नही इंतज़ार करना पड़ता
चाय के ठंडे होने का
कि देर से चाय खत्म हो
तो देर तक तुम बैठोगे
इन्कलाब की तूतिया बजाती हूँ
नही तुम्हारे गुस्से का डर
कि दोस्तो संग सड़को पर
करूँ आवारियत तो तुम डाँटोगे
और मनाना होगा तुम्हे
रातों को नही जागना पड़ता अब
कि कब तुम निपटो अपने काम से
और तुम्हारे निर्धारित समय पर ही
तुम्हारी मर्ज़ी से ही
तुमसे बात हो
हर बंधन से मुक्त हूँ
यूँ ही कभी-कभार फ्लर्टिंग कर लेती हूँ यहाँ वहाँ
वो कहते हैं ना शौर्ट टर्म रिलेशनशिप
कोई जासूसी करने वाला नही
ज़रूरत नही सिमटने की
छन जाती है कभी कभार शराब भी
देर रात तक ढाबे का बटर चिकन
नौ से बारह का शो
दोस्तो संग ये हो हल्ला
उफ्फ के लम्हात वल्लाह
ठप्प पड़ा है मुलाकातो का कारोबार
बन-संवर तुमसे मिलने का मौसम
कल-परसो की बात हुई अब
आराम से उठती हूँ सुबह
आज़ादी की साँसे लेती हूँ
ज़रीदार ख्वाबो का कोई ज़िक्र नही
समय को निचोड़ने की नही पड़ी
घड़ी की सुईयो से नही लगता डर अब
कैद नही अब मैं
जो चाहे करती हूँ जब-तब
– यह कविता है ज्योत्सना बनर्जी की। वे आगरा में रहती हैं और एफएम रेडियो में काम करती हैं।