नेहा नरूका की कविता ‘हिंसा’

नेहा नरूका की कविता हिंसा

नेहा नरूका

नेहा नरूका की कविताएं हिंदी की उस काव्य परंपरा से जुड़ती हैं, जहां कविता की भाषा जीवन के गहरे यथार्थ में रच-बसकर खुद को गढ़ती है। उनकी रचनाओं में मौजूद विद्रोह और कड़वाहट स्त्री मुक्ति या स्त्री विमर्श को किसी नारे की तरह नहीं बल्कि जीवन दृष्टि के रूप में सामने लाता है। प्रस्तुत है उनकी कविता ‘हिंसा’।

मेरे ऊपर पहली हिंसा कब और किसके द्वारा हुई
कुछ याद नहीं आ रहा…

हो सकता है तब हुई हो जब मेरी उम्र रही हो कोई एक-आध साल
मेरे रोने की ध्वनि और दादी के चीखने की ध्वनि, जब गड्डमड्ड होकर माँ के कानों से टकराई होगी
तब माँ ने मुझे झूले में पटक कर तड़ाक की आवाज़ के साथ पहला थप्पड़ रसीद किया होगा-

(माँ: “रोटी के लिए अबेर करवा दी जा मोड़ी ने!”
दादी: “मोड़ीं छाती से चिपकाय कें रखी जातीं हैं ? ”
बुआ: “गोदी में लिवाय-लिवाय कें डुलनी बनाय दई है मोड़ी।”)

इत्यादि हिंसक वाक्य जब मुँह से निकलकर हवा में घुलते होंगे तो गुलाबी गाल से पहले लाल फिर नीला रंग झड़ता होगा।

माँ घर में सबसे कमज़ोर थी
माँ से कमज़ोर थी मैं
तन, मन, धन तीनों से बेहद कमज़ोर और इंसान अपने से कमज़ोर इंसान पर ही अपनी कुंठाएं आरोपित करता आया है

मैंने कोई हिसाब-क़िताब दर्ज़ नहीं किया हिंसा का
सम्भव भी नहीं था यह करना
गणित मेरे लिए बेस्वाद विषय रहा हमेशा

माँ ने इसलिए मारा क्योंकि मैं उनकी दुर्गति में सहायक थी, मैंने उनके दूध से रीते स्तन ज़ख्मी किए थे
पिता ने इसलिए कि मैं जवान होकर भी उद्दंड थी, मैंने उन्हें झुककर कभी प्रणाम नहीं किया था
पति ने इसलिए कि मैं बेशर्म थी, मैं उसके दोस्तों के सामने हँस देती थी और अकारण ही नाचने लगती थी
नाचने से मेरे भाई को भी सख़्त चिढ़ थी, इसलिए कभी-कभार वह भी प्यार से मार देता था मुझे
चिढ़ तो मेरे प्रेमी को भी मेरी हर शब्द से थी, इसलिए वह अक्सर शब्दों के थप्पड़ मारता था मेरे गालों पर, उन्हीं गालों पर जिन्हें वह कई बार पागलों की तरह चूमकर फूल जैसा होने का ख़िताब दे चुका था।

मैंने मारा अपने बच्चों को
क्योंकि वे मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे
वे तो सार्वजनिक आलोचना भी नहीं कर सकते थे मेरी
अगर करते भी, तो कौन करता उनपर विश्वास ?
आखिर मैं माँ थी! और माँ हमेशा ममता- त्याग-महानता की मूर्ति होती है।

हिंसा हर परिस्थिति में हिंसा नहीं कही जाती
हम इसे पवित्र परम्परा के नाम से जानते हैं
हिंसक परंपराओं के पालन में हम सभी मनुष्य माहिर हैं
हमें अपराधबोध भी नहीं सताता
हम इसे प्रेम कह-कहकर व्याख्यायित करते हैं।

मृत्यु के बाद भी आत्मा पर पड़े हिंसक चिह्न जीवाश्म बन जाने के लिए अभिशप्त हैं
इसलिए हम सब उन हाथों को विराम देने के बारे में विचार कर सकते हैं
जो ‘निर्माण’ की जगह ‘हिंसा’ के लिए उठे।

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