क्या स्त्रीवादी पोर्न भी हो सकता है?

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जन-विश्वासों के उलट कई विश्व-स्तरीय शोध यह बताते हैं कि संयत और शांत पोर्नोग्राफी का उपयोग प्रयोक्ता को हिंसक या लैंगिक भेदभाव करने वाला नहीं बनाता। टेक्सास टेक विश्वविद्यालय में वर्ष 2004 में प्रकाशित हुए जर्नल ‘साइकोलॉजी एंड ह्यूमन सेक्सुअलिटी’ में शोधकर्ताओं ने प्रतिपादित किया कि संयत पोर्नोग्राफिक सामग्री का उपयोग बलात्कार के मामलों को संभवतः कम कर सकता है, क्यूंकि तब विकृत यौन-इच्छाओं के निष्पादन के लिए एक सुरक्षित और निजी निकास उपलब्ध होगा। अमेरिका में प्रतिवर्ष होने वाले ‘राष्ट्रीय अपराध अत्याचार सर्वेक्षण’ के अनुसार पाया गया कि वर्ष 1980 से वर्ष 2004 तक स्त्रियों के साथ शारीरिक अपराधों में 85% तक की कमी हुई और यह परिवर्तन तब जबकि पोर्नोग्राफिक सामग्री किशोर/किशोरियों व वयस्कों के लिए सर्व-सुलभ है। इससे पहले डेनमार्क जैसे कई देश पोर्न सामग्री को वैध कलात्मक रचनाओं की मान्यता दे चुके हैं और वहाँ भी अपराधों में बढ़त नहीं हुई है।

विदेशी बाज़ार को एक तरफ रख भी दें तो भारतीय परिदृश्य में अपने आसपास का घासलेटी बाज़ार देखकर क्या आप मानेंगे कि यह एक दिन में या कुछ लोगों पर टिका व्यापार है? जिसका बहुत से पुरुष और अब स्त्रियाँ भी उपयोग कर रहे हैं। स्त्रियों द्वारा बनाया और देखा जाने वाला पोर्न भी अब अपनी उपस्थिति बाज़ार में दर्ज करा चुका है!
जिनके कारण कुछ नए सवाल सामने आये हैं, कि क्या स्त्रीवादी पोर्न भी हो सकता है और उसमें स्त्रीवाद है क्या? स्त्रीवादियों में पोर्नोग्राफी अत्यंत विभाजनात्मक विषय है। एक समुदाय है जिसका मानना है कि कोई भी स्थिति पोर्न में स्त्रियों के पक्ष में नहीं हो सकती। इससे केवल मानवीय कामुकता को अमानवीय बनाकर कलाकार का शोषण होता है। ड्वार्किन व मैककिनन ने मिलकर इस विषय पर संवैधानिक,ऐतिहासिक,सामाजिक और समकालीन कई परिदृश्यों में गहरा अध्ययन किया। अपनी पुस्तक – ‘पोर्नोग्राफी;मेन पोसेसिंग वूमेन’ में ड्वार्किन ने माना है कि ‘पोर्नोग्राफी,स्त्री को जानने के लिए कोई रूपक नहीं है, बल्कि स्त्री जीवन के सैद्धांतिक व व्यवहारिक पक्ष के अंतर को दर्शाता है। ‘ इस तर्क के अनुसार ‘पोर्नोग्राफी’ को ऐसी कार्यवाही के रूप में देखा-समझा जाना चाहिए, जिस से स्त्री-परतंत्रता के कारण व प्रभाव को समझने का प्रयास हो सके। इसलिए इस पर केवल प्रतिबन्ध लगाकर स्त्री-मुक्ति कि शुरुआत के बारे में नहीं सोचा जा सकता।

पोर्न या सामान्य, किसी भी प्रकार के कला-माध्यम द्वारा स्त्री के प्रति अमानवीय व्यवहार व उसका वस्तुकरण करना निरा अपराध ही है। लेकिन स्त्रीयों कि सुरक्षा व उनके अधिकारों कि रक्षा करते हुए स्त्रीवादी पोर्न कलाकारों का भी एक समूह है। जो कि स्त्री-कामुकता कि अभिव्यक्ति को स्त्रीयों का अधिकार मानते हैं। अपने लैंगिक जीवन पर पुरुष से अधिक और पहले उस स्त्री का अधिकार हो, इसका समर्थन करते हैं। यौन-सम्बन्धों कि बात करते हुए स्त्रीयों के लिए अपनी समस्याओं या अपने आनंद कि अभिव्यक्ति करना यानी असहज होना ही है। क्यूंकि स्त्री कि यौनिक शुचिता को लेकर ही हम अत्यधिक सजग रहे हैं। इतने कि समाज का दबाव कुछ ऐसा है कि रजोधर्म जैसी प्राकृतिक प्रक्रिया भी आरम्भ में उसे अपराध-भाव का अनुभव देती है। क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री-शरीर के सुख-दुःख से कभी कोई सहानुभूति-पूर्ण सम्बन्ध बनाया ही नहीं। पर अब पीड़ा और प्रश्नों से भरा साँस्कृतिक संकोच कम हुआ है और इन्ही मायनों में ‘पोर्नोग्राफी’ समाज के लैंगिक भेदभाव को समझने का एक आइना भी हो सकती है।

दूसरा समुदाय जो अपनी असहमति जताते हुए अपनी स्वेच्छा से इस व्यवसाय को चुनने के तर्क प्रस्तुत करता है। वे इसे व्यस्क-मनोरंजन-क्षेत्र में अपनी कला का प्रदर्शन या भागीदारी मानते हैं। यह मुद्दा पोर्न कलाकारों और उनके दर्शक समूह की सेक्सुअलिटी की अभिव्यक्ति के कलात्मक रूप का भी हो सकता है! इस पक्ष को आजतक हमने कम ही सुना है, चर्चित स्त्रीवादी पोर्न फिल्मकार ट्रीस्तियन टोर्मिनो ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि,”स्त्रीवादी पोर्न अपनी समूची निर्माण प्रक्रिया पर ज़ोर देता है।

फिल्म के प्रदर्शन के बाद पोर्न हो या मुख्यधारा सिनेमा सभी से दर्शक अपनी इच्छानुसार अर्थ निकालते हैं, जो हम नहीं रोक सकते। एक निर्देशक के तौर पर हम केवल सम्मानजनक, स्वैच्छिक,निष्पक्ष और सकारात्मक कार्य-स्थल अपने कलाकारों को दे सकते हैं। फिल्म के अंत में कलाकार स्वयं अपना और अपनी मनःस्थिति का परिचय देते हैं। जिससे दर्शक पोर्न ‘कलाकार’ और ‘रोबोट’ के मध्य अंतर जान पाते हैं। हमारी रुचि स्त्रियों के आनंद और चरम-आनंद में अधिक है, जो कि ‘मुख्यधारा पोर्न’ से गायब है।” स्त्रियों की तरफ से अपनी इस सहज कामेच्छा का अपनी दृष्टि से वर्णन करने की स्वतन्त्रता एक महत्वपूर्ण एजेंडा रहा है।

पोर्न फिल्मों का एक बड़ा हिस्सा समलैंगिक संबंधों पर भी फिल्माया जाता है। हमारे पडोसी देश पकिस्तान को समलैंगिक संबंधों से जुडी सामग्री खोजने वाले ‘ग्लोबल लीडर’ के रूप में जाना जाता है। जबकि सभी मुस्लिम देशों में ऐसे संबंधों पर दस साल तक की सज़ा का प्रावधान है। शायद बढ़ते धार्मिक अतिवाद के कारण, पुरुष स्त्रियों को केवल अपनी संतान की जननी के रूप में देख रहे हैं। “स्त्री को पुरुष अत्यंत भद्रता के साथ अधिक से अधिक पुनरुत्पादन (रिप्रोडक्शन) के साधन के रूप में स्वीकार करता है और साधन को यह स्वतन्त्रता नहीं होती है कि वह स्वेच्छा से जिये, मरे या कुछ भी करे। स्त्री जब इस परिभाषा के अनुरूप पुनरुत्पादन का रोल स्वीकार कर लेती है तो उसकी इस आज्ञाकारिता के एवज में समाज उसे महिमामंडित भी करता है। उसके माँ बनने की प्रक्रिया में स्त्री-पुरुष संबंधों का वर्णन अश्लील नहीं माना जाता है।” जहाँ काम-संबंधी मानसिक वृत्तियाँ लगातार दबाई जा रही हों, लोग पोर्नोग्राफी की ओर मुड़ते हैं। तो क्या समाज द्वारा दबाई गई इन रुचियों को पोर्न से अभिव्यक्ति का एक रास्ता मिलता है ?

केवल चित्रात्मक अभिवाक्तियों या इंटरनेट सामग्री को प्रतिबंधित किये जाने के अलावा लिखित सामग्री को जाँचने या उस पर नज़र रखने की भी तो ज़रूरत है! लेकिन इधर लोगों का ध्यान न के बराबर है। तो क्या इस विषय पर पढ़ने को देखने से कम खतरनाक माना जाए? यह सारे सवाल जिन पर सोचने की ज़रूरत है, उन्हें मनोविश्लेषण के सूत्रों से जोडें। लालसा,कामुकता,यौन-फंतासियों से मिलकर रचा जाता है पोर्न का संसार। पोर्न एक प्रकार से यौन-कल्पनाओं और जिज्ञासाओं का विषय है – जो कि अपने आप में नकारात्मक नहीं है। कल्पनाओं के अवचेतन मन पर अवस्थित होने या चेतन मन के द्वारा उन कल्पनाओं का संज्ञान लिए जाने पर भी यह आवश्यक नहीं है कि उक्त दर्शक यह चाहता हो कि कल्पनाएँ यथार्थ का रूप लें।

यौन फंतासियों को खत्म नहीं किया जा सकता, लेकिन पोर्न के लिए विवेकपूर्ण सेंसरिंग जरूरी है और यह तभी हो सकता है, जब पोर्न को वैध कलारूप के रूप में स्वीकृति हासिल हो जाए।इस लेख का आशय यह नहीं है कि पोर्न पूर्ण रूप से हानिरहित है। हिंसारहित और हिंसक पोर्न के बीच के फर्क को धुंधलाया नहीं जा सकता। हिंसा को सेंसर करना वांछनीय और जरूरी है, सामान्य फिल्मों की तरह पोर्न फिल्मों में भी। स्नफ़्फ़, हार्डकोर, रेप, बाल पोर्नोग्राफी जैसे कुछ प्रकार हैं जिन्हें देखने और बल्कि फिल्माए जाने पर ही कड़ा प्रतिबन्ध होना चाहिए।

समय की माँग है कि लोग ‘पोर्न’ के विषय में अपनी बँधी-बँधाई सोच से औरों का गला न घोंटे। मुद्दा यौन संबंधों का हो या पोर्न सामग्री का, बहस हो, ताकि लोग उस चर्चा से स्वयं अपने लिए उनकी सहमति/असहमति का मार्ग बनाएँ। बातें उठने से पहले ही न दबा दी जाएँ और सहज जीवन-क्रियाओं को लेकर भी रहस्यात्मक वातावरण न निर्मित हो। बातचीत और शिक्षा के माध्यमों को और उन्मुक्त बनाने के साथ-साथ इंटरनेट सेंसरशिप जैसे कुछ प्रयास ज़रूर होने चाहिए। बेहतर विकल्प है कि युवाओं और बच्चों को अच्छी, स्वस्थ, आयु अनुसार सामग्री या जानकारी उनके बढ़ते वर्षों में दी जाए। इससे पहले कि वे इंटरनेट के विस्तीर्ण मुक्त वातावरण में अविवेकी होकर स्वयं को झोंक दें।

प्राकृतिक साहचर्य तो अपेक्षित है, पर साहचर्य के क्षणों कि अभिव्यक्ति का विरोध है। ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि धर्म से उतर कर पाप-पुण्य कि अवधारणाएं, शारीरिक गतिविधियों के संदर्भ में लदने लगीं। जैसा कि मानवी स्वभाव है कि आदम सेब चाहता है और नरकवासी बनना भी नहीं चाहता। यानी मनुष्य में वह सबकुछ जाननें-करने कि इच्छा हमेशा से प्रबल रही है जिसकी धर्म-क़ानून में मनाही हो। भारतीय संस्कृति परिवार-समाज व धर्म को जनमानस की जीवनशैली का आधार मानकर चलती आयी है। समूहों में रहना यहाँ के समाज कि परम्परा है। ऐसे में अपने समाज के निर्दिष्ट नियमों का उल्लंघन कर उस समाज विशेष से बहिष्कृत होने का साहस सब में नहीं था। इसलिए सेब खाकर झूठ बोलना उसे अपने हित में लगा। कुल मिलाकर पाप से नहीं, पाप किया जा चुका है-यह स्वीकारने से परहेज़ होने लगा। समाजों में पाखण्ड और विद्रोह का जन्म यहीं से हुआ होगा। कुछ ऐसे विषय माने गए जिनपर चर्चा सर्वथा पाप कार्य जैसा समझा जाने लगा और जिन्होने भी इन विषयों पर कला या चर्चा का क्रम आरम्भ करना चाहा वे अकारण अपराधी हुए।

यौन-सम्बन्धों का क्षेत्र ऐसा ही फुसफुसाता कोना है, जिसमें ज़ोर से बोलना, खुलेआम बोलना और बात-बहस कि पूरी मनाही है। हमारे सांस्कृतिक इतिहास में कामसूत्र,अजंता-एलोरा, लिंग-पुराण थे, केवल इसीलिए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर बात होनी चाहिए, ऐसा नहीं है। लेकिन इतिहास में जो विषय इतने सहज थे कि कला और सृजन के उदाहरण बन गए, अब बहस उन क्षेत्रों के आस-पास से भी गुज़रे तो सारा वातावरण असहज क्यूँ हो जाता है !! इस मुद्दे पर चर्चा की जानी ज़रूरी है। संसार-क्रम के अपने कुछ जैविक सत्य हैं, जिनके प्रति सहज स्वीकार्यता ही स्वस्थ समाज का आधार होगी। सामाजिक जीवन के बदलते स्वरुप को ध्यान में रखते हुए उन कट्टर रूढ़ियों पर पुनर्विचार किया जाना ज़रूरी है, जो आज भी किसी स्त्री के चरित्र का मानक उसकी यौनिक शुचिता को मानती है।

सपा प्रमुख मुलायम सिंह का कहना कि, ‘लड़कों से गलतियाँ हो जाती हैं’ और फिर उन्ही की पार्टी के नेता अबु आज़मी का उसमें यह जोड़ना कि,’विवाह-पूर्व या विवाहेत्तर यौन-सम्बन्ध बनाने वाली महिलाओं को भी फांसी दी जाए’ – इन वक्तव्यों से मर्दवादी नैतिकता का पाठ लिखा जाता रहा है। जिसे बरसों से हमारे देश की स्त्रियों ने धर्म की तरह माना है। शुचितावादी संस्कृति को बनाये रखने की लगभग सारी ज़िम्मेदारी स्त्री की है और पुरुषों पर भी नाम मात्र दबाव दिखाया जाता है। यानी सामान्य तौर पर पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष के बारे में यौन-संबंधों के परिप्रेक्ष्य में खोजने-जानने का अधिकार नहीं है। इस सामाजिक मान्यता से सामाजिक यथार्थ धीरे -धीरे पूरी तरह उलटता जा रहा है। सोचिये कि इस सामाजिक सत्य के सामने शुचितावादी मानसिकता के तहत आँख मूँद कर काम चल जायेगा या तकनीकि सुविधाओं से बदलते समाज की नैतिकता पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए? परिवर्तन समय का स्वभाव है और संसार का कोई नियम स्थिर नहीं।

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  • इस शोधपरक लेखमाला को लिखा है नीतू तिवारी ने, जो इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय से डाक्यूमेंट्री फिल्मों के राजनीतिक संदर्भों पर शोध कर रही हैं। उनका यह चर्चित आलेख कथादेश में प्रकाशित हो चुका है। मेरा रंग में हम उनकी अनुमति से इसका पुर्नप्रकाशन कर रहे हैं।
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