुँचे हम लोग जब पलटकर उन स्मृतियों की तरफ़ देखते हैं तब न जाने क्या-क्या ज़हन में घूम जाता है। खट्टी-मीठी यादों की एक गठरी अचानक से सामने खुल जाती है। जिस पृष्ठभूमि से मैं आती हूँ वहाँ पूरे ख़ानदान में मेरी पीढ़ी से पहले किसी ने भी औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की। स्कूल आकर ही शिक्षा की ये दुनिया मेरे लिए खुली लेकिन किस हद तक खुली ये कहना मुश्किल है।

आज जब मैं पीछे पलटकर उन यादों को खंगालती हूँ तब याद आते हैं तमाम मित्र और उनके साथ बिताया वक़्त। लेकिन तमाम अच्छी यादों से होते हुए अक्सर वहाँ पहुँच जाती हूँ जहाँ स्कूल जैसी संस्था की सार्थकता पर मेरे मन में तमाम प्रश्न उठ खड़े होते हैं। बार-बार मन में सवाल आता है कि शिक्षा शब्द के असल में क्या मायने हैं? और इस एक शब्द में मौजूद कई मायनों को समग्रता में समझे बिना इसके असली सरोकारों तक कैसे पहुँचा जाए?

अदीबा ख़ानम

मेरा रंग के लिए यह लेख अदीबा ख़ानम ने लिखा है। अदीबा पेशे से शिक्षिका हैं। कलात्मक अभिरुचि रखती हैं। साहित्य, शिक्षा और समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर लिखती हैं और एक बहुत अच्छी कुक भी हैं। 

 

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