महादेवी वर्मा की रचनात्मकता एवं हिंदी नवजागरण की भाव-भूमि

महादेवी वर्मा की रचनात्मकता एवं हिंदी नवजागरण की भाव-भूमि

अभिषेक सौरभ

आधुनिक हिंदी कविता में छायावाद अपनी विशेष काव्यात्मक समृद्धि, दार्शनिक गंभीरता, शिल्पगत नवीनता, स्वाधीनता की चेतना, सौन्दर्य चित्रण एवं मानवीय उर्जाप्रद संवेदनशीलता के लिए उल्लेखनीय है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद एवं सुमित्रानंदन पंत जैसे कवियों के साथ, आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करती हुईं महादेवी वर्मा कवयित्री के बतौर छायावाद के आधार स्तम्भों में सम्मिलित रही हैं।

एक रचनाकार के रूप में महादेवी वर्मा ने श्रेष्ठ रेखाचित्रों, संस्मरणों, सामाजिक लेखों और कविताओं की जो सर्जना की है, वह रचनायें प्रतिफलित भाव से महादेवी वर्मा के लिए हिंदी साहित्य-जगत एवं वैचारिकी के क्षेत्र में चिरकाल के लिए अद्वितीय यश की प्राण-प्रतिष्ठा सुनिश्चित करती हैं। छायावादी काव्य में अपनी अनुभूति की सूक्ष्मता, चिंतन की गम्भीरता, करुणा, प्रेम, रहस्य, भावुकता एवं लयात्मक-गीतात्मक चेतना के कारण महादेवी वर्मा एक विशिष्ट व्यक्तित्व प्राप्त करती हैं।

उन्नीसवीं-बीसवीं सदी का नवजागरण और स्त्री मुक्ति के प्रश्न

गौरतलब है कि उन्नीसवीं-बीसवीं सदी की नवजागरण के दौरान उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भी सामाजिक सुधार के प्रयासों में जहाँ स्त्रियों की दशा में सुधार से सम्बंधित मुद्दे प्रमुख थे, वहीं इस दौर की साहित्यिक रचनाओं में भी स्त्री की समस्याओं पर आधारित रचनाएँ सराही जाने लगी थी एवं प्रकाशित व पुरस्कृत भी होने लगीं थी।

इस दौर में बांग्ला, दक्षिण भारतीय एवं मराठी नवजागरण की तरह हिंदी नवजागरण के केंद्र में भी देशजता के गुणों की तरफ झुकाव, अन्धविश्वास एवं सामाजिक कुप्रथाओं के नकार का भाव, स्त्री-पुरुष समता पर जोर, मानवीयता, स्त्री एवं दलित उत्थान के लिए प्रयत्नशीलता, वैज्ञानिकता-तार्किकता की ओर बढ़ते कदम तथा राष्ट्रीय भावना के जनसंचार को प्रमुखता से इंगित किया जा सकता है। नवजागरण के दौरान ही उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से एवं बीसवीं सदी के शुरूआती दौर में स्त्री-लेखन को सहेजने की कोशिश भी प्रारम्भ हो चुकी थी।

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स्त्री-मुक्ति, स्त्री-शिक्षा व अन्य बहुतेरे स्त्री-प्रश्नों के प्रति गंभीरता, स्त्री-जागरण के प्रति प्रबल समर्थन का भाव; नवजागरण के अधिकांशत: पुरुष एवं स्त्री उन्नायकों के विचारों के केंद्र में था, जिसपर नवजागरण-कालीन चेतना की स्पष्ट छाप थी। हिंदी पट्टी में इस दौर में स्त्री-रचनात्मकता की भी एक उल्लेखनीय स्वर महसूस की जाने लगी थी। इस दौर की स्त्री-रचनाकारों द्वारा गद्य-लेखन सह पद्य-लेखन की कड़ी में एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण नाम जो हिंदी के साहित्यिक पटल पर उभरकर आता है; वह नाम है- महादेवी वर्मा का।

महादेवी वर्मा कथेतर गद्य-साहित्य (खासकर संस्मरण और रेखाचित्र) के लेखन के साथ-साथ भारत में स्त्री-विमर्श की प्रारम्भिक सैद्धांतिकी तैयार करने के लिए भी विशेष रूप से जानी जाती हैं। उनके रेखाचित्र ‘अतीत के चलचित्र’ (1941) और ‘स्मृति की रेखाएँ’ (1943) में प्रकाशित हुए। रेखाचित्रों के क्षेत्र में महादेवी वर्मा, स्त्री-लेखन ही नहीं समूचे हिंदी साहित्येतिहास में अद्वितीय हैं। उनकी सर्जनात्मक भाषा ठोस यथार्थ और करुणा से मिलकर एक अद्भुत संसार रच देती है। प्राय: स्वयं को लेकर एक प्रच्छन्न विनोद की धारा भी उनकी रचनाओं में अन्दर-ही-अन्दर बहती रहती है।

नवजागरण के ज्ञानबोध ने स्त्री को भी नया स्वर दिया

नवजागरण के दौरान नये ज्ञानबोध ने स्त्री को नए सिरे से अपनी ओर देखने पहचानने तथा परिवर्तनकामी स्त्री-लेखन में प्रवृत्त होने की ताकत दी। आधुनिक काल में महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक एवं सांस्कृतिक मसलों पर स्त्रियों द्वारा रचनात्मक हस्तक्षेप की बुनियाद भी इसी दौर में पड़नी शुरू हुई। तब से लेकर आज तक स्त्री-लेखन ने निस्संदेह एक लम्बी, सकारात्मक तथा सर्जनात्मक यात्रा तय की है तथा जो आज भी निरंतर जारी है, उस स्त्री-रचनात्मकता की पुरखिनों में एक नाम महादेवी वर्मा का भी निश्चित तौर पर शामिल है।

समकालीन स्त्रीवादी आलोचक रोहिणी अग्रवाल स्त्री-लेखन के उद्देश्य पर विचार करती हुई अपनी आलेख ‘सवालों का कठघरा और इक्कीसवीं सदी का स्त्री लेखन’ में लिखती हैं कि- “स्त्री लेखन स्त्री की मानवीय अस्मिता के लिए लड़ी जाने वाली वैचारिक लड़ाई है। इसका अभिप्रेत पुरुष को पछाड़कर अपने वर्चस्व का परचम फहराना नहीं, बल्कि समाज में स्त्री-पुरुष के लैंगिक विभाजन और पहचान पर आधारित पितृसत्तात्मक व्यवस्था का कोई बेहतर समतामूलक मानवीय विकल्प खोजना है।

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यह एक सर्जनात्मक आन्दोलन है जो स्त्री-पुरुष दोनों को बद्ध भूमिकाओं और रूढ़ छवियों से मुक्त कर आत्मविश्लेषण एवं आत्मपरिष्कार का संवेदनात्मक आधार देता है।” इक्कीसवीं सदी के स्त्री-लेखन के बारे में रोहिणी अग्रवाल जो यहाँ मंतव्य रख रही हैं वो समय-काल के बन्धनों से मुक्त होकर स्त्री-लेखन के सार्वकालिक उद्देश्यों की प्रतिपूर्ति करने में सक्षम है।

बीसवीं सदी की पूर्वार्द्ध के वर्षों में स्त्री-रचनात्मकता पर पुरुष आलोचकों और साहित्यकारों द्वारा जो सबसे ज्यादा प्रश्न-चिन्ह लगाया गया, वह प्रश्न उनकी रचनाओं में भावुकता की प्रधानता को लेकर था। भावुकता का आक्षेप लगाकर कहा यह गया कि स्त्री-रचनाकारों की रचनाएँ दोयम दर्जे की हैं। जबकि स्त्रियाँ ‘भावुकता’ को एक रणनीति के तौर पर अपनी रचनाओं में लाती हैं और अपने को एक अभिकर्त्ता (एजेंसी) के रूप में स्थापित करती हैं।

स्त्री रचनाकारों की भावुकता कमजोरी नहीं बौद्धिक रणनीति है

स्त्री रचनाकारों की भावुकता में उनकी कमजोरी का पुट नहीं बल्कि उनकी संवेदनशीलता की झलक है जो कि एक रचनाकार के लिए अत्यंत आवश्यक और अपरिहार्य गुण है। कोई रचनाकार बिना इस अपरिहार्य तत्त्व-गुण के कदापि किसी श्रेष्ठ साहित्य की रचना नहीं कर सकता है। भावुकता की यह संवेदनशीलता जो कि रचनाकार को उत्तम रचना के लिए प्रवृत्त करती है ; गलदश्रु-भावुकता से सर्वथा भिन्न है जहाँ कि आँसुओं का धुंधलापन सारी रचनात्मक-ऊर्जा को बस एक करुण-क्रंदन भर में बदल कर रख देती है।

क्रौंच-वध के उपरांत आदिकवि वाल्मीकि के मुख से वह प्रथम साहित्यिक-श्लोक भावनात्मक संवेदनशीलता के वशीभूत होकर ही तो बरबस निकल पड़ा था। सुजान क्लार्क की ‘सेंटीमेंटल मॉडर्निज़्म’ शीर्षक पुस्तक में भावुकता और आधुनिकता के मध्य पारस्परिक सम्बन्ध को विश्लेषित करते हुए यह भाव अभिव्यक्त किया गया है कि, ” स्त्रीवाद को एक उत्तर-आधुनिक पहचान की आवश्यकता है।”

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स्त्रीवाद की यह उत्तर-आधुनिक पहचान उन्नीसवीं शताब्दी की भावुक रचनाकारों और बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की आधुनिक स्त्रियों में आपस में एक गहरा सम्बन्ध स्थापित करती है। ये दोनों ही लिखकर अपने आपको विविध विषयों के माध्यम से अभिव्यक्त करती हैं, लिंग और जेंडर के परे अपने आपको स्वतंत्र निकाय के रूप में पहचनवाने की कोशिश करती हैं। सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा और उस दौर में रचनारत अन्य कवयित्रियों की अनेक कविताएँ, भावुक कविताओं की पुनर्व्याख्या करने के लिए हमें विवश करती हैं। उनकी कविताओं में भावुकता को बतौर स्ट्रेटज़ी हम स्पष्टतया देख सकते हैं।

यह ‘भावुकता’ पितृसत्ता और तयशुदा व्यवस्था के भीतर अपनी निज की पायी हुयी स्वाधीनता की रक्षा करने की बौद्धिक रणनीति है। भावुकता और विनम्रता उनकी रचनाओं में प्रतिरोध के औजार स्वरुप हैं। मसलन तोरन देवी शुक्ल ‘लली’ की एक कविता ‘जागृति’ में यह विनम्रता ही वो नीति है, जो पितृसत्तात्मक समाज से उन्हें सहज में सवाल कर सकने की और इशारों ही इशारों में उन्हें कड़ाई से सचेत कर सकने की सहूलियत प्रदान करती है। ‘जागृति’ शीर्षक कविता के कुछ अंश यहाँ उद्धृत हैं –

कहो बन्धु ! अब क्या कहते हो,
कब तक मुक्त करोगे ?
इस घूँघट की कड़ियों से।
हम दुर्बल दीन मलीन हुईं, सुख शांति स्वास्थ्य बलहीन हुईं।
हा ! परदे ही परदे में –
मिलती अंतिम घड़ियों से।
क्या शान्ति चाहते हो तुम, गृहिणी गण को फुसलाकर ?
बन्धन कैसे रख लोगे, उस क्षण भी उन्हें भुला कर ?
जब प्रतिहिंसा का भाव उठेगा –
झूम सभी हृदयों से।…

साहित्येतिहासकार आलोचक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के मत से, ‘महादेवी वर्मा की कविता में उनके निजी जीवन की व्यथा है तो उनके गद्य में सामाजिक जीवन की। निजी जीवन की व्यथा का आधार भी सामाजिक ही होता है।’ व्यक्तिवाद, दुखवाद, करुणा एवं विद्रोह के अतिरिक्त भावुकता का स्वर महादेवी वर्मा की कविताओं में प्रमुखता से विद्यमान है और यह लेखकीय सक्षमता तथा एक स्त्री रचनाकार की सशक्तता को प्रतिबिंबित करने के अर्थोपाय हैं ना कि गलदश्रु भावुकता की बानगी भर हैं !

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महादेवी वर्मा की कविताओं में प्राय: वियोग और अनुभूति का एक मीठा किन्तु मादक नहीं अपितु निर्मल जल सा सादा सम्मिश्रण पाया जाता है, जो भावुकता की संजीवनी-युक्त एहसास से स्पर्श पाकर अत्यंत मधुर और संगीतमय स्वरुप में ढल जाता है। ऐसी कविताएँ कठोर ह्रदय को भी भावुकता से ओत-प्रोत कर देने में तथा इंगित चरित्र के अंतस में सहज मानवीय रूपांतरण कर सकने में सक्षम हैं। ऐसी ही उनकी एक कविता है ‘जो तुम आ जाते एक बार’ शीर्षक से, जिसके कुछ अंश यहाँ उद्धृत हैं –

जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा कितने सन्देश, पथ में बिछ जाते बन पराग,
जाता प्राणों का तार-तार, अनुराग भरा उन्माद राग ;
आँसू लेते वे पद पखार,
हँस उठते पल में आर्द्र नैन, धुल जाता ओंठों से विषाद,
छा जाता जीवन में वसन्त; लुट जाता चिर संचित विराग;
आँखें देतीं सर्वस्व वार !

महादेवी वर्मा के निबंधों में स्त्री जागरुकता

महादेवी वर्मा अपनी एक निबंध ‘स्त्री के अर्थ-स्वातन्त्र्य का प्रश्न’ में भारतीय स्त्री की तात्कालिक जागरूक होती अवस्था के सन्दर्भ में व्यावहारिक एवं निरपेक्ष दृष्टि से लिखती हैं, “भारतीय समाज में जिस अनुपात से स्त्री जाग्रत हो सकी, उसी के अनुसार अपनी सनातन सामाजिक स्थिति के प्रति उसमें असन्तोष भी उत्पन्न होता जा रहा है।

उस असंतोष की मात्रा जानने के लिए हमारे पास अभी कोई मापदंड है ही नहीं, अत: यह कहना कठिन है कि उसकी जागृति ने उसकी चिर-अवनत दृष्टि को जिस क्षितिज की ओर फेर दिया है, वह उजले प्रभात का सन्देश दे रहा है या शक्ति संचित करती हुई आँधी का। ऐसे असंतोष प्राय: बहुत कुछ मिटा-मिटा कर स्वयं बनते हैं और थोड़ा सा बनाकर स्वयं ही मिट जाते हैं। भविष्य को उज्जवलतम रूप देने के लिए समाज को, कभी-कभी सहस्रों वर्षों की अवधि में धीरे-धीरे एक रेखा अंकित कर बनाये हुए अतीत के चित्र पर काली तूली फेरना पड़ जाता है।”

वस्तुतः भारतीय परिवेश में स्त्री-स्वातन्त्र्य तथा स्त्री-जीवन पर एक स्त्री साहित्यकार के बतौर महादेवी वर्मा मात्र सहानुभूति की अभिव्यक्ति ही नहीं करती हैं या वह केवल भावुकता के आवेश में ही सामाजिक परिवर्त्तन का आह्वान नहीं करती हैं वरन वह एक गंभीर समाजशास्त्रीय विश्लेष्ण करती हैं, जो खासकर भारतीय स्त्रियों के लिए संरचनात्मक स्तर पर परिस्थितियों में व्यापक सुधार का पथ प्रदर्शित करती हैं।

महादेवी वर्मा तात्कालिक भारतीय समाज में व्याप्त विधवाओं की दुर्दशा, वेश्या तथा अवैध सन्तान की समस्या, अनमेल विवाह, बहु विवाह तथा सम्पूर्ण रूप से नारी की परवशता एवं उसकी दयनीय अवस्था पर ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में व्यापक रूप से तार्किक विचार प्रस्तुत करती हैं। महादेवी वर्मा स्त्रियों की स्वाधीनता के लिए उनके आर्थिक स्वावलंबन को अपरिहार्य मानती हैं तथा यह सत्य स्वीकारती हैं कि जब तक अपनी वर्तमान दुर्दशाओं एवं निम्न सामाजिक स्थितियों के विरुद्ध स्त्रियाँ स्वयं विद्रोही तेवर के साथ खड़ी नहीं होती, तब तक उसका वास्तविक उद्धार संभव नहीं है।

यद्यपि अपनी मानवीय अधिकारों और स्त्रीत्व की गरिमा को सुनिश्चित करने के लिए पितृसत्तात्मक पारंपरिक भारतीय समाज में स्त्री-जाति के विद्रोह को महादेवी वर्मा आवश्यक मानती हैं तथापि उसके केंद्र में वो प्रकृति-प्रदत्त श्रेष्ठतम मानवीय गुणों यथा- करुणा, कोमलता इत्यादि को (जो स्त्रियों की सहज थाती है) स्थापित करती हैं। इस प्रकार अपनी वैचारिकी में मूल रूप से करुणा और विद्रोह के समन्वय में ही महादेवी वर्मा भारतीय स्त्रीवाद की आधारशिला को देखती हैं।

महादेवी वर्मा के अनुसार, “स्त्री के व्यक्तित्व में कोमलता और सहानुभूति के साथ साहस तथा विवेक का एक ऐसा सामंजस्य होना आवश्यक है जिससे हृदय के सहज स्नेह की अजस्र वर्षा करते हुए भी वह किसी अन्याय को प्रश्रय न देकर उसके प्रतिकार में तत्पर रह सके। ऐसा एक भी सामाजिक प्राणी न मिलेगा जिसका जीवन माता, पत्नी, भगिनी, पुत्री आदि स्त्री के किसी न किसी रूप से प्रभावित न हुआ हो। इस दशा में उसके व्यक्तित्व को कितने गुरु उत्तरदायित्व की छाया में विकास पाना चाहिए, यह स्पष्ट है।”

वैयक्तिक लेखन से इतर महादेवी वर्मा ने संपादन का गुरुत्तर दायित्व भी बख़ूबी निभाया। 1922 में इलाहाबाद से ‘चाँद’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। प्रारम्भ में रामरख सिंह सहगल इसके संपादक हुए। बाद में महादेवी वर्मा ने ‘चाँद’ का संपादन-दायित्व संभाला। 1934 में जब महादेवी वर्मा इसकी संपादक थीं, उन्होंने ‘चाँद’ का विशेषांक, नारी आन्दोलन अंक निकाला। 1935 में उन्होंने ‘चाँद’ का विदुषी अंक निकाला।

महादेवी वर्मा ने नयी लेखिकाओं की खोज की, उन्हें ‘चाँद’ में प्रकाशित किया, महिला कवि-सम्मलेन कराये, महिला-गल्प सम्मलेन कराये और तीस के दशक में नारी चेतना को आत्म सजग करने के लिए मीरा जयन्ती मनानी शुरू की। महादेवी वर्मा ने ‘विश्ववाणी’ के ‘युद्ध अंक’ का भी संपादन किया तथा ‘साहित्यकार’ का प्रकाशन व सम्पादन किया। प्रयाग में महादेवी वर्मा ने नाट्य-संस्थान ‘रंगवाणी’ की स्थापना की।

सारांशत: यह कहना न्यायसंगत है कि आधुनिक युग की ‘मीरा’ महादेवी वर्मा रचनात्मक स्तर पर छायावाद की सूक्ष्म दार्शनिकता, विरह-वेदना, विद्रोह एवं करुणा में चिर-लीन लगती तो हैं, साथ ही; महादेवी वर्मा का यह व्यक्तिवाद, सामाजिकता की तथा उनकी एकांतिकता, संरचनात्मक बदलाव की ऐतिहासिक रूप-रेखा तैयार करने की महती सर्जनात्मकता में हिंदी-नवजागरण की तत्कालीन पीठिका से लेकर अभी वर्तमान तक एकनिष्ठ भाव से निमग्न भी प्रतीत होती हैं।

संदर्भ
  1. हिंदी साहित्य का आधा इतिहास : सुमन राजे, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2015, पृ.सं.- 299
  2. सवालों का कठघरा और इक्कीसवीं सदी का स्त्री लेखन : रोहिणी अग्रवाल; स्त्री-लेखन : सं. के. वनजा, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली, 2017, पृ.सं.-157
  3. Suzane Clarke, Sentimental Modernism : Women writers and the Revolution of the word, Indian University Press 1991
  4. स्त्री कवि संग्रह, सं. : ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ ; भूमिका एवं प्रस्तुति : गरिमा श्रीवास्तव, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2018, पृ.सं.- 09
  5. स्त्री-कवि-कौमुदी : सं. ज्योति प्रसाद मिश्र ‘निर्मल’, प्रस्तुति- बलवन्त कौर, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2014, पृ.सं.-230
  6. महादेवी रचना संचयन, सं. तिवारी, विश्वनाथ प्रसाद, साहित्य अकादमी, दिल्ली, 2012, पृष्ठ सं. 18
  7. स्त्री-कवि-कौमुदी : सं. ज्योति प्रसाद मिश्र ‘निर्मल’, प्रस्तुति- बलवन्त कौर, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2014, पृ.सं.- 273
  8. महादेवी रचना संचयन, सं. तिवारी, विश्वनाथ प्रसाद, साहित्य अकादमी, दिल्ली, 2012, पृष्ठ सं. 269
  9. महादेवी रचना संचयन, सं. तिवारी, विश्वनाथ प्रसाद, साहित्य अकादमी, दिल्ली, 2012, पृष्ठ सं. 241
  10. हिंदी साहित्य का आधा इतिहास : सुमन राजे, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2015, पृ.सं.- 285

अभिषेक सौरभ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में शोधार्थी हैं। उनसे abhisjnu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

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