सुजाता
युवा आलोचक और कवि सुजाता को उनकी पुस्तक ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए प्रतिष्ठित डॉ. देवीशंकर अवस्थी सम्मान मिला है। साहित्य अकादमी के सभागार रवींद्र भवन में 5 अप्रैल को आयोजित एक कार्यक्रम में विश्वनाथ त्रिपाठी, अशोक बाजपेयी तथा मृदुला गर्ग की उपस्थिति में उन्हें यह सम्मान दिया गया। इस अवसर पर सुजाता ने अपना एक व्याख्यान ‘स्त्री-रचनाकार का अभिकर्तृत्व और साहित्यालोचन के मापदंड’ प्रस्तुत किया। यह व्याख्यान स्त्री-लेखन के प्रति ऐतिहासिक उपेक्षाओं का लेखा-जोखा तो प्रस्तुत करता ही है, साथ ही भविष्य में स्त्री आलोचना की राह तय करने में भी एक अहम भूमिका निभाता है। मेरा रंग के पाठकों के लिए सुजाता का पूरा व्याख्यान प्रस्तुत है।
इस दुनिया में अपना होना आपको कैसे पता चलता है? अपनी देह के जरिए ही न ! इसी पर धूप लगती है, बारिश पड़ती है, इसी को दर्द होता है, भूख-प्यास लगती है और कामनाएँ जगती हैं। इस दुनिया को महसूस करने का हरिया स्त्री के पास भी देह ही तो है। इसी से महसूस करती है वह अपना होना। देह, जिसकी लैंगिक पहचान है। देह, जिसकी अपनी एक यौनिकता है। एक जेंडर है। मन, दिमाग़ सब इसी देह में वास करता है। जिसके पास अपने सबजेक्टिव अनुभव हैं। यह बात थेरियाँ भी कह रही थीं, मीराँ भी ललद्यद भी। बुद्ध ने कहा स्त्री होना दुख है, कृशागोतमीथेरी ने बड़े भोलेपन से इस वाक्य का विस्तार किया, मैं बताती हूँ क्यों वह दुख क्या है, वह कहती है-
स्त्री होना दुख है
ऐसा मनुष्यों के चित्त को संयमी बनाने वाले उन सारथी
-स्वरूप (भगवान बुद्ध) ने कहा है
सपत्नियों के साथ एक घर में रहना दुख है
बच्चों को पीड़ा में जनना दुख है
कोई कोई जनने वाली माता एक बार ही मृत्यु चाहती हुई अपना गला काट लेती है
ताकि दुबारा यह दुख सहना न पड़े
कुछ सुकुमारियाँ विष खा लेती हैं
बच्चा जब पैदा नहीं होता और गर्भ बीच में रुक जाता है
तो भ्रूण मातृघातक बन जाता है और जच्चा और बच्चा दोनो ही विपत्ति का अनुभव करते हैं
मुझे कृशा गौतमी की इन पंक्तियों में ये चिरंतन प्रश्न सुनाई देते हैं- क्या चुनाव है मेरे सामने? इन संरचनाओं में मेरे लिए क्या विकल्प छोड़े गए हैं? मुक्ति के संघर्ष में जूझनेवाली आरम्भिक स्त्रियों की ये कविताएँ क्या सिर्फ पालि भाषा या धार्मिक साहित्य के कैनन में रखी जानी चाहिए? भारतीय साहित्य का एक तिहाई हिस्सा जब नख-शिख वर्णन से भरा है, उसके समक्ष अम्बपाली को पढ़ना चाहिए। बुद्ध के अनस्थिरता और परिवर्तन के उपदेश को वह ऐसे बयान करती है-
काले केश थे मेरे
जैसे भौरों का रंग
…
सुगंधित जैसे महकती हुई
फूलों की डलिया
मेरे केशपाशः
गंधाने लगा जो उम्र के साथ
पशु की चमड़ी सा…
स्त्री के लिए मुक्ति के एकदम भिन्न मानी हैं, कहीं वह आध्यात्मिक है, कहीं सामाजिक, कहीं पूर्णिकाथेरी की तरह दासत्व से मुक्ति। कहीं सुमंगला माता की तरह दमघोटू पारिवारिक संरचनाओं से जो उसके ‘स्व’को नष्ट कर देती हैं- अहा! मैं विमुक्त हुई तीन टेढी चीज़ों से, टेढे-मेढे बर्तनों से जिनके बीच मैली-कुचैली बैठ उन्हें माँजती थी, ओखली मूसल से और उस पति से जो मुझे उन छातों से भी तुच्छ समझता था जिन्हें वह आजीविका के लिए बनाता था।
धेरबुद्ध के उपदेश लिखते हैं तो स्त्री को अपावन, दूषित मानते हैं, मल-मूत्र और तरह-तरह के स्रावों से भरी हुई, उनके लिए विरक्त होने का मतलब है स्त्री की देह के सम्मोहन से मुक्त होना। देह से मुक्ति दोनों को चाहिए। स्त्री को अपनी ही देह के जंजालों से, देह धरे को दंड है, आध्यात्मिक से अधिक जिसकी वजहें सांसारिक हैं, दुख, आह्लाद और मोक्ष का भी जरिया अपनी ही देह है। देह से मुक्ति थेर को भी चाहिए लेकिन स्त्री देह के आकर्षण से मुक्ति के इतने अलग संस्करण, कैसी भिन्न-भिन्न यात्राएँ हैं, कितनी अलग अभिव्यक्तियाँ और साहित्यालोचन के पास यही मासूम सवाल है कि स्त्री भाषा क्या होती है? स्त्री-लेखन क्या होता है? खाँचे बना चुकने के बाद पूछते हैंआज ये खाँचे क्यों बनाए जा रहे हैं? दाग़ देहलवी के शब्दों में कहूँ तो- वो क़त्ल करके मुझे हर किसी से पूछते हैं ये काम किसने किया है ये काम किसका है…
लेकिन स्त्री-भाषा, स्त्री-लेखन, स्त्री-अनुभवों के साथ सामाजिक जेंडर्ड यथार्थ को ख़ारिज करने में कुछ नहीं लगता। स्थापित आलोचकों ने तो किया ही लेकिन इसके लिए कोई नामवर आलोचक होने की भी असल में कोई जरूरत नहीं है। साहित्य अकादमी की भारतीय साहित्य निर्माता शृंखला में ब्रजेंद्रकुमारसिंहल की ‘मीरा बाई’ पर लिखी एक किताब है। जिसमें सबसे हास्यास्पद है ‘नारी अस्मिता’ खण्ड के भीतर स्त्री-विमर्श में मीरा की बात करना। एक दबाव तो वे स्वीकारते हैं कि ‘वर्तमान काल में नारी विमर्श पर लिखना सर्वाधिक सामयिक व महत्वपूर्ण माना जाता है…” इस दबाव के चलते उन्हें नारी-विमर्श करना जरूरी लगा। यह उनके लिए भयानक संकट वाली जगह है। कभी उनके विद्रोह के गुणगान करते हैं कभी अबला बताते हैं। लिखते हैं-
“मीरा युगानुरूप अबला तो यह कहकर बनी रही कि राजा के रूठने पर मैं उसकी नगरी छोड़कर चली जाऊंगी किंतु अपने मार्ग से च्युत नहीं होऊंगी। मीरा वर्तमान-कालीन नारी की तरह छाती से छाती अड़ाकर विद्रोह नहीं करती। किंतु पुरुष प्रधान समाज की ज्यादती को सहन भी नहीं करती। वह अपना रास्ता स्वयम् चुनती है। उस पर चलती है। उसको समतल बनाने का प्रयत्न करती है। नहीं होता है तो उसको छोड़ देती है, उसको और अधिक ऊबड़-खाबड़ नहीं करती। यही मीरा के विद्रोह में और वर्तमान-कालीन नारी-विमर्श में अंतर है। वर्तमान कालीन नारी अपनी अस्मिता व स्वतंत्रता की कीमत पर समाज का वातावरण विषाक्त करने, बिगाड़ने से नहीं हिचकिचाती किंतु मीरा ऐसा नहीं करती। यह दुर्जनों से किनारा करके अपना मुँह दूसरी ओर करके अपने लक्ष्य की ओर सतत बढ़ती रहती है।”
साहित्यालोचन के मानक ऐसे रहे कि “सीस उतारि भुईं घरो, तब पैठि घर माँहि”। पहले स्त्री होना खारिज किया जाए, विद्रोहिणी तेवर और कामनाओं को खारिज किया जाए और तब भक्ति साहित्य या किसी भी और बने-बनाए कैनन में स्त्री-लेखन को रखा जाए। सन साठ के बाद दुनिया भर में ‘स्त्री-लेखन’ को एक अलग कैटगरी की तरह पहचाना जाना शुरू हुआ यह समझते हुए कि ऐतिहासिक रूप से स्त्री जो लिखती रही है वह पुरुषों से भिन्न तरीके से प्रकट हुआ है और भिन्न उद्गम स्थलों से भी। यही नहीं उसकी सामाजिक अवस्थिति भी उसकी भाषा और कहन को प्रभावित करती रही है जिसे अलग से पहचाने बिना उसका मूल्यांकन असल में अन्यायपूर्ण है। एक ऐसी देह जिसकी एक यौनिकता और जेंडर ही नहीं है बल्कि वह जाति, धर्म, क्षेत्रीयता और वर्ग के अंतरअनुभागीय अनुभवों से भी प्रभावित होती है। एक दलित स्त्री. एक काली स्त्री, एक आदिवासी स्त्री के अनुभव ऐसे ही intersections बनते हैं और समझे जा सकते हैं।
भाषा का ही शायद दोष होगा कि ‘स्त्री-लेखन’ने ‘भिन्न’ की तरह देखने का आग्रह किया लेकिन देखा जाने लगा “कमतर’ की तरह। शायद इसलिए भी कि इस अलग को स्वीकारना, असल में, समाज और साहित्य के भीतर व्याप्त सत्ता-संरचनाओं और जेंडरहायरार्की को स्वीकारना भी था। अपने विशेषाधिकार और हकदारी को स्वीकारना भी था। और भी बुरा तब हुआ जब स्त्री लेखन के नाम पर मंच लेने के बाद उन्हीं मंचों से स्त्री-रचनाकारों ने भी ‘स्त्री-लेखन’ को एक कमतर के लेबल की तरह देखा, बचने की कोशिश की, खारिज तक किया। इतिहास और राजनीति से काटकर देखने से ऐसी दिक्कतें पैदा होती है। अक्सर यह होता है कि जो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास नहीं जानते थे कहते हैं कि हमारा तो रोज दिवस है या दिवस कमजोर का होता है।
स्त्री-लेखन पूरी दुनिया है। इसे प्रतिरोध का साहित्य कहकर सीमित नहीं किया जा सकता और विलाप-रुदन-दुख का साहित्य कहकर महत्त्वहीन नहीं किया जा सकता। वह मर्दों की बनाई दुनिया की मिरर-इमेज नहीं है। वह दर्शन है, जीवन का फलसफा है, आनंद है, कामना है, इंद्रधनुषी कामना जिसका एक अलग सौंदर्य बोध है। उसे समझने के लिए कुछ अधिक करना नहीं पड़ता। थोड़ा कम होना पड़ता है बस थोड़ा कम अहंकारी। थोड़ा कम आक्रामक। थोड़ा कम जगह घेरने वाला। थोड़ा बोलने देने वाला। अपनी थाली में दोनों रोटी उठाकर फिर आधी देने की महानता नहीं, इसके लिए एक ही रोटी उठाने और दूसरी सामने वाले के लिए छोड़ देने की शर्म-ओ-हया चाहिए। उसे पहले हाथ बढ़ाने देने की तमीज़ चाहिए।
मुझे रीतिकालीन कविता के बरक्स मुद्दूपलानीका काव्य ‘राधिका सांत्वनम’ याद आता है। किसी स्त्री की लिखी यह वह पहली रचना जिस पर अश्लीलता का आरोप लगा। ब्रिटिश काल की पहली स्त्री-रचना जिसे प्रतिबंधित किया गया। कृष्ण के जीवन में इला के आ जाने से राधा ईर्ष्या-विदग्ध है लेकिन दूसरी स्त्री के प्रति सम्वेदनशील भी है। प्रतापसिम्हा की सहचरी बनकर रही मुद्दूपलानी शायद अपने ही जीवन के अनुभव इसके माध्यम से दर्ज करती प्रतीत होती है। वह लिखती है –
भयभीत मत करना उसे
उसके कपोलों पर
एक मृदु चुम्बन रख देना
तीखे नाखूनों से अपने
खरोंचना मत उसे करना प्यार
धीरे-धीरे
करना प्यार
भयभीत मत करना
आक्रमण से उसे
किसी स्त्री का यह बताना कि एक स्त्री को कैसे प्यार किया जाना चाहिए, अश्लील है?
अठारहवीं सदी की तेलुगू कवि मुद्दूपलानी के क्लासिक काव्य ‘राधिका सांत्वनम’ को 1910 में जब बैंगलोर की नागरत्नम्या ने पुनःप्रकाशित किया ‘प्रॉपरफॉर्म’। इस प्रॉपरफॉर्म से उनका मतलब उस गैर-जरूरी सम्पादन और खराब किस्म के प्रकाशन से था जो राधिका सांत्वनम की मूल प्रति में कर दिया गया था। 1887 में वेंकटनरासु द्वारा सम्पादित संस्करण में मुद्दूपलानी का वह प्राक्कथन पूरा उड़ा दिया गया था जिसमें काव्य-परम्परा के अनुसार मुद्दूपलानी ने अपनी माँ, मौसी, नानी की विरासत और तंजावुर के नायक राजा प्रतापसिम्हा (1739-1763) के दरबार में अपनी उपस्थिति का जिक्र किया है। इस प्राक्कथन में वह कहती है-
है मुझ सी कोई औरत
अपनी विद्वत्ता के लिए उपहार और धन से सम्मानित हुई?
है मुझ सी कोई औरत जिसे
समर्पित किए गए महाकाव्य ?
है कोई और मुझ सी औरत जिसने
विविध कलाओं में प्रशंसा कमाई?
तुम अतुलनीय हो,
मुद्दूपलानी, अपनी तरह की एक ही।
मुद्दूपलानी ‘नगर शोभिनी’ थी। संस्कृत साहित्य शास्त्र पढ़ी, नवरस में पारंगत, काव्य-रचना करने वाली चतुर, आकर्षक, संस्कृत, तमिल, तेलुगू भाषाओं में दक्ष। तमिल संत कवि अण्डाल का भी मुद्दूपलानी ने अनुवाद किया और सात पंक्तियों की कविता सप्तपदम लिखने की नई शुरुआत की। बेहद प्रतिभाशाली थी मुहुपलानी। विनम्र नहीं प्रखर, अपनी उपलब्धियों पर गर्वित।
वेंकटनरासु ने उसकी कई कविताओं के अंतिम निष्कर्षात्मक हिस्से भी हटा दिए और कुछ कविताएँ बिल्कुल ही गायब कर दी। मुझे याद आया स्त्रियों के लोकगीतों का संकलन करते हुए रामनरेश त्रिपाठी ने ‘चांद’ पत्रिका में एक विज्ञापन दिया था और स्त्रियों के लोकगीत मंगाए थे। किताब भी भूमिका में उन्होंने लिखा ‘कई गीत एकदम कचरा थे’ हम नहीं जान सकते कि कचरा कहकर उन्होंने किन गीतों को खारिज किया होगा? लेकिन हाँ, स्त्रियों के गंदे लोक गीतों का शुद्धिकरण करके एक नकली लोकगीत संकलन ‘ग्राम गीतांजलि बनाया गया और उसे स्त्रियों को भेंट किया गया ताकि वे अपने गंदे गीत न गाएँ। स्त्रियों के लिए ‘मैनमेड’ लोकगीत। मैथिलीशरण गुप्त और डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इस संकलन और इस प्रयास की तारीफ भी की। आज हम शोध करते हैं और स्त्रियों का लिखा नहीं पाते कभी इस काल में. कभी उस भाषा में। कोई नहीं कह सकता किसने, कहाँ किन चीजों को सम्पादित कर दिया, खारिज कर दिया या संग्रह ही नहीं किया।
उन्नीसवीं सदी के भारत का इतिहास समाज-सुधार आंदोलनों का इतिहास है, समाज-सुधार आंदोलन जिनके केंद्र में स्त्री रही। स्त्री-शिक्षा और विधवा पुनर्विवाह के लिए काम करने वाले आंध्र के समाज सुधार आंदोलन के जनक कंदुकुरीवीरेसलिंगम के साथ भी वही नैतिक दिक्कतें थी जो बंगाली भद्र-लोक की या महाराष्ट्र के सुधारवादियों की थी कि वे स्त्री को शिक्षित और सुसंस्कृत तो देखना चाहते थे लेकिन इसलिए कि इससे वह एक अच्छी पत्नी और गृहिणी बन सके। मुद्दूपलानी का साहित्य स्त्री की छवि ‘खराब’ करता था। वीरेसलिंगम ने तेलुगू कवियों का इतिहास लिखते हुए मुद्दूपलानी को कवि रूप में इसलिए खारिज कर दिया कि वह एक व्यभिचारिणी है। किताब के कई हिस्से ऐसे हैं कि उन्हें स्रियों को सुनना भी नहीं चाहिए और कहा कि शृंगाररस का सहारा लेकर उसने अश्लील काव्य रचा है। भारतेंदु की ‘बाला बोधिनी’ भी बाद जाती है। कुलीन स्त्रियों को कैसे गीत नहीं गाने चाहिए, पड़ोसनों से गप्पें भी नहीं लगानी चाहिए। “अच्छे घर की औरतों” को यही सीख दी गई कि घर में ऐसे रहे कि पता भी न चले वहाँ कोई जीव वास करता है।
लेकिन यह ऐतिहासिक स्त्री-द्वेष मुद्दूपलानी पर ही ख़त्म नहीं होता। नागरत्नम्मा (1878-1952) स्वयं एक गणिका की पुत्री थी जो अंग्रेजी, कन्नड़ और तेलुगू भाषाएँ पढ़ी थी, बुद्धिमती थी, प्रतिभाशाली थी, संगीत सीखा था। अपनी संगीत-कला से उसने खूब पहचान बनाई। उसकी प्रतिष्ठा और कद इतना हो गया था कि वह पहली महिला संगीतकार बन गई जो आयकर देती थी। लेकिन मामला स्त्री का हो तो सिर्फ प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं होता। एक तेलुगू साहित्यिक पत्रिका ने मुद्दूपलानी और नागरत्नम्मा दोनों पर निशाना साधते हुए लिखा- ‘एक वेश्या ने किताब लिखी और दूसरी वेश्या ने उसे सम्पादित किया’। वेंकटनरासु ने ‘राधिका सांत्वनम्’ की काट-छाँट क्यों की होगी इसकी वजह समझना मुश्किल नहीं है। तेलुगू साहित्य के इतिहास के लेखक ‘राधिका सांत्वनम्’ का दो पंक्तियों का परिचय देते हैं जिसमें दूसरी पंक्ति है- “यह रचना भी दक्षिणी स्कूल के अन्य कामों की तरह बदमज़ा है और शालीनता से रहित है।
साहित्य में स्त्री की हंसी से ज्यादा उसके आंसुओं का मोल रहा। हिंदी कवियों के बड़े प्रेरक पाब्लो नेरुदा की का उदास प्रेमिकाएं है। नाज़िम हिकमत और निज़ारकब्बानी के यहाँ प्रेमिकाएँ फलों की टोकरियों जैसी रही। धरती जैसी रहीं जो सहारा देती है। मनुष्य नहीं होती। मुझे कालिदास की कृति ‘रघुवंशम’ की एक पंक्ति याद आती है-
सीता ने दो तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया, जैसे पृथ्वी अपने राजा के लिए धन तथा सेना उत्पन्न करती है। (15वां सर्ग, श्लोक संख्या-13)
मनुस्मृति का एक श्लोक है- स्त्री धरती है, पुरुष उसमें बीज बोता है। (9वां अध्याय)
वह खुद धरती है, इसलिए धरती पर उसका होना दिखाई नहीं देता। मीरा के लिए कहना कि ‘हिंदी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ परकीया नायिका है, मीरा के अभिकर्तृत्व को ख़ारिज करना था। आप उस स्त्री को कर्ता कैसे मानेंगे जिसे आप जगह की तरह देखते हो, जगह में नहीं? वह खुद घर है, तो घर ‘में’ कैसे दिखाई देगी? वा सिर्फ उन जगहों पर दिखाई देगी जो उसके लिए निर्धारित है जैसे रसोई। सोफे पर बैठी नहीं। साहित्य के भीतर भी वह ‘नायिका’ की तरह दिखाई देगी, वही तो वह रही है। कवि की तरह नहीं। जो कविता रचने के बाद भी एक कवि की तरह नहीं देखी जाती उसके लिखे का क्या मूल्यांकन !
स्त्री-लेखन की श्रेणी स्त्री-रचनाकार के अभिकर्तृत्व को स्थापित करती है। जो अपना इतिहास नहीं जानता वह अपने वर्तमान से सही सवाल नहीं पूछ सकता। खोई हुई स्त्री-लेखन की परम्परा की खोज करना और उसके लिए मूल्यांकन के सही मानकों को स्थापित करना स्त्रीवादी आलोचना का एक सबसे जरूरी काम है। जिसे अक्सर ज्ञान की परम्परा में कुछ जोड़ने की तरह नहीं देखा जाता बल्कि ‘खाँचे बनाना’ कहकर भी खारिज किया जाता रहा। यह विस्मय पैदा करता है, क्योंकि खाँचे तो पहले ही बने हुए थे। ‘जेनेरिक’ मैं से स्त्री को बाहर किया जाना एक बड़ा धोखा है भाषा में। पुरुष का मैं सबका मैं है। स्त्री का मैं केवल स्त्री का। वह कहे तो उसकी पीड़ा बनाना। पुरुष कहे तो वह मानवता की पीड़ा। जो स्त्री की पीड़ा है वह मानवता की पीड़ा नहीं?
खाँचे और भी थे। नायिका भेद के। स्त्री-द्वेष के। लेबल भी थे। बोल्ड लेखिका, गृहस्थ लेखिकाऔर न जाने क्या- क्या। महादेवी वर्मा और सुभद्राकुमारी चौहान की तुलनाएँ उनकी वैवाहिक स्थिति के आधार पर भी होती रही। महादेवी वर्मा और मीरा की तुलना उनके पारिवारिक संरचना से निकल आने को लेकर। स्त्री रचनाकारों की मौलिकता और पुरस्कारों को लेकर घृणित बहसें चलीं। स्त्री छद्मनामों से लिखा गया। प्रेमी लिखता है या पति लिखता है जैसे संदेह व्यक्त किए गए। कुल मिलाकर स्त्री रचनाकार के लिए एक ‘लेखकीय हड़बडी’ और अपमान का वातावरण रचा गया। जबकि स्त्री-लेखकत्व और पाठकत्व का अध्ययन किया जाना था, नई सैद्धांतिकियाँ तैयार होनी थी उस समय दायरों और खाँचों से आज़ादी की बात करने वाली स्त्रीवादी आलोचना को हिंदी में लम्बे समय तक किनारे रखा गया।
यूँ साहित्य का भी दुनिया का भी अंतिम लक्ष्य यही है कि मनुष्यों के बीच किसी तरह के खाँचे न बनें। कहीं कोई श्रेणी न बने। एक समावेशी दुनिया हो और किसी में यह अहंकार न बचे कि मैंने उन्हें जगह दी, मैंने किताब में एक लेख दिया. एक सूची में नाम दिया, मंच दिया, मंच पर एक कुर्सी दी। कोई द्वेषपूर्ण लेबल न हो। लेकिन जब तक हम ऐसा समावेशी साहित्य और समाज नहीं बना लेते तब तक स्त्री-लेखन को अलग से रेखांकित किए जाने की और समस्त साहित्य को देखने की स्त्रीवादी आलोचना दृष्टि की हमें जरूरत है।
साहित्य को परखने के लिए तमाम वैचारिकियों को अपनाया गया। अजीब है कि लम्बे समय तक स्त्रीवाद को साहित्यालोचन की दृष्टि की तरह अपनाया नहीं किया गया। एक स्त्रीवादी होने के नाते मैं यह कभी नहीं कहती कि दुनिया को बेहतर बनाने के लिए सिर्फ स्त्रीवाद पढ़ना चाहिए, मैं यह जरूर कहती हूँ कि दुनिया को बेहतर बनाने का कोई भी नजरिया स्त्रीवाद के बिना अधूरा है।

सुजाता समकालीन हिंदी साहित्य और आलोचना के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण नाम हैं। हाल ही में उनकी नई पुस्तक ‘पंडिता रमा बाई’ आई है। इससे पहले एक उपन्यास ‘एक बटा दो’ प्रकाशित हो चुका है। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। पुस्तक में स्त्री विमर्श पर गहन शोध के साथ समकालीन सृजन की पड़ताल भी शामिल है।