उषा यादव
अशिक्षा,छुआछूत, सतीप्रथा,बाल विवाह जैसी कुरीतियों के प्रति आवाज उठाने वाली सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं को उनके अधिकारों की पहचान दिलाई। वे देश की पहली शिक्षिका थी। जिन्होंने दलितों पिछड़ों और महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दिलाया। 19वीं सदी के विपरीत परिस्थितियों में सावित्रीबाई फुले ज्योतिबा फुले (उनके पति) ने आंदोलन शुरू किया।
जब ना शिक्षा थी ओर ना ही आर्थिक स्थिति अच्छी थी, ना सामाजिक तथा राजनीतिक। उसमें उन्होंने मुफ्त शिक्षा का अधिकार का काम किया। उन्होंने स्वयं चंदा इकट्ठा कर स्कूल खोला प्लेग के दिनों में स्वयं कैम्पों में जा जाकर लोगों को भोजन प्रदान किया। जब यौन हिंसा की शिकार स्त्री आत्महत्या कर लेती। अपने बच्चों को मार देती उस समय सावित्रीबाई फुले ने ‘बाल सुरक्षा गृह’ बनाया। जहां छोड़कर जाने वाली महिलाओं के बच्चों को रखा जाता। उन्होंने दाई बनकर प्रसूति की उन बच्चों की परवरिश की और स्वयं काशीबाई के बेटे को गोद लेकर उसे पढ़ाया और डॉक्टर भी बनाया।
सावित्रीबाई फुले ऐसी स्त्री थी उन्होंने बिना किसी स्वार्थ के काम किया। उन्होंने अपने पति को स्वयं मुखाग्नि दी। जबकि महिलाओं को शमशान तक जाने की आज्ञा ना थी। सावित्रीबाई फुले देश की महानायिका थी। हर बिरादरी और धर्म के लिए उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती तो रास्ते में लोग उन पर गंदी कीचड़ गोबर तक फेंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में ले जाती और स्कूल पहुंच कर साड़ी भी बदल लेती थी। सावित्रीबाई फुले एक कवियत्री भी थी। उन्होंने दो काव्य पुस्तकों की रचना की।बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रेरित करने के लिए कहा करती थी।
“सुनहरे दिन का उदय हुआ। आओ प्यारे बच्चों
आज हर्ष उल्लास से तुम्हारा स्वागत करती हूं आज”
ज्योतिबा बाई फुले की मृत्यु हो जाने के बाद उनका जीने का मन ना हुआ तो अपने पति की बातों को याद करके उनके अपूर्ण कार्यों को पूरा किया। और स्वयं संस्थाओं की बागडोर संभाल ली। वह गांव और देहातों में जा जाकर प्लेग से पीड़ित लोगों की सेवा करने लगी। जब 1897 में पुणे को प्लेग की बीमारी ने घेर लिया था। तब यह महामारी गांव देहातों तक फैल गई। रोजाना सैकड़ों लोग मरने लगे।प्लेग की रोकथाम के लिए सरकार ने कारागार कदम न उठाए। प्लेग का रोगी खोज निकालने के लिए जगह-जगह गोरे सैनिक यम की तरह प्लेग के रोगी के दिखते ही उन्हें घरों से उठाकर ले जाने लगे। लोगों को प्लेग से ज्यादा गोरे सिपाहियों की दहशत सताने लगी।
ऐसे भयंकर दिनों में भी सावित्रीबाई फुले द्वारा की गई सेवा कार्यों की मिसाल आज भी सुनाई जाती है। वे घर-घर जाकर लोगों की ढा़ढस बांधती ,उनकी तकलीफों की शिकायतों की गुहार सरकार तक पहुंचाती। उस समय प्लेग के दुष्परिणामों से और अथक सेवा कार्यों से सावित्रीबाई फुले की सेहत भी गिरने लगी थी।
और अंततः वह खुद भी इसका शिकार हो गई। 10 मार्च 1897 के दिन उनकी जीवन यात्रा समाप्त हो गई । उनकी मृत्यु से सारा समाज दुख के सागर में डूब गया। सभी के हृदय पर अपनी जो छाप वे छोड़ चली है। वे सामाजिक जागृति और विकास की सामाजिक प्रतिबद्धता उसमें अवश्य दिखाई देती है। उनका हृदय मानवता से ओतप्रोत तथा गरीबी और संकटों पर विजय पाना उनकी विशेषता थी। जीवन में पराजय के क्षणों में भी वह नहीं टूटी। वे हमेशा उचित बात कहती और उचित समय के अनुसार उचित कार्य करती।
पिछली शताब्दी की वे एक मितभाषी, विवेकशील और विधाशास्त्री महिला थी। यदि हम व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठकर सावित्रीबाई फुले के पद चिन्हों पर चलने का प्रयास करें तो यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी हम सभी के लिए।

मेरा रंग के लिए यह आलेख उषा यादव ने लिखा है। उषा मौलाना आज़ाद उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद से पीएचडी कर रही हैं। उनसे ushayadav.741@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।