‘एको रसः करुण’ : मीना कुमारी पर जितेंद्र विसारिया की लंबी कविता

मीना कुमार पर जितेंद्र विसारिया की कविता
मीना कुमार पर जितेंद्र विसारिया की कविता

कहते हैं जब वह
अपने चरित्र में उतरतीं थीं
पर्दे पर साक्षात
अवतरित हो जाता था
करुण रस

कहते हैं वे
एकदम किसी के आगे
खुलती नहीं थीं
जिनके आगे खुलती थीं
फिर कोई राज़
उनका अपना
नहीं रहता था

उनके इसी स्वभाव के चलते
आसपास उनके
लोग गढ़ लिए थे
झूठ-सच के कई फ़साने
खड़ा कर दिए थे
आभा मंडल के वर्तुल
अफवाहों के
कई अभेद्य गढ़

कि सच जहाँ
सागर लहरों सा
ख़ाकर पछाड़
लौट आता था हर बार
उनके मन की
कठोर बाह्य भित्ति से
होकर घायल
चकनाचूर

अफवाहों का बाज़ार
फिर भी गर्म रहता
कोई कहता
बचपन में
हुआ था
उनका
रेप
कोई कहता
निकम्मे बाप की
कमाऊ बेटी थीं
उसने ही नहीं रचने दी
उनके मखमली हाथों पर
सुहाग की पवित्र मेहंदी
न होने दिया उनका निक़ाह
किसी सपनों के राजकुमार से

कोई कहता
उनका रिश्ता जुड़ा था
भविष्य के ही-मैन से
जिसने उपयोग तो
बहुत किया उनका
पर दिया नहीं
अँजुरी भर
प्यार का अमृत
और न दामन भर
वफ़ा की सौगात
कि जिसकी बूँद-बूँद
बाद उसके
भिंगोती रहती
उसके प्यासे ओंठ
और सींचती रहतीं
मन की मुरझाई लता

कि जिन्हें भिंगोने के लिए
जीवन में फिर कभी
न पड़ती ज़रूरत
कम्बख़्तमारी
शराब की
कि जिसने
बेवक़्त ही
गला दिया था
उस नर्म नरगिस का
बेहद ही संज़ीदा
और नाज़ुक दिल!

बाद उसके पर्दे पर
वह कितने ही रूप
धरकर आईं : गौरी,
ललिता,ठकुराइन, शीतल,
बिजमा, शोभा, शारदा रामशरण,
मिस मैरी, हन्ना, रत्ना, चवली,
करुणा, चंद्रमुखी, गीता,
छोटी बहू, गायत्री, आरती गुप्ता,
सीता, नाज़ आरा बेग़म,
चित्रलेखा, माधवी, हिना शर्मा,
शान्ति, हेमांगिनी, मिहिर-उन-निसा,
ज़ीनत जहाँ बेग़म, राधा शुक्ला,
नरगिस और साहिब जान;
आह और आँसू
जैसे उनकी
पहचान ही
बन गए
थे

*

इससे बुरा
इस दुनिया में
कुछ नहीं
कि अविभावक लाद दें
अपनी औलाद पर
टूटे अरमान
और अधूरे
सपनों का बोझ

कि जिसके तले
दबकर-सिमटकर
बचपन ख़ुद ही बन जाये
उनका अविभावक
और करने लगे ख़िदमत
अपने बालिदैन और
उनकी अनचाही बेग़ैरत
संतानों का

किन्तु इससे क्या
जिम्मेदारियों तले
दबा बचपन
भले न पा सके
अपने जन्मदाताओं का
अविभावकत्व
किन्तु इससे
मर नहीं जाती
उनके मन में
किसी से प्यार और
सुरक्षा पाने की उम्मीद?

यदि ऐसा न होता
तो कोई क्यों देखता
बाप से आधी उम्र के
बाल-बच्चेदार अधेड़ मर्द में
दाम्पत्य का स्वर्णिम स्वर्ग?

किन्तु अक़्सर पाया गया है
कि दूसरों की आँख से
देखा गया
स्वर्णिम स्वर्ग का स्वप्न
अक़्सर
स्वर्णमृग
साबित होता है

पति/पुरुष
हिन्दू हो अथवा मुसलमान
सिख हो या क्रिस्तान
बरगद वह
उन्ही के लिए साबित होते हैं
जो केवल
उसी के छायावन में वास करें
पड़े रहें
जड़हीन-प्राणहीन
उनका
खाद-पानी
बनकर

फिर भला हंस और बुलबुल
कहाँ टिक पाते एक ठौर
जिन्होंने देख लिए हों
आज़ाद फ़िज़ाओं के
सुनहले सात रंग
चुग लिए हों
परवाज़ के
मदमस्त
मोती
फिर कोई स्वर्ण पिंजर
जकड़ नहीं सकता
उनके आज़ाद ज़िस्म
और पवित्र रूहें

ख़ुशबू कहाँ समा पाई है
किसी के आँचल में?
चाँदनी कौन भर सका
अपने दामन में?
लालओमीना
ताज़ की ज़ीनत हैं
भला कोई टाँक पाया
उन्हें अपने
पाँवन में?

वो महज़बीं थीं
कि कोई आफ़ताब
रख पाता अपने गर्म उजालों में
वे मीना थीं
कि कोई अभिजात्य पुत्र
टाँक पाता अपनी
जूतियों की नोंक पर

क्या हुआ कि वे वीर और रौद्र न थीं
कि अपने आग और ताप से
जला देतीं किसी प्रतापी और बली का घर
पिघलाकर भस्म कर देतीं
किसी जूठे आत्मसम्मान से निर्मित
छद्म महल अटारियाँ

वे साक्षात करुण थीं
जो अपने परिताप से
शमा सा जल-पिघलकर
इंसानियत और अदब की
घनी-अंधेरी राह
कर गईं सदा को रोशन

कि जिस रोशन राह पर
खड़ा रहकर जमाना
देखा करता है
आज भी
उनकी
राह

छोड़ गईं थीं-वे
जहाँ हमें
तन्हा…!!!

जितेंद्र विसारिया
जितेंद्र विसारिया

कुख्यात चंबल के एक पिछड़े गाँव-पान सिंह का पुरा (नुन्हाटा) भिण्ड (म.प्र.) में 20 अगस्त 1980 को सामान्य कृषक दलित परिवार में जन्में डॉ. जितेन्द्र विसारिया जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर (म.प्र.) से हिंदी विषय में एमए व पीएचडी हैं। डॉ.जितेन्द्र, यूजीसी नेट क्वालीफ़ाई होने के साथ-साथ महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा से ‘हिन्दी सृजनात्मक लेखन में डिप्लोमा भी किया है। पहला कहानी संग्रह ‘नये सजन घर आए’, भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार प्रतियोगिता 2015 में सम्मानित और प्रकाशित है। ‘ज़ख्म’ (लघु उपन्यास), ‘माँ की निगाह में पिता’(कविता संग्रह) ‘हिन्दी की प्रमुख दलित आत्मकथाएँ : एक विश्लेषण’, ‘बुन्देली महाकाव्य आल्हखण्ड : एक अन्तर्जनपदीय प्रभाव’ व हिन्दी सिनेमा और दलित’ (सभी शोध) ‘दौड़ : अ रन फॉर फ्रीडम्’ (पटकथा) और ‘हिन्दू कोडबिल (डॉक्यूमेन्ट्री) इनकी प्रमुख रचनाएं हैं। वर्तमान में शासकीय एमजेएस स्नातकोत्तर महाविद्यालय भिण्ड में हिंदी के प्राध्यापक।

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