एकता नाहर
जो मन टूट जाता है, उसके घात का कोई अचूक उपचार नहीं होता। दुनिया तुमको मनोरोगी कहेगी और साइकोलॉजिस्ट तुमको दवाओं के पत्ते देंगे। छाती पर तुम्हारी बर्फ की चट्टान पड़ती होगी, अपने सिर पर गोली तान के खुदकुशी करने के संदेह मन में उगते होंगे और तुम सोचोगे कि जो बोया था वो तो बिलकुल अलग था।
फिर भी इस जंजाल में तुम जहां तक चलकर आए हो, वहां एक दिन और ठहरने के लिए ख़ुद को मनाओगे।
कैसे तो गला रूंध जाता है, फांस की तरह भीगी स्मृतियां अटक जाती हैं। तुमको हैरानी होगी अपने ही बारे में ये सोचकर कि महज़ प्रेम पाने के एवज में तुम ज़िंदा रहे…
फिर एक दिन इस तपती दुपहरी से जीवन में अचानक से कोई आके तुम्हारे गालों पे अपना ठंडा हाथ रख देगा, उसके साथ अपने अबोध बचपन में लौटोगे तुम… ढूंढोगे कि किस चाइल्डहुड ट्रॉमा की कंटीली झाड़ियां तुमको करती रही हैं लहूलुहान… कितनी-कितनी खरोचें मन पे, कैसे-कैसे तिलिस्मी शोर, कितने-कितने रोज इस भारी अकेलेपन में खुद को गंवाया तुमने…
किस किसको सौंपते रहे इस बेमानी सी दुनिया में… किस किस के नाम की लिखीं अर्जियां, कितने नाम बुदबुदाये…
तुम्हारे वजूद के दरख़्त को जब उसका प्रेम सींचेगा…तुम्हारी आत्मा के छाले फूट जायेंगे उसकी छुअन से। धक्क से कौंधती स्मृतियों को विरासत की तरह जो कलेजे में सहेजे रखे हो, उससे मुक्त हो जाओगे…
तब जान जाओगे कि जिस आघात का अचूक उपचार नहीं होता, उसे मृत्यु के लिए छोड़ देना बेहतर… मन में जमे ग्लेशियर को पिघलने दो आहिस्ता आहिस्ता… क्या इस वहशत भरे वक्त में इतना काफी नहीं कि कोई तुम्हारी सलामती की फिक्र करता हो…
…
मैं उसके साथ निकल आती हूँ फिर भी पीछे मुड़ मुड़ के देखती हूँ। मैंने जीवन में जो कुछ समेटा, वो अब भी छू लेने से बिखर जाता है…
एकता नाहर की शृंखला ‘बची हुई चिट्ठियाँ’ से