चैताली सिन्हा
कोरे कागज़ पर उकेरो
चंद मोटे-मोटे अक्षर
काली स्याह से…!
ताकि उभरकर आ सके
उस स्याह का गाढ़ा रंग
ख़ाली सफ़ेद पन्नों पर
जिसपर लिखा होता है किसी
बलात्कारी का नाम,
उसका कद,
उसका ठिकाना और
उसका कर्म…!
जिन्हें छुपाने की होती है
हर संभव कोशिश
कभी अर्थ के बल पर
कभी बल के बल पर
कभी सत्ता के बल पर और कभी
जाति के बल पर…!
तुम लिखो,
इसलिए नहीं कि
लिखना अच्छा लगता है
बल्कि इसलिए कि लिखने से
बेनक़ाब हो सकते हैं
अपराधियों के चेहरे
उनका षड्यंत्र…!
टूट सकती हैं चुप्पियाँ
उनकी भी, जिनकी आत्माएं
सो चुकी होती हैं उस वक्त,
जब कोई अकेली लड़की
किसी अँधेरी खोह में
कर रही होती है चीत्कार,
माँग रही होती हैं मदद
अपनी कराहती हुई आवाज़ में
किसी भेड़िये के पंजे से
खुद को छुड़ाने के लिए…!
अफ़सोस…!
हम सब मौन हैं,
सब….
नेता भी, अभिनेता भी
गद्य भी…पद्य भी…!
कवि भी…लेखक भी…!
साहित्यकारों के कलम भी !
याद रखना,
ये चुप्पियाँ एक दिन
मांगेंगी हम सबसे हिसाब
उन सभी चीखों का,
उन हत्याओं का;
जिन्हें करते आये हैं हम
नज़रंदाज़…सदियों से…!
कभी जाति के नाम पर और कभी
धर्म के नाम पर…!
परंतु धर्म तो कहता है कि
जो धारण करने योग्य हो
वही धर्म है – दया,क्षमा, सत्य, दान और
दंड भी…!
परंतु यहाँ भी हमने नहीं ढूंढा कोई और
रिश्ता इसके अतिरिक्त,
जो हो सकता था
मानवता का,
दयालुता का
आत्मीयता का,
बंधुता का…!
सुनो…यह जो मौन है
बहुत घातक है,
इसे तोड़ना,
खुद को मुक्त करना है,
इसलिए लिखो
क्योंकि लिखना
हमें उदार बनाता है…!
चैताली सिन्हा ‘अपराजिता’ जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी की शोधार्थी हैं। कविताओं के अलावा वे चिंतनपरक आलेख भी लिखती है और मेरा रंग की नियमित लेखिका हैं।