युवा कवयित्री डिंपल राठौड़ की ‘नई दुल्हन’ तथा अन्य कविताएं

दुल्हन, डिंपल राठौड़ की कविताएं

डिंपल राठौड़ की कविताएंयुवा रचनाकार डिंपल राठौड़ की कविताएं सीधे शब्दों में औरतों के प्रति सामाजिक भेदभाव और टैबू पर प्रहार करती हैं। डिंपल बतौर स्वतंत्र लेखक विभिन्न मंचो पर सक्रिय हैं। 15 अगस्त, 1996 में जन्मी डिंपल ने एमएससी की शिक्षा प्राप्त की है। देश, विदेश के प्रतिष्ठित अखबारों एवं पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं। कविताओं का एक संग्रह ‘जब भी मिलना’ के नाम से प्रकाशित है। उन्हें 2020 का नव रचनाकार सम्मान भी मिल चुका है।


वो पाँच दिन

सुनो!

मैंने कहानियों में सुना हैं
‘वो पांच दिन’ होती है औरत अछूती

देते हो उसे भिन्न-भिन्न अवतार
कभी चुडैल, कभी शैतान
कभी बता देते हो राक्षसी अवतार

उसके छूने मात्र से आ जाता है विघ्न पूजा में
उसके छूने मात्र से मलिन हो जाते है कलश
उसके प्रवेश भर से हो जाती है पावन धरा मैली
उन्हें रखा जाता है दूर व्यंजन कक्ष से
वो एक अलग जीवन जीती है “वो पाँच दिन ”

हालाँकि मैं भी शामिल हूँ उन्ही पांच दिन में
पहरा और पाबन्दी होती है मुझ पर भी
मैं कुंठित होती हूँ इस मानसिकता से
मैं नहीं मानती ये बंदिशें
बड़े बुजुर्ग के सम्मान के लिए
सील लेती हूँ होंठ!

मगर कभी-कभी कभी सवाल आते है
बवंडर बन कर दिलो दिमाग़ में
अगर ये “पांच दिन” की मलिनता से उत्पन होती है सृष्टि
तो क्या वो सभी सृजन भी उतने ही मलिन होंगे?
जितना मलिन कहते हो,
वो पांच दिन?

आखिर किसने बनाई होगी ये परम्परा
बनाई भी होगी तो क्या सच में इसे हम
पांखड और अमानवीयता की
‘दोहरी मानसिकता’ नहीं कहेंगे??

श्रद्धा

नसीहत मिली थी मुझे
तुम्हें लिखना नहीं आता अभी, छोड़ दो लिखना
उन्हें कैसे बताती मैं

मैं नहीं चाहती थी खुद के लिए लिखना

मैं लिखती हूँ कि कुछ बोझ कम हो दिल का
मैं लिखती हूँ कि समझ पाए हर वो औरत
जो उलझी हुई हैं किसी शिकारी के प्रेमजाल में

मै लिखती हूँ कि हर औरत समझ सके कि
वो नहीं हैं अकेली
मैं लिखती हूँ कि बना सके हर नारी अपना वजूद अपनी पहचान

वो ना ही अछूत है ना कोई बीमारी
वो ना ही कोई पालतू पशु है ना बेचारी

वो ना ही तुम्हारे पूर्वजों की जागीर है
ना ही है वो कोई कोल्हू का बैल

वो औरत है केवल सच्चे प्रेम की भूखी
तुम खेलते हो रीति-रिवाजों में फंसा कर अपना अलग खेल..

चलो!
मैं छोड़ देती हूँ लिखना इस वादे पर
अगर समेट लोगे तुम ये ‘दोहरी मानसिकता का खेल’।

तब; हाँ कसम है कलम नही उठाउंगी।।

नई दुल्हन

नई दुल्हन आईं है घर
स्वागत करो !
रीति रिवाज से घर लाओ…
देवी देवता का पूजन होगा कल
आज दूल्हन की मुँह दिखाई करवाओ !!

संस्कृति में सफेद रंग है पवित्रता का प्रतीक
सेज पर सफेद चादर बिछाओ

चलो!
अभी गीतों का माहौल हैं
छोड़ दो अब इन्हें अकेला
जोड़े के कमरे के पास रतजगा लगाओ

लो हो गई सुबह दुल्हन का बिस्तर देख कर आओ
अरे!!
ये क्या है?
पाप घोर पाप हुआ ये तो!

घोर पाप करके आईं है ये पापिन तो…
चादर पर कोई धब्बा नहीं

जाओ….
बड़े बुजुर्गो की पंचायत बुलाओ
इस पर चरित्रहीन का लेबल लगाओ
अभी के अभी इसके घर वालो को बुलाओ

ये क्या पाखंड कर रही हैं कुलछनी रोने का
सुनो औरतों !
इसे गंगाजल से नहलाओ

आ गए हैं पंच चलो न्याय कराओ
इसके माँ-बाप, इसके कुल पर दाग़ लगाओ

अरे! सुनो बड़े लोग !
हमारी बेटी ऐसी नहीं हैं
हमारा विश्वास हैं इसको यूँ ना तुम बाजारू बनाओ
पसंद था इसे कूदना, खेलना, नदी में तैरना
हवाओं से अक्सर ये बातें करती थी
हमने सुनी है विज्ञान की भाषा..
हमारी बेटी पर यूँ तुम ना आरोप लगाओ !

नहीं!
यहां कोई नहीं है सुनने वाला

सुनो बाबा !
ये है कोरवों की सेना
बाबा आप इनके सामने ना गिड़गिड़ाओ
चलो घर अब !
इन्होंने अपना फर्ज निभाया
अब आप भी अपना फ़र्ज़ निभाओ !

चलो !
ले चलो मुझे यहाँ से दूर
मेरे अभिमान को यूँ ना चादर के दाग पर मिटाओ

मर गई हैं एक औरत मुझमें
ये चदर देखने वाली औरतों को बताओ…

खेलो !!
जम कर खेलो
संस्कृति के नाम पर ये गंदा खेल
इसी नाम से तुम लडकियों को वेश्या बताओ

जी, साहिब फिर नई दुल्हन आई हैं
रीति रिवाजों से घर लाओ !!

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