प्रेमचंद के जीवन के दो प्रसंग जो उनके स्वाभिमानी व्यक्तित्व का परिचय देते हैं

Premchand

एकता प्रकाश

आज आधुनिक हिंदी के पितामह की जयंती है। 31 जुलाई 1880 को जन्मे कलम के जादूगर बरसों से आज तक अपनी अद्भुत लेखनी से हमारी किताबों में जिंदा है। मुंशी प्रेमचंद के लेखन में समाज का सच प्रमुखता से हमें पढ़ने को मिलता है। उनके लिखे हुए में गरीबों और शहरी मध्यवर्ग की समस्याओं से हम रुबरु होते हैं। प्रेमचंद जी का व्यक्तित्व इतना विशाल और अनुकरणीय है उन्हें अपने शब्दों या किताबों के अनगिनत पन्नें में समेट पाना मुश्किल है।

प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व के अनेक किरदारों से हम परिचित हैं पर उनकी एक और खासियत, उनका स्वाभिमानी व्यक्तित्व जो कि हम जैसे बहुत कम पाठक का ध्यान इस व्यक्तित्व रूपी महत्ता पर गया होगा। उनके इसी व्यक्तित्व के पहलू पर मैं आप सभी का ध्यान आकृष्ट करना चाहती हूँ।

मशहूर शायर रघुपति सहाय बताते हैं कि जब 1919 में प्रेमचंद ‘प्रेमाश्रम’ लिख रहे थे, तब वह स्कूल में पढ़ाते भी थे और बोर्डिंग हाउस के सुपरिटेंडेंट का भी काम करते थे। उनके स्वाभिमान से जुड़ी दो घटनाओं का जिक्र वे करते हैं। एक बार उनके स्कूल में निरीक्षण करने स्कूल इंस्पेक्टर आया। पहले दिन प्रेमचंद उसके साथ पूरे समय में रहें। दूसरे दिन शाम को वह अपने घर पर आराम कुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे। इंस्पेक्टर की मोटरकार उधर से गुजरी। इंस्पेक्टर को उम्मीद थी कि प्रेमचंद उठकर उन्हें सलाम करेंगे लेकिन ऐसा कुछ ना हुआ।

इंस्पेक्टर ने गाड़ी रोक दी और अर्दली को भेजकर बुलवाया।शिवरानी देवी इस घटना का वर्णन करते हुए लिखती है कि इंस्पेक्टर के सामने जाकर प्रेमचंद बोले, कहिए क्या है? इंस्पेक्टर ने कहा, ‘तुम बड़े मगरूर हो’ तुम्हारा अफसर दरवाजे से निकला जाता है और तुम उठ कर सलाम भी न करते? प्रेमचंद बोले, मैं जब स्कूल में रहता हूँ, तब नौकर हूँ, बाद में मैं भी अपने घर का बादशाह हूँ। इस घटना से प्रेमचंद आहत हुए थे और इंस्पेक्टर के खिलाफ मानहानि का केस करने पर विचार करने लगे। शिवरानी देवी ने उन्हें किसी तरह मनाया।

एक और प्रसंग है। प्रेमचंद के गोरखपुर वाले घर के पास ही कलेक्टर का आवास था। प्रेमचंद ने गाय पाल रखी थी। एक दिन गाय कलेक्टर के अहाते में चली गई। कलेक्टर बहुत नाराज़ हुआ। उसने कहा कि प्रेमचंद आकर अपनी गाय ले जाएं नहीं तो मैं गोली मार दूंगा। इस बात की जानकारी जब स्कूल के लड़कों को हुई तो वे कलेक्टर के बंगले पर एकत्र हो गए और नाराजगी प्रकट करने लगे। प्रेमचंद भी पहुंचे। सबसे पहले उन्होंने छात्रों को वहाँ से जाने को कहा। छात्र बोले कि बगैर गाय लिए नहीं जाएंगे।

प्रेमचंद कलेक्टर के पास गए बोले, ‘आपने मुझे क्यों याद किया। कलेक्टर ने कहा, ‘तुम्हारी गाय मेरे हाथ में आई। मैं उसे गोली मार देता, हम अंग्रेज है…’ प्रेमचंद ने कहा, ‘साहब, आपको गोली मारनी थी तो मुझे क्यूँ बुलाया? आप जो चाहे सो करते।या मेरे खड़े रहते गोली मारते?  कलेक्टर – हाँ, हम अंग्रेज़ है, कलेक्टर हैं, हमारे पास ताकत हैं। हम गोली मार सकते हैं। प्रेमचंद- ‘आप अंग्रेज हैं, कलेक्टर हैं, सब कुछ हैं, पर पब्लिक भी तो कोई चीज है।’ कलेक्टर- मैं आज छोड़ देता हूँ। आइंदा आई तो गोली मार दूंगा। आप गोली मार दीजिएगा ठीक है पर मुझे न याद कीजिएगा। यह कहते हुए प्रेमचंद चले आए।

इन दो कहानियों को पढ़कर उनके अक्खड़पन व स्वाभिमानी व्यक्तित्व का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। प्रेमचंद किसी से भी नहीं डरे चाहे वह अंग्रेज हो या उनके जिले का इंस्पेक्टर। तभी तो उन लोगों के सामने बेहिचक, निसंकोच बिना कोई उनके भय के उनके सामने उनके ही जवाब में मुंह पर सीधे सीधे बोल देना यह दिलेरी ही है। इस आप-बीती से पता चलता है कि उनमें विचार करने का और उन विचारों को प्रगट करने का साहस हमेशा हीं मौजूद रहा। जो कि हमें उनकी रचनाओं में भरपूर देखने, पढ़ने, समझने को मिलता रहा है।

प्रेमचंद जब कहते हैं उनकी ही कही बातों को फिर दोहराते हैं उसपर बल देकर आवाज़ में तीखेपन लेकर दबाव के साथ कि- “आप अंग्रेज हैं , कलेक्टर हैं, सबकुछ है, पर पब्लिक भी तो कोई चीज है।”

यहाँ एक वाक्य गौर देनेवाली बात है- ‘पब्लिक भी तो कोई चीज है’। यहाँ एक शब्द ‘पब्लिक’ कहकर कितनी ग़हरी बात उसमें छुपी रहस्य की बात प्रेमचंद ने कहने की कोशिश की है व अंग्रेज को समझाने की बात अपने ढ़ंग से करते है।
यहाँ वह जता रहे कि जब पब्लिक अपने पर, आपके जुल्म, आपके ताक़त को रोकने, मुंहतोड़ जवाब देने पर आ पड़े तो आपकी ये झूठी शान, आपका अहम सबकुछ नेस्तनाबूत होकर रहेगा, आपके रोकने, गोली चलाने का असर थोड़ा भी नहीं होने वाला। अगर आप ऐसा सोच रहें तो आप यह बहुत बड़ी भूल कर रहे।

प्रेमचंद यह समझ रहे थे कि वह एक भय का माहौल बनाना चाहता था जिससे लोग उससे डरें उसके सामने हाथ जोड़ें, नहीं नहीं ऐसा ना करें, जी हुज़ूर कर कांपे। पर जैसा अंग्रेज ने जो कुछ सोचा वैसा हुआ नहीं। जब इंस्पेक्टर को उन्होंने उठकर सलाम नहीं किया तो इंस्पेक्टर के बोलने पर जिस तरह के जवाब थे वह काबिलेतारीफ है। इंस्पेक्टर का उनको मगरूर कहना व यह सुनकर वह जो बोलते हैं शानदार है बिल्कुल जबरदस्त। प्रेमचंद कहते हैं मैं जब स्कूल में रहता हूँ, तब नौकर हूँ, बाद में मैं भी अपने घर का बादशाह हूँ।

यह सच हीं है कि हम सभी अपने अपने घर के मालिक होतें हैं, परिवारों के बीच एक मुखिया रह रहा होता है जो अपने को राजा समझता है। यही बात उन्होंने अपनी सोच से अवगत कराया उस इंस्पेक्टर को। सलामी ना मिले पाने के क्रोध में वह तमतमाये आया था और उनकी बातों से जल भूनकर कर उल्टे पांव लौटने को विवश हुआ। तो ऐसा निराला व्यक्तित्व था हमारे लेखक का।

हम कह सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व कुछ अलग हटकर था, निराले किस्म के इंसान थे। उनके बोलने के अंदाज से उनकी स्पष्टता, सहृदयता और स्वाभिमान का अंदाज़ा हम पाठकगण लगा सकते हैं। अंग्रेज हो या इंस्पेक्टर उन्हें आत्मनिरीक्षण का मौका देते हुए यहाँ हमें प्रेमचंद दिखते हैं।

कितने ही सावधानी से उन्होंने कम वाक्यों में बिना कोई विरोध, उग्र हुए बिना उस गर्म हुए माहौल को अपने सुलझे पन व्यक्तित्व ,अद्वितीय स्वभाव के कारण उत्पन्न मसले को अपने नजरिये, अपनी सोच की व्यापक दृष्टि से सुलझा लेते हैं। प्रेमचंद हमारे बीच से नहीं गये ना कभी जायेंगे। हमारे बीच जिंदा हैं। वे अपने वजूद और हर बार नये विचारों के साथ फिर-फिर प्रासंगिक होते रहेंगे।

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