सोनी पाण्डेय
नई सदी के दो दशक में अपने लेखन से प्रभावित करने वाली कवयित्रियों में एक सोनी पाण्डेय भी हैं। 2015 में उनका पहला कविता संग्रह ‘मन की खुलती गिरहें’ आया था। ग्रामीण व कस्बायी समाज में स्त्रियों के संघर्ष, लोकभाषा के सृजनात्मक उपयोग और संवेदना की अपनी खास बनावट के कारण प्रचलित स्त्री विमर्श के बीच उनकी कवितायें अलग से पहचानी गयी।
वे आजमगढ में रहती हैं और गांव से उनका जीवन्त रिश्ता अब भी बना हुआ है। गाथान्तर पत्रिका के संपादन के माध्यम से देशभर के रचनाकारों से जुडी हैं, दूसरी तरफ अपने शहर की पढने-लिखने वाली स्त्रियों का मजबूत संगठन भी उन्होंने खड़ा किया है। महत्वपूर्ण यह है कि उनकी इस गतिशीलता को उनकी कविता में लक्षित किया जा सकता है। प्रस्तुत है उनकी नवीतम कविता ‘बेरंग घर’।
एक खाली दीवार जिसके ऊपरी सतह से झड़ रहा हो प्लास्टर
चींटियों ने बरसात में बनाकर घरौंदा कर दिए हों अनगिन छेद
किसी बुजुर्ग ने ठोंक कर कील किए हों सैकड़ों सुराख
वह अपनी कहानी खुद ब खुद कहने लगता है…
उस घर में कुछ हो न हो
मौन का मातमी धुन आप हमेशा सुन सकते हैं नेपथ्य से
कुछ जिन्दा लोगों की गवाहियाँ दे सकता है बर्तनों का खटर-पटर
पैरों के पदचाप
लोहे की जंग लगी अलगनी पर सूखते कुछ कपड़े कर सकते हैं चुगली
किन्तु नहीं मिलेगी आपको उस घर में एक चहकती हुई औरत
क्योंकि औरतें बेरंग दीवारोंवाले घर में जिन्दा ही नहीं रह सकतीं
वह कुछ भी करके सजा ही देती हैं बेरंग दीवारों को
जरूर उस घर में कुछ औरतें इस ख्वाहिश में मरी होंगी कि एक न एक दिन कुछ बदलेगा यहाँ
सुनी जाएगी एक स्त्री की आवाज़ उस घर में
यकीन मानिए,
जिस घर में बोलती हैं औरतें
सुनते हैं मर्द
उस घर की दीवारें बेरंग नहीं होतीं