डॉ. चैताली सिन्हा
नित्य उदित होक ना केनो सुरजो
आमार जीवोने ताओ तो आलो नेई
रोइलो आंधार चीरो–जीवोन
पालिए जाबार तो पोथ नेई…
इतिहास गवाह है इस बात का कि भारत अपनी परम्पराओं एवं संस्कृतियों के नाम पर किस प्रकार रूढिवादी और संकीर्णतावादी सोच का वहन करता रहा है। सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में धरोहर के नाम पर सबसे अधिक प्रभावित यदि किसी का जीवन रहा है तो वह है स्त्रियों की, जिसके कंधों पर समाज को संस्कारित करने का दारोमदार सर्वाधिक माना जाता रहा है या यूँ कहें कि उसके सर पर इस नाम का ठीकरा ज़बरदस्ती फोड़ा जाता रहा है। परिवार से आरंभ होकर समाज, फिर नगर, फिर देश तदुपरान्त विश्व। इन सभी संस्थाओं में स्त्री का सुसंस्कृत होना सबसे ज़्यादा अहम् माना जाता है। इसका कारण है, स्त्री का वह रूप जिसे ‘ऋग्वेद’ से लेकर ‘मनुस्मृति’ तक में चित्रित किया गया है। जहाँ वह अलग – अलग नामों से व्याख्यायित की जाती रही हैं, कभी देवी के रूप में तो कभी ममतामयी के रूप में, कभी आदिशक्ति के रूप में तो कभी करुणामयी के रूप में। इतना ही नहीं ! स्त्री के घर में रहने मात्र से ही देवताओं के वास होने की बात कही गई है। यदि ऐसा है तो फिर वह स्त्री कौन सी है, जिसे ऋतुमती होने के समय गृहत्याग करके पशुओं के बीच रहने पर विवश किया जाता है, फल और जल ग्रहण करने पर विवश किया जाता है, पौष्टिक आहार जैसे – दूध, मांस, मछली, अंडा आदि कुछ भी खाने से वर्जित रखा जाता है। ठण्ड में कम्बल इस्तेमाल करना मना कर दिया जाता है, ज़्यादा हुआ तो जूट की कोई दरी का प्रयोग कर सकती है।
समाज का यह कौन सा दोहरा चरित्र है जिसे आज भी निभाते देखा जा सकता है। इसका ज्वलंत प्रमाण हमें तसलीमा नसरीन के उस लेख से भी मिलने लगता है, जहाँ उन्होंने स्त्रियों के प्रति अपनाए जाने वाले इसी रवैये का उल्लेख किया है।
‘नेपाल से बोल रही हूँ’ नामक लेख (हंस, मासिक पत्रिका, मई 2017 ; पृ.सं.-87-88) में तसलीमा नसरीन ने नेपाल की पहाड़ियों पर स्थित जीवन शैली एवं कुप्राथाओं का ज़िक्र करते हुए लिखती हैं कि – “लोग बहुत गहराई से विश्वास करते हैं कि मासिक धर्म के दिनों में लडकियां अपवित्र होती हैं। विश्वास करते हैं, अगर लडकियां माहवारी के दिनों में दूध पीएं तो जिस गाय का वे दूध पिएंगी वो गाय दूध देना बंद कर देगी। जिस पेड़ को छू लेंगी वो पेड़ फल देना बंद कर देगा। अगर कोई किताब पढ़ लेंगी तो देवी सरस्वती नाराज़ हो जाएंगी। किसी पुरुष को छू लेंगी तो वो पुरुष बीमार हो जाएगा। माहवारी हो रही लड़की के घर में रहने से हिन्दू देवता असंतुष्ट हो जाते हैं, परिवार के लोग संक्रमित हो जाते हैं, आदि – आदि।” (हंस, मई-2017; पृ.सं.-87)
इतना ही नहीं इस लेख में लेखिका ने कई ऐसी क्रूर कुप्रथाओं का ज़िक्र किया है जिसे पढ़ते हुए अभी के समय में विश्वास करना कठिन सा हो जाता है। अब प्रश्न यह है कि उपर्युक्त सभी रूपों में ( ममतामयी, करुणामयी आदि ) स्त्री का केवल वही रूप क्यों उजागर किया गया जिससे उसकी विवशता, असहाय एवं दयनीय छवि का निर्माण होता हो ? ऐसी स्नेहमयी स्त्री का वह रूप क्यों ओझल रखा जाता है जानबूझकर, जिससे उसके शक्तिशाली रूप का आभास हो। इसमें आश्चर्य होने की भी बात नहीं क्योंकि इसके पीछे जो पितृसत्तात्मक समाज की नीति है, उसे भी समझने की ज़रूरत है। पितृसत्तात्मक समाज यानी – एक ऐसा समाज या एक ऐसी व्यवस्था, जिसका शाब्दिक अर्थ है पिता या ‘कुलपति’ (परिवार का बुज़ुर्ग पुरुष) की सत्ता या शासन। आगे इसी की परिभाषा देते हुए सिल्विया वैल्वी नामक स्त्रीवादी विद्वान कहती हैं – “यह सामाजिक ढांचा और रिवाजों की एक व्यवस्था है जिसके अंतर्गत पुरुष स्त्रियों पर अपना प्रभुत्व जमाते हैं।” (नारीवाद क्या है ?, कमला भसीन).
अनुशासन का जो पाठ आरंभ से स्त्री को सिखाया जाता है, वही पाठ यदि पुरुष वर्ग को सिखया जाता तो आज न तो पितृसत्ता होती और न ही मातृसत्ता, अपितु एक समन्वयात्मक सत्ता का निर्माण होता, जहाँ न कोई ग़ुलाम होता और न कोई मालिक। स्त्री को ग़ुलाम बनाने की प्रक्रिया का आरम्भ भी सर्वप्रथम घर-परिवार से ही होने लगता, जहाँ सारे नियम-क़ानून उसपे पाबंदी लगाने से संबंधित होते हैं। तभी तो कमला भसीन लिखतीं हैं :-
देश में गर औरतें अपमानित हैं, नाशाद हैं
दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद हैं
जिनका पैदा होना ही अपशकुन है, नापाक है
औरतों की जिंदगी क्या खाक़ हैं
चुप हैं लेकिन ये न समझो हम सदा को हारे हैं
राख के नीचे अभी भी जल रहे अंगारे हैं। (वही)
आज भी दुनिया में शायद ही कोई ऐसा समाज हो, जहाँ स्त्री-पुरुष में पूर्ण समानता हो, उन्हें बराबर के अधिकार, अवसर, सम्मान व सत्ता प्राप्त हो। स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को मिटाने का प्रयास आज से नहीं सदियों से चलता आ रहा है, जहाँ उसे मुक्त किए जाने का षडयंत्र पितृसत्ता का वह लोभ है, जिसे वह केवल अपने उत्तराधिकारी को ही सौंपने में विश्वास रखता है। तभी तो भारत जैसे प्राचीन संस्कृति वाले देश में सती प्रथा जैसे जघन्य अपराध को होने दिया जाता रहा। सती प्रथा की आग सिर्फ भारत में ही नहीं धधक रही थी वरन तिरानवे साल पहले तक यह प्रथा नेपाल जैसे देशों में भी पवित्र प्रथा के रूप में माना जाता रहा था। सतीदाह नेपाल में एक पवित्र प्रथा के रूप में प्रचलित रहा है।
आज से कई वर्ष पूर्व जब राजस्थान के देवराला गाँव में रूप कुँवर को उसके पति के साथ ज़िंदा जला दिया गया तो देशभर में सतीदाह के संबंध में फिर से चर्चा होने लगी। करीब 22 वर्षीय इस राजपूत स्त्री का विवाह लगभग एक वर्ष पूर्व हुआ था। इसी बिच रूप कुँवर के पति की बीमारी के कारण मृत्यु हो गई। विधान सभाओं, समाचार माध्यमों, महिला संगठनों आदि में इसकी व्यापक चर्चा एवं तीखी आलोचना हुई। इस प्रथा को मध्य युगीन तथा बर्बर बताया गया। किन्तु कोई इस शर्मनाक एवं निर्दयतापूर्ण घटना का आँखों देखा हाल प्रस्तुत नहीं कर सका।
सतीदाह प्रथा कब और कैसे शुरू हुई– इसे ठीक– ठीक कहना मुश्किल है। उन्नीसवीं शताब्दी के लेखकों एवं इतिहासकारों के लेखों से इसकी उत्पत्ति पर थोड़ा प्रकाश पड़ता है। ‘मॉडर्न हिन्दुइज्म’ नामक पुस्तक में सन 1887 ई. में डब्ल्यू. जी. बिल्किंस लिखते हैं – “राजा दक्ष की कन्या को ‘सती’ कहा गया है, यह तो काफ़ी जानी– पहचानी घटना है। गाँजा – भाँग पिने वाले शमशान वासी शिव के अपमान के बाद पतिपरायण पार्वती आत्महत्या करती हैं। सतीदाह के रूप में इस प्रकार अमानवीय प्रथा की सृष्टि के पीछे काल्पनिक कथा को सत्य रूप में मान लेना कहाँ तक उचित है?”
सन 1867 ई. में हेनरी बेभरीज ‘कम्प्रेहेंसिव हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ में लिखते हैं कि शिव की पत्नी पार्वती के अतिरिक्त ब्रह्मा की पत्नियों के नाम का भी सतीप्रथा की उत्पत्ति के कारणों में उल्लेख किया जाता है। शिव व ब्रह्मा की पत्नियों के अनुकरण के रूप में तत्कालीन प्रभावशाली राजाओं एवं महाराजाओं ने अपने परिवार की स्त्रियों को भी जीवित जलाना शुरू किया। इसी से प्रेरित होकर स्वार्थी पुरोहितों ने धर्म का चोला पहनकर प्रचुर आर्थिक लाभ का रास्ता खोज निकाला। कहा गया है कि – “जो स्त्री सह-मरण (पति के साथ चिता में जलना ) में भागीदार बनेगी, वह अनंत काल तक दाम्पत्य सुख भोगेगी।” (देवदासी, सती-प्रथा और कन्या ह्त्या’, शीतला सहाय, अतुल कृष्ण विश्वास, पृ.सं.-44-45 ). इस प्रकार मिथ्या प्रचार के रूप में स्त्रियों के मन में भी एक मिथ्या धारणा उत्पन्न हुई कि पति की स्मृति को अक्षय एवं सहज करने का एकमात्र उपाय है – स्त्री का जीवित जलकर सती होना ! (वही, पृ.सं.-45).
विलियम वार्ड सन 1799 ई. में कोलकाता आए। वार्ड ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री, लिटरेचर एंड माइथोलॉजी ऑफ़ हिंदुज़’ में सती की अनेक घटनाओं का उल्लेख किया है। (वही, पृ.सं.-31). 1818 ई. में प्रकाशित इस पुस्तक में वार्ड ने सती की अनेक घटनाओं के पीछे के वास्तविक कारणों पर भी प्रकाश डाला है, जिसे पढ़ते हुए यह ज्ञात होता है कि दरअसल इन सबके पीछे का मुख्य कारण संपत्ति के अधिकार से था। पहले वृद्ध पति की मृत्यु, तदुपरान्त पत्नी को सती होने के नाम पर ज़िंदा जलाया जाना उसके बाद उसकी संपत्ति पर पुत्र अथवा पुरोहितों का अधिकार। यदि शोधपूर्वक इसका मूल्यांकन किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलेगा कि यह सारा कर्मकाण्ड कहीं न कहीं संपत्ति के कारण ही था, जिसे अंधविश्वास का चोला पहना दिया गया था।
19 वीं सदी की समाचार पत्रिकाओं में भी सतीदाह की खबरें छपी। ‘संवाद कौमुदी’ एक बंगला मासिक पत्रिका में 15 मार्च, सन 1818 ई. में इसके उदाहरण हमें मिलते हैं। जहाँ बाग़ बाज़ार (कोलकाता) में एक व्यक्ति की मृत्यु हुई एवं उनकी पत्नी विंध्यवासिनी को उसके पति की चिता में बिना हाथ-पाँव बांधे लिटा दिया गया। यह एक अपवादपूर्ण घटना थी। यदि हम गौर करें तो पाएंगे कि चौबीस परगना (पश्चिम बंगाल) के पुराने दस्तावेज़ों में सन 1819 ई. की सती संबंधी घटनाओं के आंकड़े कोलकाता के उपनगर से संबंधित हैं। उसमें कुल 52 (बावन) स्त्रियों को ज़िंदा जलाए जाने का ज़िक्र है। इतना ही नहीं आंकड़े बताते हैं कि सन 1815 से लेकर सन 1828 तक के बीच आठ हज़ार एक सौ चौंसठ (8,164) स्त्रियों को अपने पति की मृत्यु के बाद ज़िंदा जलाकर मार दिया गया तथा उन्हें सती की संज्ञा दी गई। धारणा है कि आठ हज़ार एक सौ चौंसठ स्त्रियों को ही जलाकर मारा गया था? यह अमूमन अधूरा ब्योरा हो सकता है। सही ब्योरा इससे कई गुणा अधिक था। (स्रोत : पी. थॉमस, इंडियन वूमन थ्रू द एजेज़ : एशिया पब्लिशिंग हाउस (1964) : पृ.सं.- 293).
उपर्युक्त आंकड़े चाहे जो हो और जितने भी हों, प्रश्न यह नहीं है कि सतियों की संख्या कितनी है या होनी चाहिए ? बल्कि प्रश्न यह होना चाहिए कि सतीदाह प्रथा कब और कैसे शुरू हुई? इसी के साथ संपत्ति के अधिकार से संबंधित विषय भी जुड़ने लगते हैं। एक तथ्य के अनुसार ‘द फ्रेंड ऑफ़ इंडिया’, जुलाई सन 1919 (पृ.सं.-326), पढने से ज्ञात होता है कि उस समय धनी परिवार की किसी विधवा को सतीदाह संस्कार में झोंककर पंडितगण मात्र दो सौ रूपए पारिश्रमिक पारितोषिक ग्रहण करते थे, जिसका मूल्य आज प्रायः पचास हज़ार रूपए से भी अधिक हुआ। इतना ही नहीं टॉमस हर्बर्ट – ‘ट्रावेल इन्टू अफ्रीका एंड एशिया’ नामक पुस्तक में लिखते हैं कि – As soon as the (funeral) fire was out, the Brahmins would go and gather all the melted gold, silver and copper.” (वही, पृ.सं.-52).
अर्थात् आग के बुझते ही ये पण्डे – पुरोहित चिता से सोना, चांदी तथा तांबा एकत्र करते थे। क्या इससे भी ज़्यादा कोई जघन्यतम घटना की कल्पना की जा सकती है। धर्म के नाम पर एवं शास्त्र का डर दिखाकर रचा गया यह सारा षडयंत्र क्या केवल अर्थलाभ प्रतीत नहीं होता, जिसका उपभोग केवल एक विशेष वर्ग द्वारा ही किया जा रहा था। क्या इसी बंटवारे को दिमाग में रखकर ही वेद ने निर्देशित किया है कि श्रेष्ठ अलंकार से विभूषित होकर पतिव्रता सती होंगी ? ऐसे न जाने कितने ही घटनाओं की जानकारी हमें प्राप्त होती है, जो अमानुषिकता की पराकाष्ठा को छूती नज़र आती है। उपर्युक्त विवरण बहुत ही संक्षिप्त एवं सीमित है। परन्तु इस दरम्यान एक जो सबसे अच्छी बात हुई, वह है – 1829 में सतीदाह को कानूनन अपराध घोषित करना। सदियों से यह वीभत्स प्रथा भारत के माथे पे कलंक की तरह चिपकी हुई थी। आज भी कहीं न कहीं इस प्रथा को जीवित रखने का प्रयास देखने को मिलता है। इसका ज्वलंत उदाहरण हमें राजस्थान के रूप कुँवर की घटना से प्राप्त होता है।
अंत में, आज यह कहना अनुचित नहीं होगा कि ज़्यादातर सतियों की घटनाएं बलपूर्वक ही अंजाम तक पहुंचाई जाती थीं, अपवाद स्वरुप ही दो – चार स्वेच्छा से सती बनना स्वीकार करती थीं, इसके पीछे भी उनका वह संस्कार या अंधविश्वास तथा अशिक्षा ही होती थी जो अपने साथ हो रहे अन्याय को समझ नहीं पाती थीं। जो भी हो परन्तु स्त्री आज भी पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो पाई है और तब तक नहीं हो पाएंगी, जब तक पितृसत्तात्मक समाज की दोहरी नीतियों का सिलसिला कायम रहेगा। इस बात का जीता – जागता उदाहरण हमें हाल – फिलहाल में आई तसलीमा नसरीन के इस लेख से प्राप्त हो जाता है, जिसका शीर्षक पूर्व में उद्धृत किया जा चुका है। वह लिखती हैं कि – “तिरानवे (93) साल पहले तक सतीदाह प्रथा को नेपाल में पवित्र माना जाता था। सन 1920 तक भी चुड़ैल – हत्या प्रथा को पवित्र माना जाता था। यह प्रथा तो आज भी, इस इक्कीसवीं सदी में भी चल रही है। अभी भी देउकी प्रथा चलती है, जिसमें लड़कियों को मंदिर में देवताओं को उत्सर्ग किया जाता है। आज भी चौपदी प्रथा चल रही है, जिसमें माहवारी के समय लड़कियों को घर से बाहर निकाल दिया जाता है।” (वही, पृ.सं.-87)
इन स्त्री विरोधी कुरीतियों की तो कोई सीमा ही नहीं। हिमालय में 125 तरह की जाति हैं, एक जाति तो यही विश्वास करती है कि– उनका जन्म ही पतिता होने के लिए हुआ है। मां – बाप ही बच्चियों को वेश्यालयों में भेज देते हैं। वे मानते हैं यही उनकी संस्कृति है जिसका पालन करना उनका कर्तव्य है। (वही, पृ.सं.-87)
ऐसी तमाम स्त्री विरोधी कुप्रथाओ को खत्म करने के लिए स्त्री को संघर्ष करते रहना होगा…! इसी संदर्भ में कमला भसीन की ये पंक्तियाँ याद आती हैं :-
कौन कहता है जन्नत इसे
हमसे पूछो जो घर में फंसे
न हिफाज़त मिली, न इज्ज़त मिली
कर के कुर्बानी हम मर गए
दुश्मनों की ज़रूरत किसे
ज़ुल्म अपनों ने हम पे किए
जिसमें दिन – रात औरत जले
ऐसे घर से हम बेघर भले। (कमला भसीन)
कहने का तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त सभी विवरण केवल अठारहवीं सदी तक ही सीमित नहीं रह गई थी वरन आज भी सती प्रथा जैसी कुरीतियों को जिंदा रखा गया है नेपाल जैसे देश में, आंशिक रूप से भारत में भी।
सहायक ग्रन्थ
- सहाय, शीतला, विश्वास, अतुल कृष्ण, ‘देवदासी, सती – प्रथा और कन्या – हत्या’ (शैतानी लीलाओं का रक्तरंजित इतिहास), गौतम बुक सेंटर, 1/4446, रामनगर एक्स्टेन्शन, गली न.-4 : डॉ. अम्बेडकर गेट, मंडोडी रोड, शाहदरा, दिल्ली – 110032, संस्करण : 2016.
- वही, पृ.सं.- 45
- वही, पृ.सं. – 52
- वही, पृ.सं.- 31
- वही, पृसं.- 44-45
- नसरीन, तसलीमा, ‘नेपाल से बोल रही हूँ’, ( ‘हंस’, मासिक पत्रिका, मई 2017 ; पृ.सं.-87-88 )
- वही, पृ.सं.-87
- वही, पृ.सं.- 87
- भसीन, कमला, खान, निहगत सईद, ‘नारीवाद क्या है ?’, ग्रामोन्नति संस्थान, नरसिंह कुटी के पास, गांधीनगर महोबा
डॉ.चैताली सिन्हा ‘अपराजिता’ जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी की शोधार्थी हैं। चिंतनपरक आलेखों के अलावा वे कविताएं भी लिखती है और मेरा रंग की नियमित लेखिका हैं।