वीरेंद्र भाटिया
स्त्रियां पूछती हैं
तुम कैसे पढ लेते हो स्त्री के मनोभाव
इतने सटीक
इतने अलहदा
हैरान कवि खुद से पूछता है
क्या इतना मुश्किल है
स्त्री मनोभावों को पढना?
कि स्त्रियों के तो चेहरों पर छपी हैं कविताएँ
उनके दर्द, भाव, अनुभूतियां, वितृष्णा
पल पल तो आती-जाती हैं चेहरों पर
स्त्रियां
अबोध बेटियों को बैडटच-गुडटच सीखा रही हैं
उनके चेहरे पर पल-पल उभर रहा है खौफ और घिन्न
कवि शर्मिंदा है
कि उसे कविता लिख कर बताना पड़ा स्त्री का खौफ
स्त्री
प्रेम तलाशती है
और मछली सी बन्द हो जाती है एक्वेरियम में
अपना आकाश अपनी जमीन अपना समन्दर छोड़ आई स्त्री की आंख से
हजारों कविताएँ टपकी हैं
समन्दर के खारे होने के नही पकड़े गए होंगे सूत्र
एक्वेयिम का खारा होना तो सामने की घटना थी
कवि
शर्मिंदा है
कि तड़पती मछली के आंसू
कविता गिन रही है
स्त्री
दौड़ रही है
वह जानती है
हजारों कदम
पीछा कर रहे हैं उसका
बस
अकेली पड़ जाये कहीं
तो दबोच ली जाए
नोंच ली जाए
चबा डाली जाए
कवि कुछ ऐसी स्त्रियों को जानता है
जो अकेले लड़ने निकली थीं
अकेली पड़ गई
उनका पीछा कर रहे लोगों पर
कवि कविता नही लिखना चाहता
स्त्री के चेहरे पर उतरी घृणा वितृष्णा और हिकारत में मगर
उन्ही का जिक्र है बार बार
स्त्री के चेहरे पर गोद दिए गए नाम हैं वे
कोई नही पहचानना चाहता वे नाम
कवि ने लिख दिए हैं बस
कवि से जब पूछती है स्त्री
कैसे पढ लेते हो मनोभाव
कवि खुश नही, शर्मिंदा होता है
कि कविता में लिखना पड़ा उसे वह सब
जो उसके संसार की कड़वाहट है
कवि कड़वाहट लिखकर खुश नही है
वह देर तक घिरा रहता है कविता की मायूसी में
और सोचता है
क्या कविता
स्त्री के लिए इतना सा कर सकती है
कि चिन्हित कर सके भाव मे पल पल उतरती बहती स्त्री
और उसी भाव की एक समानांतर दुनिया उसके लिये भी मयस्सर हो
जैसे मछली के अपने समन्दर होते हैं
जैसे चिड़िया का अपना आकाश होता है
क्या जमीन पर संभव नहीं कुछ ऐसा??