जय प्रकाश कर्दम की ‘मनुष्यता के साम्राज्य का नागरिक’ और अन्य कविताएं

Jai Prakash Kardam

उनकी कविताएं उन लोगों की यातना, संघर्ष, स्वप्न और जिजीविषा की सार्थक अभिव्यक्ति हैं, जो सदियों से दलित, शोषित और उपेक्षित रहें हैं तथा आज भी समाज के हाशिये पर हैं। मेरा रंग में प्रस्तुत है जाने-माने दलित साहित्यकार व चिंतक जय प्रकाश कर्दम की कविताएं। हिन्दी पट्टी में दलित साहित्य को सामने लाने, उसको स्थापित करने और परंपरागत हिन्दी साहित्य के समांतर दलित साहित्य के बुनियादी सरोकारों को उजागर करने में जिन दलित साहित्यकारों का महत्वपूर्ण योगदान है उनमें डा. जय प्रकाश कर्दम एक जाना-पहचाना नाम है। कविता, कहानी और उपन्यास लिखने के अलावा दलित समाज की वस्तुगत सच्चाइयों को सामने लानेवाली अनेक निबंध व शोध पुस्तकों की रचना व संपादन भी उन्होंने किया है।

जाति का व्याकरण

क्या तुम्हें पता है
कैसा होता है मरे हुए पशु के
माँस का स्वाद?
क्या तुम बतला सकते हो
कैसी होती है
पशु की खाल निकालते समय की गंध
क्या तुम जानती हो
कैसे रंगा और पकाया जाता है चमड़ा
कैसे चलायी जाती है
रांपी और कतरनी
बनाए जाते हैं जूते
फिर कैसे कहते हो- एक हैं
मेरी और तुम्हारी संवेदनाएँ
मेरे सत्य से काम प्रामाणिक नहीं हैं
मेरे बारे में
तुम्हारी अनुभूतियाँ
काश! खाना पड़ा होता तुमने
पेट भरने के लिए
मरे हुए पशु का माँस
ढोना पड़ा होता
सिर से चूचियाता टट्टी का टोकरा
खानी पड़ी होती मेरी तरह
दुत्कार और गालियाँ
सुनने पड़े होते
अपमानजनक सम्बोधन
तब तुम्हें पता चलता
क्या होता है
दलित होने का दर्द
कितना विकट होता है
भूख के गणित से
जाति का व्याकरण।

जन की भाषा में

मेरे दोस्त, मेरे लिए
उस भाषा में मंगल कामनाएँ मत करो
जो भ्स्शा, कभी मेरी नहीं रही
जिसके लिए रहा मैं सदैव
अंत्यज, अस्पृश्य
मेरे दोस्त, उस भाषा में
मेरी प्रशस्ति के गीत मत लिखो
जिस भाषा में लिखे गए
मेरे दमन के दस्तावेज़
जिनके तीर जैसे नकीले शब्द
बींध जाते हैं मेरे कलेजे को
कर देते हैं आहत मेरी चेतना को
आज भी
मैं अस्वीकारता हूँ
धिकारता हूँ
अपने विरोध में खड़ी उस देव भाषा को
जिसका उच्चारण करने मात्र से
काटी गयी है मेरी जिव्हा
फोड़ी गयी हैं मेरी आँखें
गर्म सलाखों से
मुझे नफ़रत है
उस भाषा के संस्कारों से
उसके शास्त्रीय सरोकारों से
उस भाषा में अभिनंदन कर
मेरा अपमान मत करो
मुझे उस भाषा में सम्बोधित कर मत बुलाओ
मैं देव नहीं जन हूँ
मुझसे जन की भाषा में बतियाओ।

मनुष्यता के साम्राज्य का नागरिक

यदि ईश्वर को मानना,
उसके प्रति आस्थावान होना
परिभाषा है आस्तिकता की
तो घोषणा करता हूं मैं डंके की चोट
आस्तिक नहीं हूं मैं
मैं नास्तिक हूं
नहीं है किसी ईश्वर, अल्लाह
या गॉड से मेरा कोई रिश्ता
अर्थहीन है मेरे लिए ईश्वर
अस्वीकार्य है मुझे ईश्वर की दृष्टि में
समानता का पाखंड
हजारों साल से
ईश्वर के साम्राज्य में
उपेक्षा, दमन और वर्जनाओं का
दंश सहता आया मैं
घोषणा करता हूं आज
अपने पूरे वजूद के साथ
ईश्वर के साम्राज्य का नागरिक नहीं हूं मैं
त्याज्य है मेरे लिए ईश्वर और उसकी दुनियां
समाज-बहिष्कृत रहा मैं सदियों से
जिस ईश्वर के साम्राज्य में
बहिष्कृत है मेरी दुनियां से आज वह ईश्वर,
उसकी दुनियां, उसके मूल्य
मेरी आस्था का केंद्र है मनुष्य
मनुष्यता है मेरे लिए सबसे बड़ा मूल्य
नागरिक हूं मैं
मनुष्यता के साम्राज्य का।

किताबें

किताबों में बोलती है दुनियां
किताबों में बसते हैं लोग
किताबों में होते हैं हम
झाँकते हैं किताबों से बाहर
ढूँढते हैं ख़ुद को।

किताबों से निकलते हैं तर्क
किताबों से निकलता है विवेक
किताबों से निकलती है वैज्ञानिकता
गिराती है आस्था के क़िले
ध्वस्त करती है धर्मांधता।

किताबों में बसते हैं विचार
किताबें सिखाती है प्रतिकार
किताबें तोड़ती हैं सन्नाटा
बनाती हैं मनुष्य
बचाती हैं मनुष्यता।

किताबें करती हैं आंदोलित
किताबें बोती हैं बदलाव के बीज
किताबें सिखाती हैं लड़ना
बनती हैं अन्याय के विरुद्ध
न्याय के हथियार।

किताबें हैं तो दुनिया है
किताबें हैं तो समाज है
किताबें हैं तो हम हैं
किताबें हैं हमारे
ज़िंदा होने का सबूत।

बेघर लोग

उनको भी प्यारी है
अपनी और अपने परिवारों की ज़िंदगी
करना चाहते हैं वे भी
सरकार के सभी आदेशों, निर्देशों का पालन
अपनी ज़िंदगी की सुरक्षा के लिए
रहना चाहते हैं अपने
घरों के अंदर
इसलिए निकल रहे हैं वे
अपने दड़बों से बाहर
लौट रहे हैं अपने
गाँव-घरों की ओर
फटे हाल, नंगे पाँव
भूख और थकान की मार झेलते
सिर पर सामान की पोटली में
अपना घर उठाए
साइकिल पर
रिक्शा-ठेले में लादकर या
हाथों से छोटे बच्चों के हाथ पकड़कर
पैदल ही
उन्हें अपने साथ घसीटते हुए
वृद्धों और बीमारों को
पीठ और कंधों पर लादे
मृत बच्चों को गोद में उठाए
कोरोना के ख़तरे का
सामना करते हुए
आँखों में कोरोना से भी अधिक
आने वाले कल की
भूख का भय लिए
गिरते, पड़ते, ठोकरें खाते
ऊपर से
पुलिस की लाठी और गालियों का
प्रसाद पाते हुए
तमाम दुःख और यातनाएँ
सहते हुए भी
तय कर रहे हैं वे
सैंकड़ों-हज़ारों किलोमीटर की दूरी
अपने घर पहुँचने की जल्दी में
महानगरों को
बनाने और बसाने वाले
बेघर लोग।

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