लड़कियाँ गौरैया होती है
फुदकती हैं एक डाल से दुसरी डाल तक
मुस्कुराती हैं अपने टेढ़े मेढ़े दांतो से
पकड़ लेती हैं अपनी चोंच में
कुछ टुकड़े अनाज के
वो आंगन सूना होता है
जिस घर नही होती हैं चिरइयाँ
वो घर खाली खाली लगता है
नही चलती ठण्डी हवायें
न ही गुनगुनाहट होती है
मधुर तोतली आवाज की
गौरैया और लड़कियाँ एक ही हैं
देखो न दोनो ही गायब हो रही हैं
धीरे धीरे अपने घोसलें से
सामने फैले नीले आसमान से…
यह कविता है समीक्षा रमा पाण्डेय की। वे इलाहाबाद से हैं और डा. हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में शोध कर रही हैं।
आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है
धन्यवाद सर
कविता लिखना तब सार्थक हो जाता हैं जब कविता कहने का तात्पर्य लोग समझ जाते हैं।
अच्छा लगा मेरी कविता को आपने जगह दी।
धन्यवाद सर