मेरा रंग डेस्क
1908 की 9 जनवरी को सीमोन द बोउआर का जन्म पेरिस के एक मध्यमवर्गीय कैथोलिक परिवार में हुआ। पहली संतान होने के कारण उन्हें माता-पिता का भरपूर स्नेह मिला। दो साल बाद यानी 1910 में साथ खेलने के लिए बड़ी प्यारी, खूबसूरत नन्ही बहन मिली, जिसका नाम था पापीत। 1913 में सीमोन को लड़कियों के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया वहां मिली जाजा, जान से भी प्यारी सखी। हर गर्मी की छुट्टी सीमोन अपने नाना के घर, जो गांव में था, प्रकृति के बीच बिताती। दस वर्ष की आयु आते-आते सीमोन ने अपना सर्जक व्यक्तित्व पहचान लिया। घंटों कल्पनालोक या किताबो में खोई रहने वाली इस लड़की ने निश्चय किया कि वह लेखक बनेगी, यही उसकी नियति है, किताबें और केवल किताबें। पिता को अपनी मेधावी बेटी पर गर्व था और माँ उसकी किताबों के प्रति पागलपन से चिन्तित। माँ सबसे अधिक आहत हुई, जब चौदह साल की किशोरी एक दिन एलान कर बैठी कि मैं प्रार्थना नहीं करूंगी, मुझे तुम्हारे यीशु पर विश्वास नहीं।
1925 -26 के दौरान सीमोन ने दर्शन और गणित में स्कूल की परीक्षा जीर्ण की और बाक्कालोरिया की डिग्री हासिल कर आगे पढ़ने के लिये यूपी की सैनत मारी और इस्टीट्यूट क्लिक पेरिस में दाखिला लिया। 1926 में सौरमोन के विश्वविद्यालय में उन्होंने दर्शन और साहित्य का कोर्स शुरू किया। माता-पिता को गहरी निराशा हुई। माँ को इस बात के असन्तोष या कि सीमोन शादी नहीं कर रही, धार्मिक नहीं है, आवारा लड़कों के साथ घूमती-फिरती है। पिता को इस बात का अफसोस कि इतनी मेधावी बेटी ने सरकारी नौकरी न कर केवल शिक्षिका का पेशा अपनाया पिता दीवालिया हो चुके थे और बेटी की शादी में देने के लिए उनके पास दहेज नहीं था और न ही रूप देखकर बेटी को कोई ले जाता। सीमोन उन दिनों अपने कजिन जैक से, जो बड़े धनाढ्य परिवार का लड़का था, प्रेम करती थीं पर जैक ने उन्हें ठुकराया। आहत सीमोन समाज सेवा में रुचि लेने लगी, पर ज्यादा दिन नहीं। नियति कुछ और ही चाहती थी।
सन 1927 में उन्होंने दर्शन की डिग्री ली। 1928 में एकौल नौमाल सुपेरियर में दर्शन में स्नातकोत्तर के लिये दाखिला लिया। उन्हें पहली बार स्वतन्त्रता मिली। घरे के बन्धनों से दूर उन्होंने आजादी की खुली साँस ली शुरू के दिनों आवारागर्दी करना, बहन या अन्य दोस्तों के साथ काफी हाउस और शराबखानों में घूमना, पीने-पिलाने का दौर चलता रहा, लेकिन वे फिर ऊब गई और पूरे जोश-खरोश के साथ पढ़ाई में जुट गई। और फिर शिक्षिका बनीं। इस दौरान उनके दो मित्र थे, विश्वविख्यात नृतत्व शास्त्री क्लॉद लेवी स्त्रास और विख्यात घटना विज्ञानवादी मोरिस मैलोपोन्ती। यह साल सीमोन के लिए बड़ा दु:खद रहा। उनकी प्रिय सहेली जाजा ने आत्महत्या कर ली और मैलोपोन्ती भी अकाल मृत्यु के शिकार हुए। सीमोन मैलोपिोन्ती से शादी करना चाहती थीं। जाजा की कमी उनके जीवन में पूरी नहीं हो सकी, पर मैलोपोन्ती के बदले एकौल नौमाल में उनका परिचय अस्तित्ववाद के मसीहा दार्शनिक ज्यां पॉल सार्त्र से हो गया। दोनों मेधावी छात्र थे और बड़े अच्छे नम्बरों से परीक्षा पास की। 21 वर्ष की उम में पहले ही प्रयास में दर्शन में पास होकर प्रथम आने वाली पहली छात्रा थी सीमोन। सार्त्र का यह दुसरा प्रयास था। अब वे प्रोफेसर होने के काबिल थे आपस की दोस्ती प्रेम में परिणत होने लगी। सीमोन को सार्त्र किशोर वय में देखे हुए सपनों के साथी लगे।
विवाह और वंश परम्परा की अनिवार्यता के खिलाफ दोनों ने निश्चय किया। सीमोन विवाह को एक जर्जर दहती हुई संस्था मानती थीं। सार्त्र को राष्ट्रीय सेवा की नौकरी, जो कि उन दिनों फ्रांस में अनिवार्य थी, स्वीकार करनी पड़ी। सीमोन ने घर छोड़ दिया और नानी के प्रास एक कमरा किराए पर लेकर रहने लगी। पार्ट टाइम का अष्यापन आजीविका का माध्यम बना। उन्होंने लिखना शुरू किया। वे पहली बार सार्त्र के साथ विदेश यात्रा पर स्पेन पहुंची।
सन 1931 में सार्त्र की नियुक्ति मओय के एक स्कूल में हुई और सार्त्र पढाने चले गये लीहाव्र में। यह जुदाई दोनों के लिए दर्द से भरी थी। मां ने सीमोन से पहली बार विवाह का प्रस्ताव रखा ताकि एक ही जगत नियुक्ति हो सके सीमोन अपनी आस्था पर अडिग थी और कुछ समय का यह बिछोह उनके आपसी सम्बन्धों को और गहरा विश्वास दे गया। सीमोन को जीवन में पहली बार अकेलेपन का अहसास हुआ। सूने दिन तड़पाते हैं, पर मुक्ति की यह यात्रा उनकी अकेली होगी, यह भी ये समझ गई वह लडाई उनकी अपने आप से थी, शरीर की मांग का औदात्तीकरण कैसे हो? उन्हें लगा, फिर औरत और जानवर में फर्क क्या? अपनी उजर्स्विता का निकास और नियमन वे पहाड़ों की लम्बी और थका देने बाली चढ़ाइयों में करने लगीं।
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सन् 1932 में उनका तबादला रुओं के एक स्कूल में हुआ। सात्र लीहाव्र में ही रह गए, पर अब मिलने-जुलने की सुविधा अधिक थी। सीमोन की छात्रा थी पोलिश लड़की ओल्गा। खूबसूरत, तेज-तर्रार, झरने सी झरती हुई। वह सीमोन की दोस्त बनी और उनके ही साथ रहने लगी। सार्त्र का मन ओल्गा के रूप से, उसके जवान शरीर से पहचान चाहता था। यह त्रयी सीमोन के लिए असहय पीड़ा थी, क्योंकि सार्त्र ने सीमोन के साथ संबंध की पहली शर्त यह रखी थी कि प्रेम दो प्रकार का होता है- अस्थायी और चिरस्थायी संगिनी का। यह शर्त उन्होंने न केवल अपने लिए रखी, बल्कि सीमोन को भी इसकी अनुमति थी। किंतु दृढ़ विश्वासों की यह पुजारिन प्यार को मन का सम्बन्ध समझती थी, केवल शरीर का नहीं । कुछ समय की यह दाहक ज्वाला उनके प्रथम उपन्यास ‘शी केम टु स्टे’ का आधार बनी । ओल्गा सार्त्र के ही छात्र बोस्ट से उलझ गई सार्त्र चले गए एक साल के लिए बर्लिन पढ़ाने।
सीमोन अपनी छात्राओं से कभी सख्ती से नहीं पेश आती थीं । नतीजा यह हुआ कि छात्राएं उनकी दोस्त अधिक होती गई। दोस्ती में आपसी विचारों का विनिमय होता। जब वे छात्राओं की समस्याएं सुनती थीं, तब उन्हें अपनी प्यारी सखी जाजा याद आती थी, जो अपने मौसेरे भाई प्रादेल से प्यार करती थी, किंतु धर्मभीरू जाजा को माँ-बाप के डर से आत्महत्या करनी पड़ी। सीमोन स्त्री की पारम्परिक भूमिकाओं की आलोचना करती हैं, साथ ही युद्ध विरोधी चर्चा ज्यादा करती हैं। छात्राओं के अभिभावकों की शिकायत के कारण सीमोन को अधिकारियों से कडी डाँट-फटकार पड़ी, पर वे कब चुप रहने वाली थीं ? सन् 1936 में उनका तबादला लीसे मालियेर में हो गया। साल भर बाद सार्त्र की नियुक्ति भी पेरिस के स्कूल लीस पास्तर में हो गई। एक ही होटल में अलग-अलग मंजिलों में रहने लगे। घर नहीं बसाया। होटल मे रहना और बाहर खाना। गृस्हस्थी के झंझटों से बिल्कुल मुक्त। सारा समय लेखन, अध्ययन और अध्यापन। कहवाघर में घंटों दोस्तों के साथ दर्शन पर बहस। सारी रात पेरिस की सड़कों पर घूमना, कभी भी, तो कहीं भी। बेफिक्री और अस्ती का आलम। वह 1938 का वर्ष था। हिटलर की सेना दिन प्रतिदिन आगे बढ़ती जा रही थी और वे वो लाल कमल पोखर में मस्ती से तैर रहे थे।
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सन 1939 वर्ष द्वितीय महायुद्ध की घोषणा। 1940 का वर्ष। फ्रांस का पतन। नाजी सेना पेरिस की सड़कों को कुचल रही थी जीवन को राजनीति ऐसी विस्फोटक चोट दे सकती है, यह सब ने पहली बार समय जिंदगी राजनीति से अलग नहीं। सार्त्र ने प्रतिबद्धता का सिद्धांत अपनाया। इस मत को सीमोन का पूर्ण समर्थन था। उन्हें पेरिस से भागना पड़ा। वे प्रतिरोध-आन्दोलन के अग्रजों में से थे। सार्त्र को कैद कर लिया गया, किंतु बाद में छोड़ दिया गया। इन दिनों सीमोन फ्लोरे काफी हाउस में बैठकर लिखा करती थीं । नाजियों ने उन्हें स्कूल की नौकरी से निकाल दिया। 1941 में उनका प्रथम उपन्यास ‘शी केम टू स्टे’ प्रकाशित हुआ और उनके लेखन को जन-सम्मान मिला। 1944 में पेरिस आजाद हुआ। चूंकि सीमोन और सार्त्र दोनों ही वामपन्थी थे, अत: 1945 में ‘ल तौ मोर्दान’ पत्रिका की स्थापना हुई सीमोन का लिखा हुआ एक नाटक ‘यूजलेस माउथ’ मंच पर खेला गया, मगर असफल रहा। इसके बाद उन्होंने कभी नाटक नहीं लिखा। दूसरा उपन्यास ‘द ब्लड ऑफ अवर्स’ इसी साल प्रकाशित हुआ, जिसको प्रतिरोध-आन्दोलन के दौरान लिखा हुआ अत्यन्त प्रामाणिक उपन्यास माना गया 1946 में ‘ऑल मेन आर मोरटल’ प्रकाशित हुआ। सात्र ने घोषणा की कि अब वे किसी एम नाम की महिला के संग साल में तीन चार महीने रहा करेंगे। सीमोन सोचती हैं, यह ‘एम’ कौन है। 1947 में उनकी दर्शन की एकमात्र पुस्तक ‘इथिक्स ऑफ एम्बीगुइटी’ का प्रकाशन हुआ, जो कि मानव मूल्यों पर एक गुंथा हुआ दार्शनिक दस्तावेज है।
यह 1947 का वर्ष था, जब सीमोन ने अपने महान् ग्रंथ ‘द सेकिण्ड सेक्स पर काम शुरू किया। औरत की नियति क्या है? वह गुलाम क्यों है? किसने ये बेड़ियाँ कुलांचे मारती हिरणी के पैरों में पहनाई? इसी बीच उन्होंने अमेरिका में भाषण श्रृंखला के निमन्त्रण को स्वीकार किया। नया देश देखने का उत्साह और पहली बार इतनी दूर जाना? शिकागो में वे मिलीं अमेरिकन उपन्यास लेखक नेल्सन एलग्रेन से। दोनों प्यार में आकण्ठ डूबे । चार साल तक यह प्रेम-प्रसंग चला। कभी छुट्टियों में सीमोन अमेरिका जातीं, कभी नेल्सन रिस में रहते । एलग्रेन ने विवाह का प्रस्ताव रखा, पर सीमोन सार्त्र के प्रति प्रतिबद्ध थीं । पेरिस उन्हें बहुत प्यारा है और अपने लेखन से बेहद लगाव। प्यार कड़वाहट में बदल जाता है। आहत एलग्रेन वापस अमेरिका चले जाते हैं। बस, यदा-कदा पत्र-व्यवहार तक वह सम्बन्ध सिमट गया।
सन 1948 में ‘अमेरिका: डे बाई डे’ का प्रकाशन होता है और ‘ल तौ मोर्दान’ में ‘सेकेंड सेक्स’ के कुछ हिस्से प्रकाशित होते हैं सीमोन अब नियमपूर्वक सुबह का समय अपने लेखन में और शाम का वक्त सार्त्र के साथ बिताने लगीं। अपने युग के बौद्धिक मसीहा ने स्त्री-स्वातंत्रय पर लिखी जानेवाली पुस्तक में पूरी रुचि ली। कई स्थलों पर उन्होंने सीमोन से और भी गहरा विवेचन करने को कहा। कई स्थलों पर पुरुषों पर लगाए गए एकतरफा आरोपों को काटा।
सन् 1949 में द सेकिण्ड सेक्स’ का प्रकाशन होता है। हजारों की संख्या में स्त्रियों ने उन्हें पत्र लिखे। जिस समय यह पुस्तक प्रकाशित हुई, सीमोन स्वयं को नारीवादी यानी पुरुषों के बीच स्त्री की स्वाभाविक स्थिति या यूं कहिए कि स्त्री के वास्तविक और बुनियादी अधिकारों की समर्थक नहीं मानती थीं, मगर वक्त के साथ उन्हें समझ में आने लगा कि यह आधी दुनिया की गुलामी का सवाल है, जिसमें अमीर-गरीब हर जाति और हर देश की महिला जकड़ी हुई है। कोई स्त्री मुक्त नहीं उन्होंने कभी कुछ विशिष्ट महिलाओं की उपलब्धियों पर ध्यान नहीं दिया और न ही अपने प्रति उनकी कोई गलतफहमी रही। स्त्री की समस्या साम्यवाद से भी नहीं सुलझ सकती। इसी समय सोवियत लेबर कैम्प में हुए अत्याचार दुनिया के अखबारों में छपे । सीमोन ने खुला विरोध किया। पार्टी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर प्रश्न उठे। इसी मुद्दे पर उन्होंने व्यक्ति बड़ा या पार्टी समस्या पर ‘द मेन्डेरिस’ उपन्यास लिखा । 1951 में एल्ग्रेन से सम्बन्ध हमेशा के लिए, खत्म हो गये। सीमोन अफ्रीका घूमने गई। उन्होंने अपनी पहली गाड़ी खरीदी।
सन् 1952 में डॉक्टरों को उनके बाएं स्तन में कैन्सर का शक हुआ। एक छोटा मांस का गोला काटकर निकाला गया। पहली बार उम्र और मौत उन्हें डराती है, जिससे वे पलायन करती हैं और एक प्रेम-प्रसंग में। क्लांद लेंजमैन उनसे उम्र में काफी छोटे जर्नलिस्ट थे। सीमोन ने निश्चय किया कि वे लेंजमैन के साथ रहेंगी और साथ ही सात्र के साथ मैत्री और स्थायी प्रेम सम्बन्ध भी रहेगा। वे सार्त्र के साथ प्रत्येक गर्मी में रोम जाने लगीं। 1954 में ‘द मेंडरिन्स’ उपन्यास का प्रकाशन हुआ और फ्रांस का सबसे सम्मानित पुरस्कार प्रिक्स गोंकर’ उन्हें मिला। 46 की उम में यह पुरस्कार शायद सबसे पहले उन्हें ही दिया गया था। 1973 में सीमोन ने ‘ल तौ मोर्दान’ पत्रिका में नारी समर्थक कॉलम की शुरुआत की। वे 1974 में नारी मुक्ति आन्दोलन की प्रेसीडेन्ट चुनी गई। 1978 में उनके जीवन पर दायां एण्ड रिवोवस्का ने एक फिल्म बनाई। सन् 1979 में आजीवन मानस-बन्धु और संगी साथी सार्त्र की मृत्यु । सार्त्र की मृत्यु तथा उनसे बातचीत के कुछ अंतरंग हिस्से ‘ए फेयरवेल टू सार् 1981 में बड़े मार्मिक रूप से सीमोन ने प्रस्तुत किए 1981 में उनके पुराने प्रेमी एलग्रेन की भी मृत्यु । सन् 1983 में सार्त्र द्वारा उनको लिखे गए अंतरंग पत्रों एवं कुछ अन्य साथियों के भी पत्रों का प्रकाशन, जिसका सम्पादन सीमोन ने स्वयं किया। सन् 1985 में ओल्गा और बोस्ट दो और अंतरंग साथियों की मृत्यु। एक-एक कर संगी-साथी अब विदा हो रहे थे।
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सीमोन को भी अपनी मौत का आभास होने लगा था। सार्त्र की मृत्यु. जिगरी दोस्तों का जाना। अपने आखिरी दिनों में वे अकेली, मगर पूरी तरह एक-एक पल काम में जुटी रहीं। अपने एक इण्टरव्यू में वे कहती हैं: मैंने जिन्दगी को प्यार किया, शिद्दत से चाहा, उसका दायित्व सम्हाला, उसको दिशा-निर्देश दिया। यह मेरी जिंदगी है, जो बस, एक बार के लिए मिली है। अब लगता है, मानो मैं अपनी मंजिल की दिशा में आगे बढ़ रही हूं। जो कुछ भी आज कर रही हूँ, वह लेखकीय प्रगति नहीं, बल्कि मेरा जीवन खत्म करती है, मौत मेरे पीछे खड़ी है।
और फिर 14 अप्रैल, 1986 को दुनिया से यह महान् लेखिका अलविदा कहती हैं।
बस, इतना ही।
सीमोन की यह जीवनगाथा प्रभा खेतान द्वारा अनुदित पुस्तक ‘स्त्री : उपेक्षिता’ की प्रस्तावना से साभार ली गई है।