बात पुरानी है, नई है, अपने समय में हर समय की है। सड़कें आमतौर पर किसी भी शहर का आईना होती हैं। जिन पर टहलते हुए उस समाज की नब्ज़ टटोली जा सकती है। दिल्ली की सड़कें भी अपवाद नहीं हैं। जिसकी सांस्कृतिक छवि की पहचान पुरानी दिल्ली से ज़्यादा जुडी है। पुरानी दिल्ली की सड़कों की खासियत है कि वहाँ सड़कों से ज़्यादा ध्यान फुटपाथ की ओर खिंचता है। चाँदनी चौक, दरियागंज, कमला नगर, सीलमपुर, शाहदरा, कृष्णा नगर में ऐसे फुटपाथ हम सब ने देखे हैं, जहाँ पैदल राहगीरों को जगह कम और फुटकल दुकानों की गिनती ज़्यादा है।
पिछले दिनों खारी बाओली से लाल क़िले की तरफ आते हुए ऐसे ही एक फुटपाथ पर देखा कि एक जगह 5-6 लोग झुंड बनाकर खड़े थे, बीच में एक आदमी पीचीय वाली दुकान के बंद शटर से पीठ टिकाए लैप-टॉप लिए बैठा हुआ था और उसके सर के ऊपर चिपके पर्चे पर लिखा था 200 में 2 जीबी , 350 में 4 जीबी मामला कुछ समझ नहीं आया। दो घडी ठिठक कर समझने की कोशिश की ही जा रही थी कि इतने में एक आंटी जी ताबड़तोड़ रफ़्तार से उस झुण्ड में घुस गयीं। शायद यही जानने कि वहां क्या दुकान लगी है। सच है कुछ लोग खरीददारी करने निकलते हैं तो सारा बाज़ार ख़रीद लाने के इरादे से निकलते हैं। पर आंटी जी झेंपी, घबराई हुई झुंड से निकलीं, वहां खड़े लड़के हंस रहे थे, आंटी बड़बड़ाती हुई तेज़ क़दमों से लगभग भागीं।
जो समझ आया वो यह कि वहां लैप-टॉप से मोबाइल के मैमोरी कार्ड्स में पोर्न फिल्में ट्रांसफर की जा रही थी। घटना परांठे वाली गली के आसपास की होगी। वही गली, जहाँ सपरिवार लोग क़िस्म-क़िस्म के परांठों का स्वाद लेने आते हैं। उस दिन और फिर कई दिनों तक उस घटना के बारे में सोचा और लगा कि परिवार के दायरे में अपने आप को सुरक्षित मानते हुए, हम कभी नहीं सोचते कि उसी सीमा के आसपास कितना कुछ घटित हो रहा है। जो सुरक्षा के उस कवच पर घात बन सकता है। दबे-छिपे ढंग से बाजार में अपराध-बोध का भी व्यापार होने लगा है। जिसमें उपभोक्ता हम जैसे लोग ही हैं। जिन्हे अवसर की बाट है कि उन पर से पहरा ज़रा-सा हटा कि वहीँ उपभोक्ता अपराधी में कब परिवर्तित हो जाते हैं , उन्हें स्वयं इसका संज्ञान नहीं होता। बाज़ार व्यक्ति को उपभोक्ता में बदल चुका है, यहाँ केवल खरीदने और इस्तेमाल करने की सलाहें हैं। इस्तेमाल ‘कैसे’ किया जाए, ‘कितना’ और ‘क्यों’ किया जाए, इसकी चिंता……?
साथ ही एक और किस्सा याद आ रहा है। बात थोड़ी पुरानी है। कॉलेज के दिनों में कक्षा में एक लड़की हुआ करती थी, जिसकी मीठी सुरीली आवाज़ से उसने कॉलेज के मंच पर गाते हुए हम सभी को कई बार अभिभूत किया था और शालीन स्वभाव के कारण वो न सिर्फ दोस्तों में बल्कि विभाग की शिक्षिकाओं के बीच भी बेहद लोकप्रिय थी। साथ बैठकर पढ़ना,बातें करना,खाना-पीना होता था। कक्षाएँ बंक भी साथ करते थे। कुल मिलकर हम अच्छे दोस्त थे। स्कूल के बाद कॉलेज में ही पहले पहल हथफ़ोन(मोबाइल) तब मिला करता था कि बेटियाँ अब घर से दूर जाती हैं पढ़ने। आज की तरह स्कूली बच्चों के हाथों में तब यह टुनटुना नहीं था। तो हथफोन जब हाथ में आया तो खुजली भी बहुत होती थी, आये दिन नए नए गाने,वीडियो या फोटो एक दुसरे से बदले जाते थे। एक दिन अपने फ़ोन का नीला दांत खोलकर मैंने उस सहेली का फ़ोन लिया और लगी गाने और बाकि चीज़ें छाँटने।
तभी एक वीडियो ऐसा खोला जिसे मैंने पहली बार देखा था और सच कहूँ तो उसे देखने के बाद भीतर तक इतना काँप गई थी कि उसे बंद करना ही भूल गई। फ़ोन वैसे ही हाथ में लिए सोचा उस लड़की को मैं जाकर हड़काऊँ कि उसे शर्म आनी चाहिए इस तरह की अश्लील सामग्री अपने पास रखते हुए। वो जो मेरी इतनी अच्छी दोस्त थी, मेरे घर आती तो मम्मी का हाथ बँटाती, अपने घर से हज़ारों किलोमीटर दूर हॉस्टल में रहने वाली वो लड़की अपनी सारी ज़िम्मेदारियाँ बखूबी निभाती थी, हिम्मती इतनी कि बीमार होने पर अकेले ही डॉक्टर को दिखा आती। जिसकी इन खूबियों की मैं कायल थी, मैं खुद जिसकी तरह अपने कामों को आत्मनिर्भर होकर करना चाहती थी। वो लड़की पोर्न देखती है !! मेरे लिए उस पल यह किसी धक्के जैसा था। जैसे मैंने अपनी एक बहुत चहेती दोस्त खो दी हो। क्यूंकि मेरा मानना था कि पोर्न फिल्में स्वस्थ मानसिकता के व्यक्ति नहीं देखते। जो देखते हैं वे मानसिक रूप से बीमार होते हैं।
मैं उस वक़्त उससे कुछ कहने की हालत में नहीं थी। उसे फ़ोन थमाया और लाइब्रेरी चली गई। घर आकर भी उसकी बातें,उसका रहना सहना इन्ही सब बातों के बारे में याद करती रही। यादों की गुल्लक में सारे सिक्के गिन डाले पर कुछ भी तो ऐसा नहीं मिला जो याद खोटे सिक्के जैसी लगे। पढ़ने में बहुतों से बहुत आगे, गायिकी ऐसी जो कई पुरस्कार जीत चुकी, स्वभाव एकदम सौम्य-शालीन पर किसी भी मुश्किल की घड़ी में अपने लिए वो खुद ही काफी थी। क्या उसके पोर्न देखने से सारी स्थिति पलट जाए? अपने लिए निजी तौर पर उसका कुछ देखना मेरे लिए नैतिक या अनैतिक कैसे हो सकता है? यह पहली घटना थी जब पोर्न फिल्मों के किसी दर्शक से मेरा वास्ता पड़ा और यक़ीन जानिये इस घटना से मेरे भीतर यह मिथक ही टूटा कि पोर्न फिल्मों को देखने वाले लोग समाजिक दृष्टि से गिरे हुए और चरित्रहीन लोग होते हैं। आज आप खुद भी नहीं जानते कि आपके आसपास कौन से लोग इस तरह की सामग्री का उपयोग कर रहे हैं, ज़रा बात कीजिये तो यह संसार खुलने लगता है और तब पता लगता है की हम तो यूँ ही भौकाल बनाये थे इसे। वो दोस्त मेरी यादों का आज भी एक एहम हिस्सा है।
उस घटना के बाद पोर्न या यौन-संबंधों पर बात-बहस को टैबू नहीं बल्कि एक सामाजिक सत्य की तरह समझना स्वीकार किया। बात करने से झिझक खुली। और अब सड़क किनारे खड़े किसी पुरुष का उसकी लघु शंका से निवारण पाना या भरी बस में महिला सहयात्री का ब्लाउज से बटुआ निकालकर कंडक्टर को पैसे देना, यह छोटी-छोटी बातें जो कभी शर्मिंदा किया करती थी। आज यह मेरे लिए उन लोगों के व्यक्तिगत जीवन और उनकी जीवन-शैली के सवाल हैं। जिनमें मेरा तो कुछ भी नहीं। प्रत्येक समाज की कुछ बनी बनाई धारणाएं होती हैं। जिन्हें उस समाज में रहने वाले लोग प्रश्नाकुलता की सीमा के बाहर रखते हैं। अब यह आप पर निर्भर है कि प्रश्न उठाएंगे, सोच-विचार कर अपने लिए अपने अनुभव के आधार पर मूल्यों का निर्माण करेंगे। या फिर आप दूसरे रास्ते पर चल सकते हैं और अपने दिमाग को थकाए बिना आँख मूंदकर अपने विवेक को सोने दीजिये और मध्ययुगीन समय के व्यक्ति की भाँति बनी बनाई धारणाओं को जस-का-तस स्वीकार करते जाइए। यथार्थ को नकारने और भ्रम में जीने का यह भी एक तरीका है। जो सहज वृत्तियों का दमन करते हुए, पीढ़ियों से आपका ऐसा पोषण कर चुका है कि अब आप प्रकृति के नकार को अपनी संस्कृति के स्वीकार्य में देखते हैं। (जारी है)
- इस शोधपरक लेखमाला को लिखा है नीतू तिवारी ने, जो इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय से डाक्यूमेंट्री फिल्मों के राजनीतिक संदर्भों पर शोध कर रही हैं। उनका यह चर्चित आलेख कथादेश में प्रकाशित हो चुका है। मेरा रंग में हम उनकी अनुमति से इसका पुर्नप्रकाशन कर रहे हैं।