महादेवी वर्मा की रचना ‘अतीत के चलचित्र’ की स्त्रियां और पितृसत्तात्मक भारतीय समाज

महादेवी वर्मा की रचना अतीत के चलचित्र

कविता मल्होत्रा

हिन्दी साहित्य में महादेवी वर्मा का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। प्रख्यात साहित्यकार होने के साथ-साथ वे चित्रकार, स्वाधीनता सेनानी और शिक्षाविद् भी रहीं। उन्होंने हिन्दी साहित्य को अपने कविता लेखन से समृद्ध तो किया ही है, जिसके कारण उनकी गणना छायावाद के महत्त्वपूर्ण स्तंभों में होती है, साथ ही उन्होंने हिन्दी साहित्य के गद्य भंडार की विभिन्न  विधाओं को भी अपनी लेखनी से समृद्ध किया है।

रेखाचित्र और संस्मरण दोनों ही विधाएँ महादेवी की कलम का स्पर्श पाकर जीवंत हो उठीं हैं। रेखाचित्र और संस्मरण साहित्य की ऐसी विधाएँ हैं, जो एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण करती रहती हैं। संस्मरण विधा में रचनाकार अपने जीवन से जुड़े व्यक्तियों और घटनाओं का स्वयं पर पड़े प्रभाव और उसकी स्मृति के अनुसार चित्रण करता है। वहीं रेखाचित्र में रचनाकार वर्ण्य विषय का संक्षेप में पूर्ण तटस्थता के साथ ऐसा शब्दांकन करता है, जिससे पाठक के सामने वर्ण्य की आकृति या दृश्य साकार हो उठता है।

महादेवी के रेखाचित्र और संस्मरण दोनों ही विधाओं की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और आपस में घुले-मिले प्रतीत होते हैं। संभवतः इसीलिए रामचंद्र तिवारी ने इन्हें ‘संस्मरणनुमा रेखाचित्र’ कहा  है। [1] कामेश्वर शरण सहाय ने इस सन्दर्भ में लिखा है, “महादेवी के स्पष्ट निर्धारित रेखाचित्रों में भी उनका निजत्व इतना लीन हो गया है कि आत्मीयता की अतिशयता से वे संस्मरण बन गये हैं। इसके विपरीत उनके संस्मरणों की रेखाचित्र में परिणति भी उतनी ही सच है।”[2]

महादेवी वर्मा के संस्मरणों में साधारण जन का जीवन संघर्ष

महादेवी वर्मा कृत महत्त्वपूर्ण संस्मरण-रेखाचित्र हैं : ‘अतीत के चलचित्र’ (1941), ‘स्मृति की रेखाएँ’ (1943), ‘पथ के साथी’ (1956), ‘मेरा परिवार’ (1972) | ‘अतीत के चलचित्र’ और ‘स्मृति की रेखाएँ’ में महादेवी ने अपने संपर्क में आए साधारण जन की विशिष्टताओं को उजागर करने के साथ उनके जीवन-संघर्ष का चित्रण किया है। ‘पथ के साथी’ में अपने समकालीन साहित्यकारों जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के स्मृति चित्र उकेरे हैं। ‘मेरा परिवार’ महादेवी की विशिष्ट कृति है, इसमें उन्होंने अपने पालतू पशुओं नीलकंठ मोर, सोना हिरणी, गिल्लू गिलहरी, दुर्मुख खरगोश आदि के साथ अपने अनुभवों का सजीव अंकन किया है।

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हिन्दी साहित्य में रचनाकारों ने बहुधा विशिष्ट व्यक्तियों जैसे नेताओं, साहित्यकारों, कलाकारों के विषय में संस्मरण लिखे हैं, इस दृष्टि से देखा जाए  तो  ‘अतीत के चलचित्र’ और ‘स्मृति की रेखाएँ’ कृतियों के विषय साधारण व्यक्ति हैं। साधारण व्यक्तियों में भी वे लोग, जो परिवार की उपेक्षा और समाज के तिरस्कार का पात्र बने हैं।

इनकी करुण कथाओं के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों और अन्याय का चेहरा भी सामने आता है। ‘अतीत के चलचित्र’ में जिन ग्यारह स्मृति चित्रों का अंकन किया गया है, वे हैं – रामा, मारवाड़ी विधवा भाभी, बिंदा, सबिया, बिट्टो, बालविधवा, घीसा, समाज में पतित कहलायी जाने वाली माता की पुत्री, अलोपीदीन, बदलू और रधिया, लछमा। महादेवी ने इन चित्रों को कोई शीर्षक नहीं दिया है, संभवतः इसीलिए ये चलचित्र के समान गतिशील प्रतीत होते हैं।

‘अतीत के चलचित्र’ के पात्र हैं : अपनी सौतेली माँ के अत्याचार से घर छोड़ कर आया बुन्देलखंडी किशोर ‘रामा’, जिसे महादेवी की माता ने अपने तीन बच्चों की देखभाल का जिम्मा सौंपा। महादेवी को सदा से एक भाभी की चाह थी, जिसकी कमी पूरी की मारवाड़ी विधवा भाभी ने। बिंदा महादेवी के बचपन की सहेली थी, जिसका जीवन उसकी विमाता ने कष्टपूर्ण बना दिया था। जीवन से कठोर संघर्ष करती सबिया, जो परिश्रम की प्रतिमूर्ति है। परिवार से उपेक्षित पैंतीस वर्षीय रोगिणी बिट्टो, जिसके भाई-भाभी उसे बोझ समझ कर चौवन वर्षीय वृद्ध से ब्याह देते हैं।

अठारह वर्षीय बिनब्याही बाल विधवा, जो समाज के भय से भी अपनी संतान का त्याग नहीं करना चाहती और महादेवी उसे संरक्षण देती हैं। गुरुभक्ति का आदर्श प्रस्तुत करता मासूम घीसा। समाज में पतित कही जाने माता की पुत्री, जिससे एक साहसी युवक ने विवाह किया, परन्तु पति की बीमारी से मृत्यु के बाद ससुराल पक्ष उसे सहारा नहीं देता, वह फिर अकेली रह जाती है। नेत्रहीन कर्मठ अलोपीदीन, जो पत्नी के धोखे का शिकार बनता है। अत्यधिक निर्धनता में जीवन व्यतीत करने वाले कुम्हार दम्पति बदलू और रधिया। कर्तव्यपरायण और सरल पहाड़ी युवती लछमा।

इन पात्रों की जिजीविषा प्रभावित करती है महादेवी वर्मा को

‘अतीत के चलचित्र’ के सभी पात्रों ने अपनी जिजीविषा से महादेवी को प्रभावित किया है और महादेवी को उनसे लगाव रहा है। महादेवी इस कृति की भूमिका में लिखती हैं, “इन संस्मरणों के आधार प्रदर्शनी की वस्तु न होकर मेरी अक्षय ममता के पात्र रहे हैं |”[3] विमाता के अत्याचारों से त्रस्त, घर से भागा रामा महादेवी समेत तीन भाई-बहनों की देखभाल कर उन पर अपना स्नेह लुटाने लगा। इस सम्बन्ध में बाधा बनी उसकी नवविवाहिता पत्नी। स्नेह का भूखा, निर्धन रामा आश्रय पाकर इतना भावविह्वल हो जाता है कि वह बच्चों की देखभाल पूरे मनोयोग से करता है।

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बच्चे उसकी नवविवाहिता पत्नी का रूखा व्यवहार भांप जाते हैं और उसे तंग करते हैं, महादेवी की माता जी उसे घर छोड़ कर गयी पत्नी के पास भेज देती हैं। इस स्मृति-चित्र में रामा बालपन की मीठी स्मृति के रूप में विद्यमान है। रामा की तरह महादेवी की बाल्य सखी बिंदा भी विमाता के अत्याचारों से त्रस्त है। इन अत्याचारों से मुक्ति उसे अपनी मृत्यु के बाद ही मिलती है। रामा के पास भागने का विकल्प था, पर बिंदा के ऐसा कोई विकल्प नहीं था। एक ओर माँ के रूप में स्त्री ममता का असीमित कोष है, वहीं इस कृति में विमाता के रूप में वह क्रूरता का प्रतीक बन कर सामने आयी है।

यह बहुप्रचलित कथन है कि माता कुमाता नहीं हो सकती। परन्तु बिंदा की नयी माँ अपने पुत्र को तो खूब प्यार करती है, परन्तु बिंदा को धूप में नंगे पैर खड़ा रखने और खम्भे से बाँधकर रखने का दंड भी देती है। यहाँ एक ही स्त्री के दो रूप सामने आते हैं। वह बालिका बिंदा से गृहिणी की सी कुशलता की अपेक्षा करती है और घर के सारे काम उससे करवाती है। कड़ी मेहनत के बाद भी बिंदा को न तो माँ का प्यार मिलता है, न ही पिता का। यदि रामा और बिंदा को अपने परिवार में समुचित स्नेह मिलता, तो उनकी यह दुर्दशा न होती।

आठ वर्षीय बालिका महादेवी को भाभी की चाहत उन्नीस वर्षीय मारवाड़ी विधवा की ओर आकर्षित करती है। उस समय समाज में प्रचलित कठोर विधानों के कारण भाभी को परिवार के अत्याचार सहने पड़ते थे। अल्पाहार का सेवन कर गृहस्थी के कार्यों में लगे रहना, अवकाश के क्षणों में अँधेरे घर में एकाकी जीवन जीना उसकी नियति बन गया था। मारवाड़ी सेठ की पुत्री जब भी मायके आती, भाभी को शारीरिक प्रताड़ना देती। दुःख के क्षणों को वह महादेवी के साहचर्य से भुलाने की कोशिश करती।

महादेवी ने उपहारस्वरूप उसे अपने हाथ से काढ़ी हुई रंगीन ओढ़नी दी, परिवार की दृष्टि में विधवा का रंगीन वस्त्र पहनना बहुत बड़ा अपराध था, जिसकी सज़ा उसे बेसुध होने तक मार-पीट कर के दी गयी। यह कैसा समाज था, जहाँ अनाथ और विधवा स्त्री के आंसू पोंछने वाला कोई नहीं था। उसके जीवन को कठोर तपश्चर्या के सांचे में ढाल दिया गया, उसकी भावनाओं और इच्छाओं का कोई मूल्य नहीं था। समाज उसे अनाथ, विधवा और स्त्री होने का इतना कठोर दंड दे रहा था।

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यही स्थिति बिट्टो, और बालविधवा माता की भी है। बिट्टो भी बालविधवा थी, जब तक उसके माता-पिता जीवित थे, वह सुख से रहती है, परन्तु माता-पिता की मृत्यु के बाद भाई-भाभी उसे बोझ समझने लगते हैं और इस बोझ से मुक्ति पाने के लिए चौवन वर्षीय वृद्ध से उसका ब्याह कर देते हैं, वृद्ध की मृत्यु के बाद बिट्टो फिर अकेली रह जाती है। देह श्रमिक की पुत्री को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए एक युवक उससे विवाह करता है, परन्तु उसकी मृत्यु के बाद अकेली विधवा युवती को ससुराल स्वीकार नहीं करता। एक अन्य बालविधवा किशोरवय में बिनब्याही माँ बन जाती है।

अबोध अकेली युवती को किसी पुरुष ने अपनी वासनापूर्ति का साधन समझा। समाज के भय से उसका परिवार उसे अपनी संतान का त्याग करने को कहता है, पर युवती तैयार नहीं होती। महादेवी उसे अपने संरक्षण में स्वीकार करती हैं। विधवा को संतान के त्याग पर विवश करने वाले समाज पर स्थिति पर महादेवी प्रश्न उठातीं हैं, “केवल इसलिए कि या तो उस वंचक समाज में फिर लौट कर गंगा-स्नान, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ आदि के द्वारा सती विधवा का स्वाँग भरती हुई और भूलों की सुविधा पा सके या किसी विधवा आश्रम में पशु के सामान नीलामी पर चढ़ कर कभी नीची, कभी ऊंची बोली पर बिके, अन्यथा एक एक बूँद विष पीकर धीरे-धीरे प्राण दे।[4]

स्त्री की दुर्दशा का कारण पुरुष नहीं पितृसत्तात्मकता थी

तत्कालीन समाज में विधवाओं का जीवन बहुत कष्टमय था। ये स्त्रियाँ न अपने मायके में सुख से रह पायीं, न ही ससुराल में। ये वृत्तान्त हमें यह सोचने पर विवश कर देते हैं कि स्त्री का वास्तविक घर कौन सा है और परिवारहीन, अनाथ स्त्री का कोई ठिकाना नहीं। स्त्रियों की इस दुर्दशा से पता चलता है कि तत्कालीन  समाज में उनका जीवन नरकतुल्य था। स्त्री की दुर्दशा का कारण केवल पुरुष ही नहीं थे, बल्कि पितृसत्तात्मक मानसिकता थी।

इस सोच के वशीभूत हो कर ननद, भाभी, विमाता के रूप में स्त्रियाँ अन्य स्त्रियों पर अत्याचार करती हैं। धन-संपत्ति पर अधिकार जमाने के लालच में विधवा स्त्रियों को ससुराल और मायके दोनों ही जगह प्रताड़ित होना पड़ता है। रीति-रिवाज़ों के नाम पर स्त्रियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया। बिट्टो के प्रसंग में पितृसत्तात्मक समाज के विषय में महादेवी वर्मा ने लिखा है, “अपनी पराजय को बलात् जय का नाम देने के लिए ही संभवतः वह अनेक विषम परिस्थितियों और संकीर्ण सामाजिक बंधनों में उसे बाँधने का प्रयास करता रहता है।

”धर्म के तथाकथित रक्षक अपने धर्म की रक्षा का सारा भार स्त्रियों पर डाल देते हैं, एक ही स्थिति में स्त्री और पुरुष – दोनों के लिए अलग-अलग नियम क्यों हैं? चौवन वर्ष का वृद्ध पैंतीस वर्षीय बालविधवा को तीसरी पत्नी के रूप में ब्याह सकता था, परन्तु बालपन में विधवा हुई स्त्री के लिए ऐसा कोई विधान नहीं था। इसी प्रकार घीसा की माँ भी विधवा होने के बाद कड़ा परिश्रम कर घीसा का पालन-पोषण करती है।

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समाज के पुरुष अकेला जान उस पर लोलुप निगाहें डालते हैं, असफल रहने पर वे घीसा के जन्म के सम्बन्ध में झूठी बातें फैलाते हैं, ताकि उसे बदनाम कर सके। पूरे गाँव का झूठ के पक्ष में खड़े रहना घीसा की माँ के सच को झुठला देता है। परिणामस्वरूप घीसा के परिवार का बहिष्कार कर दिया जाता है और हरदम उसे नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है। एक विधवा, जो स्वावलंबन का जीवन जीना चाहती है, समाज उसे सम्मान से जीने भी नहीं देता। उसके एकाकी जीवन को और कष्टमय बना देता है।

स्त्रियों को सतीत्व घुट्टी की तरह पिलाया जाता था, शायद इसीलिए परित्यक्त सबिया अपने बच्चों और सास की देखभाल के लिए कड़ा संघर्ष करती है। जब उसका पति दूसरी स्त्री के साथ वापस लौट आता है, तब भी सबिया उन दोनों की देखभाल करती है। उनकी सुख-सुविधाओं का ख्याल रखती है। वह ऐसे समाज की स्त्री है, जहाँ स्त्री से पृथ्वी की तरह सहनशील होने की अपेक्षा की जाती है, चाहे पुरुष उस पर कितने ही अत्याचार करे।

पुरुष के दोषों की कोई सज़ा नहीं, वहीं स्त्री दुःख और संघर्ष को अपने जीवन का सहज-स्वाभाविक अंग मानने लगती है। महादेवी सबिया को पौराणिक नारीत्व के निकट मानती हैं |[5] सबिया पति को सर्वस्व मानती है और उसके सुख के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहती है। वह पति के गलत आचरण का विरोध नहीं करती, न ही उसे पति और सौत से कोई शिकायत है। वह बस जीवन के संघर्ष में जुटी रहती है।

नेत्रहीन अलोपीदीन के वृत्तान्त में स्त्री का अलग ही रूप सामने आता है। परिश्रम से जीवन व्यतीत करते अलोपी की नवविवाहिता पत्नी उसकी मेहनत की कमाई लेकर भाग जाती है। जीवन संघर्ष में रत अलोपी इससे टूट जाता है और आत्मघात कर लेता है। कुँए के मेंढक की तरह जीवन बिताते बदलू कुम्हार और उसकी पत्नी रधिया का जीवन अत्यंत निर्धनता में बीतता है।

बदलू अपनी लीक से हटना नहीं चाहता और रधिया अपने कुपोषित बच्चों के साथ अभावग्रस्त जीवन में ही सामंजस्य बिठाने की कोशिश करती है। महादेवी ने इस पर टिप्पणी की है, “बदलू जिस वस्तु का प्रबंध नहीं कर सकता, वह रधिया के लिए हानिकारक हो उठती है।” [6] रधिया की मृत्यु के बाद बदलू कठोर परिश्रम कर मूर्तिकार बन जाता है।

पहाड़ी युवती लछमा का मार्मिक प्रसंग

इस कृति का अंतिम संस्मरण है, कर्मठ पहाड़ी युवती लछमा के बारे में, जो अपने बूढ़े माता-पिता, स्वर्गवासी भाभी और घर से विरक्त भाई के बच्चों की देखभाल करती है। एक मानसिक रोगी से उसका धोखे से विवाह कर दिया जाता है। पति के हिस्से की संपत्ति पर वह अधिकार न जताए, इसके लिए उसके साथ मारपीट की जाती है और उसे गड्ढे में छिपा दिया जाता है। वहां से वह किसी प्रकार बच निकलती है।

मार्ग में भूखी-प्यासी लछमा के भूख मिटाने का प्रसंग अत्यंत मार्मिक है। भूख लगने पर वह पीली मिट्टी का गोला बनाकर खाती है और अपने दिल को तसल्ली देती है कि लड्डू खाया। तीन दिन की यात्रा कर वह मायके आती है, फिर कभी ससुराल नहीं जाती। महादेवी उसे अपने साथ चल कर पढ़ने-लिखने को कहती हैं, परन्तु जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी लछमा कहती है कि दूसरे जन्म में वह अवश्य पढ़ेगी।

इन सभी पात्रों के जीवन कष्टमय रहे हैं, निर्धनता में बीते हैं, पर वे अपने कठोर परिश्रम से इन पर विजय पाने का भरसक प्रयास करते हैं। समाज में आर्थिक और सामाजिक असमानता की खाई इतनी गहरी है कि उन्हें केवल अपनी कर्मठता का ही सहारा है। महादेवी इन्हें अपने ह्रदय के अत्यंत समीप पाती हैं और वे कमज़ोर, शोषित और उपेक्षित तबके के प्रतिनिधियों के रूप में उभरकर प्रश्न करते प्रतीत होते हैं।

क्या उनके कष्टों में सभ्य कहे जाने वाले समाज की कोई भूमिका नहीं है? उनकी मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है? धर्म, जाति, जेंडर, अर्थ के आधार पर भेदभाव के भिन्न स्तर उनके जीवन को विभिन्न कुचक्रों में फंसा देते हैं। वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हो पाए, न ही सभ्य समाज की मुख्य धारा से जुड़ पाए। महादेवी वर्मा इस कृति को लेखनीबद्ध करने का लक्ष्य बताती हैं, “उनसे पाठकों का सस्ता मनोरंजन हो सके ऐसी कामना करके मैं इन क्षत-विक्षत जीवनों को खिलौनों की हाट में नहीं रखना चाहती। यदि इन अधूरी रेखाओं और धुंधले रंगों की समष्टि में किसी को अपनी छाया की एक रेखा भी मिल सके तो यह सफल है।”[7]

यह रचना 1941 में लिखी गयी थी, क्या हमारे समाज में आज भी भेदभाव अपने सभी स्तरों पर उसी तरह विद्यमान है? यदि इस प्रश्न का उत्तर हाँ है, तो निस्संदेह हमारे समाज को अब भी सुधार की आवश्यकता है। लछमा का यह कथन सभ्य समाज के गर्व को चकनाचूर करने के लिए काफी है, “हम क्या तुम्हारे जैसे आदमी हैं ? हम तो हैं जानवर – जंगली जानवर!”[8]

संदर्भ

[1] रामचंद्र तिवारी (2018), हिन्दी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी : 529

[2] कामेश्वरशरण सहाय (1982), हिन्दी का संस्मरण साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी : 41

[3] महादेवी वर्मा (1941), अतीत के चलचित्र, भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहबाद : 1

[4] महादेवी वर्मा (1941), अतीत के चलचित्र, भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहबाद : 104

[5] महादेवी वर्मा (1941), अतीत के चलचित्र, भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहबाद : 77

[6] महादेवी वर्मा (1941), अतीत के चलचित्र, भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहबाद : 184

[7] महादेवी वर्मा (1941), अतीत के चलचित्र, भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहबाद : 2

[8] महादेवी वर्मा (1941), अतीत के चलचित्र, भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहबाद : 195

यह लेख हमें भेजा है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की शोधार्थी कविता मल्होत्रा ने। उनसे kavitamalhotra16@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 

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