अकेले गाबो ने नहीं रचा था ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’

गाब्रीएल गार्सिया मार्केज

अशोक पांडे

गाबो यानी गाब्रीएल गार्सिया मार्केज के लेखन और जीवन को समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक किताब है ‘अमरुद की खुशबू’। इस किताब में गाबो और उनके बहुत नज़दीकी दोस्त और जाने-माने कोलंबियाई पत्रकार-लेखक प्लीनीयो आपूलेयो मेन्दोजा की सालों लम्बी बातचीत साक्षात्कार की सूरत में है। जाहिर है इसमें गाबो और उनके परिवार के बेहद अन्तरंग पहलुओं को छुआ गया है।

जब गाबो अपना सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ लिख रहे थे उस समय को याद करते हुए उन्होंने मेन्दोजा को बताया था – “तुम जानते हो मेरसेदेज़ ने मेरे कितने सारे ऐसे पागलपन बर्दाश्त किये हैं। उसके बिना मैं किताब नहीं लिख सकता था। उसने चीज़ों का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। मैंने कुछ ही महीने पहले कार खरीदी थी, सो उसे गिरवी रख कर मैंने उसे पैसे दे दिए। मुझे लगा था कि मैं छः महीने लूंगा पर किताब पूरा करने में मुझे डेढ़ साल लग गया। जब पैसा ख़त्म हो गया उसने एक शब्द भी नहीं कहा। मुझे नहीं पता कि उसने कैसे किया लेकिन कसाई उधार पर मांस देने को, नानबाई को उधार पर डबलरोटी देने को और मकान मालिक को किराये के लिये नौ महीने रुके रहने पर राजी हो गया।”

“उसने मुझे बताये बिना हर चीज की देखरेख की और जब-तब मेरे लिये पांच-पांच सौ कागजों का बण्डल लाया करती थी। उन पांच सौ पन्नों के बिना मैं कभी नहीं रहा। जब किताब ख़तम हो गई तो यह मेरसेदेज़ थी जिसने पाण्डुलिपि को डाक से प्रकाशक एदीतोरियाल सूदामेरिकाना के पास भेजा। मुझे पता था कि आलोचकों को किताब पसंद आयेगी पर इतनी सफलता के बारे में नहीं सोचा था। मुझे लगा था कि वह करीब पांच हजार बिक जायेगी। तब तक मेरी बाक़ी किताबें की कुल मिलाकर सिर्फ हजार प्रतियां बिकी थीं। एदीतोरियाल सूदामेरिकाना ज्यादा आशावान था – उनके ख्याल से किताब आठ हजार बिक सकती थी। असल में किताब का पहला संस्करण अकेले बुएनोस आयरेस में दो हफ्ते में बिक गया।”

‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ लिखे जाने की प्रक्रिया में अठारह महीने लगे। मेक्सिको की फुएगो स्ट्रीट की लकड़ी से बनी स्टडी में गाबो ने अपने आपको कैद कर लिया और माकोन्दो का अकल्पनीय संसार रचा। उस कमरे में पीली तितलियों और बिच्छुओं की भरमार हुआ करती थी। गाबो को रोज साठ सिगरेटें और आधी बोतल व्हिस्की चाहिए होती थी। और कमरे में हर रोज ताजे पीले गुलाब भी। इस थका देने वाली यात्रा में मेरसेदेज़ ज़रा भी नहीं थकीं। उन्होने गाबो को अपना काम करने दिया और सारी चीजें सम्हाल लीं। इस काम में उन्हें अपना टेलीफोन, फ्रिज, रेडियो, गहने और गाड़ी बेचने पड़े।

जिस रोज गाबो ने कर्नल ऑरेलियानो की मौत वाला हिस्सा लिखा वे उठकर मेरसेदेज़ के पास गए और दो घंटे तक रोते रहे। मेरसेदेज़ को पता था क्या हुआ होगा। गाबो के चुप हो जाने पर उन्होंने पूछा – “कर्नल की मौत हो गयी न?”
जिन मेरसेदेज़ का ज़िक्र यहाँ है वे गाबो की पत्नी थीं – मेरसेदेज़ बार्चा पारदो। माग्दालेना नदी के किनारे बसे छोटे से शहर मागांगे के रहने वाले एक फार्मासिस्ट की सबसे बड़ी बेटी मेरसेदेज़ की गाबो से पहली मुलाक़ात तब हुई थी जब वे कुल नौ बरस की थीं। दोनों के पिता एक दूसरे के बचपन के दोस्त थे। मेरसेदेज़ के दादा की जड़ें मिस्र में थीं। फिलहाल इस पहली मुलाक़ात के बाद दोनों ने एक दूसरे को चिठ्ठियाँ लिखना शुरू कर दिया था और यह सिलसिला सत्रह साल चला जब गाबो ने उनसे शादी करने का प्रस्ताव किया। 1958 में हुई शादी के तुरंत बाद वे वेनेजुएला की राजधानी काराकास में रहने चले गए जहाँ गाबो एक पत्रिका के लिए नौकरी करते थे। यहीं उनके पहले बेटे रोद्रिगो का जन्म हुआ और यहीं गाबो ने अपना उपन्यास ‘नो वन राइट्स टू द कर्नल’ लिखा और छपाया।

इसके बहुत सालों के बाद स्टॉकहोम में नोबेल पुरस्कार पाते समय गाबो ने उस सुदूर दोपहरी को भी याद किया जब उनकी पत्नी मेरसेदेज़ उन्हें लेकर पोस्ट ऑफिस गईं जहाँ से ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ की पांडुलिपि अर्जेंटीना के प्रकाशक को भेजी जानी थी। काउंटर पर पहुँच कर पता लगा उनके पास पांडुलिपि को भेजने में लगने वाली राशि यानी एक सौ साठ पेसो नहीं थे। सो वे आधी ही पांडुलिपि भेज सके।

दुनिया भर को दशकों तक एक से एक दिलचस्प कहानियां सुनाने वाले गाबो और मेरसेदेज़ का सम्बन्ध बेहद सुलझा हुआ और उल्लेखनीय था। ‘अमरुद की खुशबू’ में मेन्दोजा गाबो से आख़िरी सवाल पूछते हैं – “तुम्हें आज तक मिला हुआ सबसे दिलचस्प व्यक्ति कौन है?”
गाबो तपाक से जवाब देते हैं – “मेरसेदेस, मेरी पत्नी।”

17 अप्रैल 2014 को गाब्रीएल गार्सिया मार्केज की मृत्यु हो गयी थी। अभी बीती 15 अगस्त को मेरसेदेज़ बार्चा पारदो भी उनके पास चली गईं। उन्हें याद करना एक महान और शानदार स्त्री को याद करना है जिसके बिना हमारे समय के सबसे आलीशान और कीमती गद्य का लिखा जाना संभव न था।

सलाम मेरसेदेज़ बार्चा पारदो!

अशोक पांडे की फेसबुक वॉल से साभार

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