एलिस मनरो : छोटे शहर की बड़ी कहानीकार

एलिस मनरो - छोटे शहर की बड़ी कहानीकार

विजय शर्मा

नोबेल पुरस्कार कदाचित ही कहानीकार को मिलता है, ज्यादातर यह पुरस्कार उपन्यासकार के खाते में जाता है। साल 2013 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार एलिस मनरो को प्राप्त हुआ है। देख-सुन कर अच्छा लगा, थोड़ा बुरा भी। अच्छा लगा कि इस साल का नोबेल पुरस्कार एक महिला रचनाकार को मिला। एक सौ तेरह साल में मात्र तेरह महिलाएँ (अब कुछ और महिलाओं को मिल चुका है) इस योग्य मानी गईं।

खुशी इस बात की हुई कि एक कहानीकार को यह पुरस्कार मिला। उन्होंने एक साक्षात्कार में बताया कि उन्हें नोबेल मिलने की खुशी है, साथ ही इस बात की खुशी है कि यह कहानियों को मिला है। उन्होंने जिंदगी भर केवल कहानियाँ लिखीं, छोटे शहर के जीवन पर कहानियाँ लिखीं हैं। एक बार एक साक्षात्कार में उन्होंने थोड़ा उदास होते हुए कहा था कि शायद जब तक आप उपन्यास नहीं लिखते हैं तब तक आपको गंभीरता से नहीं लिया जाता है। यह पूरा सच नहीं है। साहित्य जगत में सदा से कहानी लिखने वालों की पूछ रही है।

कहानी विधा कभी नहीं मर सकती है। चेखव ने कहानियाँ लिख कर अपना स्थान विश्व साहित्य में सुरक्षित कर लिया। एलिस मनरो को भी मात्र कहानी विधा अपनाने के कारण ‘कनाडा का चेखव’ नाम से नवाजा जाता रहा है। नोबेल समिति ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में उन्हें ‘समकालीन कहानी का शिखर’ कहा है। एलिस मनरो की गिनती थॉमस हार्डी, जेम्स जॉयस, रडयॉर्ड किपलिंग, समरसेट मॉम, कैथरीन एन पोर्टर, फ़्रांस काफ़्का, ब्लादीमीर नाबोकोव, डी.एच लॉरेंस, बोर्गज, विलियम फ़ॉक्नर, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, स्कॉट फ़िटज़ेरॉल्ड, साकी (एच.एच. मनरो) आदि की भाँति उच्च कहानीकारों में होती रही है, आगे भी होगी। दुनिया भर में उनके पाठक फ़ैले हुए हैं।

नोबेल पुरस्कार कई बार विवादों के घेरे में आया है। एल्फ़्रीड जेलेनिक, मो यान यहाँ तक कि ओरहान पामुक के समय यह विवाद जोर-शोर से उठा था कि नोबेल पुरस्कार समिति साहित्य पर कम और रचनाकार के राजनैतिक रुझान और उससे संबंधित राजनीति पर अधिक ध्यान देती है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, एलिस मनरो के संदर्भ में ऐसा नहीं कहा गया। एक तो वे कनाडा से आती हैं जहाँ राजनीति का उतना बोलबाला नहीं है, दूसरे उनके लेखन पर राजनीति हावी नहीं है। अत: किसी को शिकायत का मौका नहीं मिलना चाहिए। इस बार का नोबेल पुरस्कार साहित्यिक कारणों से दिया गया है, साहित्य को दिया गया है, कहानियों को मिला है। और राजनीति से प्रेरित नहीं लगता है। पुरस्कार समिति के निर्णय की विश्वसनीयता पर एक बार फ़िर से विश्वास कायम होता है।

एलिस मनरो - छोटे शहर की बड़ी कहानीकार
एलिस ने कहानियों के अलावा संस्मरण भी लिखे हैं.

एलिस मनरो को नोबेल पुरस्कार मिलने के कुछ समय पूर्व इसी साल के जुलाई महीने में वे लेखन से सन्यास लेने की बात कह चुकी थीं। दु:ख इस बात का है कि उन्हें इतनी देर से, इतनी उम्र होने के बाद यह पुरस्कार मिला। वे खुद एक साक्षात्कार में कह चुकी हैं कि उनकी 2012 में आई किताब ‘डीयर लाइफ़’ शायद उनकी अंतिम रचना होगी। उम्र बयासी साल उम्र में ऐसी घोषणा उचित ही है। जे एम कोट्जी ने नोबेल पुरस्कार के प्रीति भोज के अवसर पर कहा था कि यदि उस दिन उनकी माँ जीवित होती तो साढ़े निन्यानवे साल की मतिभ्रम-स्मृति लोप की शिकार माँ होती। थोड़ा रुक कर वे उदासी के साथ कहते हैं कि शायद मेरी माँ बहुत खुश-गर्वित होती। आखीर हम माँ के लिए नहीं तो और किसके लिए काम करते हैं और नोबेल तक पहुँचते हैं। वे आहत थे कि जब तक पुरस्कार मिलता है, माता-पिता जा चुके होते हैं।

जॉन मैक्सवेल कोट्ज़ी को भी काफ़ी उम्र होने पर यह पुरस्कार मिला था और उन्होंने दु:खी हो कर कहा कि जब पुरस्कार मिलता है तो जिनके साथ हम यह खुशी बाँटना चाहते हैं वे इस दुनिया से जा चुके होते हैं। नज़ीब महफ़ूज को भी नोबेल सतहत्तर साल की उम्र में मिला और उन्होंने कहा था काश यह पहले मिलता, उसके बाद उन्होंने कुछ और महत्वपूर्ण नहीं लिखा। ओरहान पामुक जैसे बहुत कम लेखक होते हैं जिन्हें लेखन की उम्र रहते नोबेल मिला है। जब साहित्यकार अपना सर्वोत्तम दे चुका होता है तब पुरस्कार मिलना बहुत मायने नहीं रखता है। हमारे अपने देश में ऐसे कई उदाहरण हैं।

मनरो के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही हुआ है। वे तो खुद इतनी उम्र की हो चुकी थीं। लगता है नोबेल समिति ने सोचा कि यदि इस साल पुरस्कार नहीं दिया तो शायद यह मौका उन्हें फ़िर न मिले। मृत व्यक्ति को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जाता है। गाँधी जी को इसी कारण शांति का नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जा सका। अब एलिस को इस पुरस्कार से कोई खास फ़र्क नहीं पड़ने वाला। जब फ़ोन से उन्हें पुरस्कार की सूचना दी गई, वे सो रहीं थीं और उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, ‘उन्होंने कभी नहीं सोचा कि यह उन्हें मिलेगा’। वे करीब- करीब इसकी उम्मीद छोड़ चुकी थीं। जब उनसे पूछा गया कि इस खुशी के मौके पर वे किसे याद कर रहीं हैं तो उन्होंने भी कहा कि वे अपने पिता को याद कर रहीं हैं, यदि वे होते तो यह जान कर बहुत खुश हुए होते।

कनाडा के ओण्टारिओ में 10 जुलाई 1931 को एलिस मनरो का जन्म हुआ। उनके पिता रॉबर्ट एरिक लैडलॉ सिल्वर लोमड़ी पालन का व्यवसाय करते थे और माँ एन चमनी लैडलॉ काफ़ी समय तक एक स्कूल शिक्षिका थीं। हाई स्कूल पास करके एलिस ने कॉलेज में प्रवेश लिया, उन्हें दो साल के लिए स्कॉलरशिप मिली। परंतु 1951 में बीच में पढ़ाई छोड़ दी। कारण था वे प्रेम में थीं और मात्र बीस साल की उम्र में बाइस साल के जेम्स आर्मस्ट्रॉन्ग मनरो से उन्होंने विवाह किया। 1952 में ब्रिटिश कोलंबिया में आ बसीं जहाँ बाद में उन्होंने अपने पति के साथ एक किताबों की दुकान ‘मनरो बुक शॉप’ खोली। उनकी दूसरी बच्ची पैदा होते ही मर गई। शैला, जेनी तथा एंड्रिया उनकी तीन बेटियाँ हैं। लिखना उन्होंने बहुत पहले शुरु कर दिया था।

प्रारंभ में पति मनरो उनके लेखन में बहुत सहयोगी थे। शादी के बाद भी वे पति, बच्चों और घर की देखभाल के बीच बराबर लिख रहीं थी, पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही थीं। उन्हें घर के काम या बच्चों की देखरेख से कोई परहेज नहीं था, घर का काम उन्होंने सदा किया। असल में उन दिनों उनके यहाँ एक अलिखित पर प्रमुख नियम था कि जो स्त्री लेखन जैसा विचित्र काम करती है तो उसे अनदेखा किया जाना चाहिए। उस इलाके में बहुत समय तक उनकी अलग से कोई पहचान नहीं थी। वे बुक स्टोर चलाने वाले की पत्नी के रूप में ही जानी जाती रहीं। हाउसवाइफ़ के रूप में ही लोग उन्हें जानते थे। वहाँ आसपास ऐसे बहुत लोग नहीं थे जिनसे वे अपने लेखन के विषय में बात कर पातीं। बराबर प्रकाशित होने के बावजूद लोग उनके लेखन को गंभीरता से नहीं ले रहे थे।

उनका अपनी माँ से अजीब रिश्ता था जिसमें प्रेम और परेशानी दोनों शामिल थीं। मगर जब 1959 में उनकी माँ की मृत्यु हुई तो वे इससे बहुत आहत हुईं। बाद में उनका अपने पति से भी संबंध बिगड़ गया और 1976 में उनका तलाक हो गया। वे अपने जन्मस्थान ओण्टारिओ लौट आईं। यहाँ वापस आ कर उन्होंने अपने एक पुराने परिचित जेरॉल्ड फ़्रेमलिन से शादी की और अपने जन्मस्थान से थोड़ी दूरी पर रहने लगीं। दूसरे पति जियोग्राफ़र जेरॉल्ड फ़्रेमलिन उनके कॉलेज के दिनों के मित्र थे। उनका झुकाव एलिस की ओर था लेकिन उस समय एलिस का झुकाव मनरो की ओर था। जब तलाक ले कर वे वापस लौटी थीं उनके पिता दूसरी शादी कर चुके थे और घर में उनकी सौतेली माँ थीं। आजकल वे ओण्टारिओ में अपने जन्मस्थान से थोड़ी दूरी पर फ़्रेमलिन के साथ रहती हैं।

हालाँकि एलिस ने किशोरावस्था में ही कहानियाँ लिखना शुरु कर दिया था, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में वे प्रकाशित भी हो रहीं थीं पर पहला कहानी संग्रह ‘डॉन्स ऑफ़ द हैप्पी सेड्स’ बहुत बाद में 1968 में जा कर प्रकाशित हुआ। संग्रह को कनाडा में हाथों-हाथ लिया गया। पाठकों की प्रतिक्रिया उतनी उत्साहजनक नहीं थी। इसके लिए उन्हें कनाडा के गवर्नर जनरल का पुरस्कार प्राप्त हुआ। ‘लाइफ़्स ऑफ़ गर्ल्स एंड वीमेन’ 1971 में आया और समीक्षकों ने इसे उनके ही जीवनवृत के रूप में देखा। इसे उनके एकमात्र उपन्यास की संज्ञा भी दी जाती है। वे मानती हैं कि यह उपन्यास नहीं है। अपनी कहानियों की कथावस्तु वे अपने जीवनानुभव से प्राप्त करती हैं और इस बात को वे खुले दिल से स्वीकार भी करती हैं। उनका कहना है कि हमेशा यथार्थ में कहानी का शुरुआती बिंदु होता है। उनकी कहानियाँ अधिकतर वास्तविक जीवन से प्रारंभ होती हैं।

एलिस ने समय-समय पर अपने संस्मरण लिखे हैं। इन संस्मरणों और उनकी कहानियों में बहुत अधिक साम्यता है। वे खुद कहती हैं कि उन्होंने अपने जीवन के अंशों को सदा अपने लिखन की कथावस्तु बनाया है और उनकी अंतिम किताब ‘डीयर लाइफ़’ में उन्होंने इस सत्य को पूरी तरह से अपनी चारों कहानियों में उतार दिया है। इसी तरह उनके कहानी संग्रह ‘द व्यू फ़्रॉम कैसल रॉक’ उनके परिवार की कहानी है। इन कहानियों के लिए शोध करते समय उन्हें यह जान कर बहुत आश्चर्य हुआ कि उनके परिवार में पीढ़ियों से लोग लिखने का काम करते आए थे। उनके अनुसार स्कॉटिश लोग कितने भी गरीब हों या अमीर हों वे लिखना-पढ़ना अवश्य सीखते हैं। मगर जब उन्होंने लिखना शुरु किया था तब उन्हें अपने परिवार की यह विशेषता ज्ञात नहीं थी।

दूसरे संग्रह ‘लाइफ़्स ऑफ़ गर्ल्स एंड वीमेन’ ने उन्हें वृहत्तर पाठक वर्ग दिया और समीक्षकों ने स्वीकारा कि एक महत्वपूर्ण प्रतिभा का उदय हुआ है। तब से लगातार उनके कहानी संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं, 1978 में ‘हू डू यू थिंक यू आर?’, 1982 में ‘द मून्स ऑफ़ जूपिटर’, 1990 में आए ‘फ़्रैंड ऑफ़ माई यूथ’ के साथ वे अटलांटिक के दोनों ओर पढ़ी-जानी जाने लगीं। लंदन के संडे टाइम्स के पीटर केम्प ने उनके लिए कहा कि वे मनुष्य प्रकृति को लिपिबद्ध करने में अद्वितीय हैं। 1998 में ‘द लव ऑफ़ अ गुड वूमन’ प्रकाशित हुआ जिसे नेशनल बुक क्रिटिक सर्किल अवार्ड प्राप्त हुआ। 2001 में ‘हेटशिप, फ़्रैंडशिप, कोर्टशिप, लवशिप, मैरेज’, 2003 में आया ‘रनअवे’, 2006 में ‘द व्यू फ़्रॉम केसल रॉक’, फ़िर 2009 में ‘टू मच हैप्पीनेस’ प्रकाशित हुआ और पिछले साल 2012 में उनके अनुसार उनका अंतिम संग्रह ‘डीयर लाइफ़’ प्रकाशित हुआ है। उन्हें कनाडा के गवर्नर जनरल का पुरस्कार तीन बार प्राप्त हुआ।

एलिस मनरो - छोटे शहर की बड़ी कहानीकार
मनरो को काफी उम्र बीतने पर नोबल पुरस्कार मिला था

नोबेल समिति के स्थाई प्रमुख सचिव पीटर इंग्लंड ने निर्णायकों के विचारों को प्रस्तुत करते हुए कहा कि एलिस ने कहानी विधा चुनी है जो उपन्यास की छाया में रहने के कारण तनिक पीछे रहती आई है, और एलिस मनरो ने इस विधा को सर्वोकृष्टता के साथ साधा है। इसी तरह 1996 में आए संग्रह ‘सलेक्टेड स्टोरीज’ के लिए एलिस की प्रशंसा करते हुए हेरॉल्ड ब्लूम कहते हैं कि उन्हें इस बात का सटीक ज्ञान है कि पुरुष और स्त्री को क्या विभाजित करता है।

एलिस शादी के पहले ओण्टारियो में रह रहीं थीं फ़िर वे ब्रिटिश कोलम्बिया में रहने लगी, लेकिन बाद में वे फ़िर ओण्टारिओ वापस आ गईं। उन्हें प्रवास रास नहीं आया। उनकी कहानियों में भी यह घर से दूर जाना और वापस आना देखा जा सकता है। खासकर ‘वॉकर ब्रदर्स काउब्वॉय’ और ‘इमेजेज’ में घर से विदाई और वापस घर आना बहुत स्पष्टता के साथ रेखांकित किया जा सकता है। इन कहानियों में बेटी पिता के साथ एडवेंचर्स के लिए बाहर जाती है, जबकि माँ घर पर ही रह जाती है। लेकिन सदैव ऐसा नहीं होता है। उनकी कहानी ‘द पीस ऑफ़ यूट्रेक्ट’ में प्रक्रिया ठीक इससे उल्टी चलती है। इस कहानी में माँ मर चुकी है और बेटी घर वापस लौटती है।

इस कहानी के विषय में बोलते हुए वे स्वयं कहती हैं कि यह उनकी अपनी माँ की कहानी है। लाइलाज बीमारी से ग्रसित माता-पिता संबंधों में तनाव ला देते हैं। बीस साल तक उनकी माँ पार्किंसन बीमारी से प्रभावित थीं, अत: माँ की बीमारी, उनकी मृत्यु और उनके बीच तनाव यह सब इस कहानी में आया है। यह सब उनके लिए जीवन में भी बहुत महत्वपूर्ण था और यह कहानी उन्होंने वास्तव में अपनी माँ पर लिखी। ‘द पीस ऑफ़ यूट्रेक्ट’ को वे अपनी पहली यथार्थ कहानी मानती हैं जो, उन्होंने अपनी माँ और अपने संबंधों के बदलते रिश्तों को ले कर लिखी। यह एक माँ की मृत्यु के विषय पर लिखी गई कहानी है। यह कहानी उनके संग्रह ‘डॉन्स ऑफ़ द हैप्पी शेड्स’ में संकलित है।

एलिस की माँ की मृत्यु 1959 में हुई थी यह उनके जीवन की एक बड़ी घटना थी। उनकी कहानियों की माँ निरंतर काम करने वाली, घर के पुराने कपड़ों को काट-छाँट कर अपनी बेटी के लिए कपड़े सिलने के जुगाड़ में रहने वाली परंतु बेटी के लिए तनाव का कारण होती हैं। जिससे बेटी का पीछा कभी नहीं छूटता है। कहानियों की माँ हाउसकीपर, गरीबी में पिसती हुई मगर स्वतंत्र स्वभाव की, गर्वीली स्त्री होती है। कथावाचक अक्सर माँ को लेकर मिश्रित भावनाओं से भरी होती है, उसके मन में माँ को ले कर गर्व, चिंता और अपराधबोधहोता है। माँ के लिए उसके मन में ललक होती है। उसे सपने में भी मरी हुई माँ बराबर दिखाई देती है। मगर सपने की माँ भली-चंगी होती है और वह बेटी को देखने आई हुई होती है।

1994 में द पेरिस रिव्यू में उनका साक्षात्कार प्रकाशित हुआ, उसमें उन्होंने बताया कि मेरी माँ मृत्यु के पहले भी मेरे लिए प्रमुख थीं और मरने के बाद भी मेरे जीवन में प्रमुख व्यक्ति हैं। इसका कारण बताते हुए वे कहती हैं क्योंकि उनकी माँ की जिंदगी बहुत उदास और गलत थी लेकिन वे बहुत बहादुर औरत थीं। साथ ही वे अपनी माँ से हमेशा संघर्ष करती रहीं, तब से जब वे सात साल की थीं और उनकी माँ चाहती थीं कि एलिस संडे-स्कूल में गाना गाएँ, कॉयर ग्रुप में शामिल हों। उनकी माँ जिस बरताव की अपेक्षा उनसे करती थीं वह एलिस को रास नहीं आता था।

एलिस मनरो की कहानियों में बार-बार लेखिका या कलाकार स्त्री आती है मगर यह लेखिका या कलाकार स्त्री अक्सर अपने काम को ले कर बहुत आश्वस्त नहीं होती है, फ़िर भी अपना काम करती जाती है। ये स्त्रियाँ बुद्धिमान और जीवंत प्रकृति की हैं। इनका लालन-पालन स्कॉटिस-आइरिश प्रोटेस्टेंट धर्म के दमित वातावरण में होता है और इसी कारण इनके भीतर तनाव और द्वंद्व उत्पन्न होता रहता है। वे एक ओर तो आत्मनिर्भरता रहना चाहती हैं, स्वतंत्रता चाहती हैं, दूसरी ओर घर-परिवार के दायित्व से बँधी रहती हैं। लिखने की ललक और परिवार का दायित्व उन्हें दो भिन्न दिशाओं में खींचता रहता है। ग्रामीण परिवेश स्त्री को लेखन जैसा कार्य करते स्वीकार नहीं करना चाहता है अत: स्त्री के मन में भी इस बात को ले कर संशय रहता है।

दक्षिण ओण्टारियो के जीवन की क्रूरता, सीमित-संकुचित नजरिए वाला ग्रामीण समुदाय, लोगों के विश्वास, गरीबी, वहाँ का सामाजिक जीवन प्रमुखता से उनकी कहानियों में आता है। उनका बचपन दरिद्रता में बीता था जिसे वे कभी न भुला पाईं। उनकी शुरुआती कहानियों में एक बच्ची वयस्कों के समझ में न आने वाले व्यवहारों को बहुत बारीकी से देखती है। बीच की कहानियाँ साठ के दशक की सामाजिक उथल-पुथल, नारीवादी चेतना के उदय और युवा लड़की और उसके परेशानी भरे वैवाहिक जीवन को वे अपनी परेशानियों में पिरोती हैं।

वे खुद मानती हैं कि बीस साल तक कनाडा के पश्चिमी तट पर, ब्रिटिश कोलम्बिया में रहने के बाद भी वे उस जगह के जीवन के बारें में कुछ खास नहीं जानती हैं। इस दौरान की उनकी कहानियाँ ‘समथिंग आईहैव बीन मीनिंग टू टेल यू’ में संग्रहित हैं। उन्हें वैंकूवर और विक्टोरिया में रहते हुए सदा लगता था कि उन्हें मरने के लिए वापस घर जाना है, क्योंकि पश्चिमी तट पर जिंदगी वास्तव में वैसी नहीं थी जिसकी वे आदी थीं।

1978 में आया संग्रह ‘ हू डू यू थिंक यू आर?’ जो बाद में ‘द बैगर मैड’ नाम से भी प्रकाशित हुआ, की कहानियाँ ओण्टारियों वापस आने के साथ समाप्त होती हैं। उनका मानना है कि वे वही लिखती जहाँ उनका जीवन है। ‘समथिंग आई हैव बीन मीनिंग टू टेल यू’ के बाद उन्हें एक साल के लिए बेस्टर्न ओण्टारियो विश्वविद्यालय में राइटर-इन-रेसीडेंट का पद मिला था। वे अपने पति जेम्स मनरो और बाइस साल के वैवाहिक जीवन को छोड़ कर लौटी थीं, इसे बाद में वे अपने एक पात्र के मुँह से कहलवाती हैं कि उसने वैवाहिक घर से एक लम्बी आवश्यक यात्रा की है।

उनके पति विक्टोरिया उसी घर में रह गए थे। उस समय उनकी बेटी शैला बीस साल की थी, जेनी सत्रह की और एंड्रिया मात्र सात साल की थी। यदि बड़ी बेटी बड़ी और आत्मनिर्भर हो चुकी थी तो छोटी आत्मनिर्भर नहीं हुई थी, उसे देखभाल की जरूरत थी। एलिस बहुत तनाव और चिंता में थीं, खासकर एंड्रिया को ले कर। उनके सामने भविष्य की कोई निश्चित योजना नहीं थी मगर उन्होंने वह स्थान छोड़ने का मन बना लिया था। एलिस ने घर लौटने का निश्चय कर लिया था और वे घर लौट आई थीं। दो दशक दूर रहने के बाद भी ओण्टारियो उनका घर था जहाँ वे अपनापन अनुभव करती थीं।

उनकी कहानियों में माँ शिद्दत से आती है मगर पिता भी यहाँ उपस्थित हैं। एलिस की कहानियों के पिता मजबूत, साहसी, मेहनती हैं और कठिनाइयों को वे हास्य में बदलने का माद्दा रखते हैं। उदाहरण स्वरूप ‘वॉकर ब्रदर्स काउब्वॉय’ के बेन जोर्डन या ‘द स्टोन इन द फ़ील्ड’ के फ़्लेमिंग को देखा जा सकता है। ये पिता बुद्धिमान हैं और इन्हें भाषा से प्रेम है, इस दृष्टि से ‘रॉयल बीटिंग्स’ में रोज का पिता और ‘द मून्स ऑफ़ जूपिटर’ के कथावाचक के पिता को देखा जा सकता है। ‘द मून्स ऑफ़ जूपिटर’ का प्रकाशन एलिस के पिता की मृत्यु के दो वर्ष बाद हुआ था। वे पारिवारिक जीवन की बहुत अच्छी चितेरी हैं।

उनका लालन-पालन एक छोटे शहर या यूँ कहें कि ग्रामीण परिवेश में हुआ था। जहाँ लोगों का विश्वास था कि सबसे खराब बात है अपने प्रति दूसरों का ध्यान आकर्षित करना या सोचना कि आप स्मार्ट हैं। लोग मानते थे कि यदि आप ऐसा करते हैं तो इसकी सजा आपको अवश्य मिलेगी। इसीलिए वे खुद भी सदा लो प्रोफ़ाइल में रहीं। उनके परिचितों में से शायद ही कोई लड़की कॉलेज गई, बहुत थोड़े से लड़कों को यह अवसर मिला। वे लोग गरीब थे मगर किताबें सदा उनके आस-पास उपलब्ध थीं। यही महानगर या बड़े शहरों से दूर का वातावरण और पात्र उनकी कहानियों में हर बार आते हैं।

अपने यहाँ के लोगों, खासकर पिछली पीढ़ी के लोगों की प्रकृति बताते हुए ‘स्टोरीज अबाउट स्टोरीटेलर्स’ की भूमिका में वे लिखती हैं कि कुछ लोग फ़ेमस हैं, लगता है कि वे सदा जानते थे कि वे प्रसिद्ध होंगे। दूसरे इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि वे प्रसिद्ध हैं। इस बात की पुष्टि के लिए वे कोष्ठक में लिखती है कि अधिकतर ये लोग कनैडियन्स है और 50 साल से ऊपर के हैं। वे हमेशा खुद को बड़े गर्व से छोटे शहर साउथवेस्ट ओण्टारियो की ऐसी स्त्री कहती हैं जिसका बचपन गरीबी में गुजरा हैं। पुरस्कारों-समारोहों में वे शांत-चुपचाप बैठी रहती हैं।

जब एलिस मनरो से पूछा गया कि क्या वे नारीवादी रचनाकार हैं? तो उनका उत्तर था उन्होंने कभी यह बनने की बात नहीं सोची। मगर वे इस बात को पक्के तौर पर नहीं जानती हैं। न ही उस तरह से सोच कर लिखती हैं। उनके अनुसार पुरुष होना भी बहुत कठिन है, परिवार पालना आसान नहीं है। अपने प्रिय रचनाकार के विषय में बताते हुए वे कहती हैं कि वे यूडोरा वेल्टी (1909-2001) की प्रशंसक हैं, मगर कभी उसकी नकल की कोशिश उन्होंने नहीं की, वे ऐसा कर भी नहीं सकती हैं क्योंकि वेल्टी बहुत अच्छी और खास निजी शैली की लेखिका है।

एलिस ‘द गोल्डन एप्पल्स’ को वेल्टी बेहतरीन काम मानती हैं। यूडोरा वेल्टी अमेरिका की लेखिका है और वे अपनी कहानियों और उपन्यासों में ग्रामीण जीवन को उकेरती हैं, उन्हें 1972 में ‘द ओप्टिमिस्ट्स डॉटर’ के लिए पुलित्ज़र पुरस्कार प्राप्त हुआ था। वेल्टी की भाँति ग्रामीण जीवन पर लिखने वाली मनरो की कई कहानियों का नाट्य रूपांतरण हुआ है और उनके कहानी संग्रह ‘हेटशिप, फ़्रैंडशिप, कोर्टशिप, लवशिप, मैरेज’ पर साहार पोली के निर्देशन में ‘अवे फ़्रॉम हर फ़्रॉम’ नामक एक फ़िल्म भी बनी है।

एलिस मनरो लम्बी कहानियाँ लिखती हैं मगर कहीं भी पाठक को अपने बौद्धिक आतंक से डराना नहीं चाहती हैं। उनके लेखन में चरित्रों का केंद्रीय कार्य कहानी कहना होता है। एलिस के लिए लिखना जादू और प्रेम का कार्य है। परंतु प्रेम अक्सर उनके प्रमुख पात्र की लेखन क्षमता को बाधित करता है और इस तरह उसकी पहचान को भी खतरे में डालता है। मनरो की एक विशेषता उनका भाषा प्रेम है। चुन-चुन कर वाक्य लिखना, तरह-तरह से वाक्य लिखना उनकी खासियत है। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे कठिन भाषा लिखती हैं, उनकी भाषा बड़ी सरल और सरस तथा दृश्यात्मक है।

अक्सर उनकी कहानियों का अंत अनिश्चित होता है, यथार्थ और कल्पना के बीच, मानो खुले आकाश में लहराते हुए पुल हों। वे खुद कहती हैं, “मैं चाहती हूँ कि कहानियाँ खुली हों। लोग जो जानना चाहते हैं, मैं उसे चुनौती देना चाहती हूँ। या जो जानने की आशा करते हैं। या जिसका पूर्वानुमान करते हैं। और पक्के तौर पर जो मैं सोचती हूँ कि मैं जानती हूँ।” ऐसी कहानीकार को पढ़ना और उनकी कहानियों से अपेक्षा करना दुनिया भर के पाठकों को रास आता है। आज एलिस मनरो की कहानियाँ इंग्लिश के अलावा फ़्रेंच, स्पेनिश, स्वीडिश, जर्मन भाषा में उपलब्ध हैं।

विजय शर्मा पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर तथा हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी व राँची एकेडमिक स्टॉफ कॉलेज की विजटिंग प्रोफेसर रही हैं। हिंदी की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, आलेख, पुस्तक-समीक्षा, फिल्म समीक्षा व अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। 

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