बरार जेसी (अनुवाद : अनुपमा कृति)
बरार जेसी युवा कवयित्री हैं और पंजाबी भाषा में लिखती हैं। बरार अपने पहले कविता संग्रह ‘मैं शरीफ़ लड़की नहीं हूँ’ के जरिए पंजाबी साहित्य में एक ताजी हवा के झोंके की तरह आई हैं। उनकी कविताओं में बिना किसी लाग-लपेट के सीधे दिल से निकले उद्गार हैं, जो कि पंजाबी भाषा की भी मूल विशेषता कही जा सकती है।
उनकी पहली किताब को पंजाबी साहित्य प्रेमियों का बहुत प्यार मिला अब यह किताब अंगरेजी और हिंदी में भी अनुदित हो रही है। हिंदी अनुवाद अनुपम कृति कर रहे हैं। बरार जेसी की कहानियों का एक संग्रह ‘घड़े में दबी इज़्ज़त’ जल्दी ही आ रही है। बरार पंजाब के मोगा गांव मलके की रहने वाली हैं और अभी गुरु काशी यूनिवर्सिटी में पीएचडी कर रही हैं। मेरा रंग में प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं। इनका अनुवाद किया है अनुपमा कृति ने।
1.
मैं शरीफ लड़की नहीं हूँ
मैं शरीफ़ लड़की नहीं हूँ
कविता लिखती हूँ
पर हाँ याद रखना
प्रेम कविता लिखने वाली
लड़कियां
चरित्रहीन नहीं होती
प्रेम से तुम्हारा अभिप्राय ही ग़लत है
अस्सी वर्षीय बूढ़ी दादी
जब बिना दांतों के कुछ चबाती है
तो मुझे उनसे पहली नज़र में ही
प्रेम हो जाता है
जब मेरे दुखते सिर को दबाती है माँ
तो वो महबूब हो जाती है
तुम मोहब्बत को अश्लीलता से जोड़ना
बंद करदो
वरना
हर लड़की कहेगी
‘मैं शरीफ़ लड़की नहीं हूँ’
2.
अंबिया वाला स्वेटर
उसने कहा
मैं चाहता हूँ
कि तुम मेरे लिए
अंबिया वाला स्वेटर बुनो
और मैं उसे जीवन भर
चाव से पहनूं
गर कभी ये स्वेटर
उधेड़ने की
नौबत भी आई
तो तुम उसे उधेड़ कर
वापस ऊन के गोले बना देना
फिर मेरी बेटी का नाप लेना
और एक छोटा सा स्वेटर फिर बुन देना
मैं चाहता हूँ इसी तरह
पीढ़ी दर पीढ़ी
तुम्हारे हाथों की खुशबू
महकती रहे।
3.
शरीफ़ लड़की
जब जन्म हुआ
तो मैं बिल्कुल नहीं रोई
माँ बताती है
कि मैं काम करती रहती
और तुम इतनी सीधी थी
कि भूखी होने पर भी नहीं रोती थी
अंगूठा मुँह में डालकर
बगैर दूध पीए सो जाती थी
खेलने की उम्र में
जब सब बच्चे, मेले में
खिलौनों के लिए ज़िद करते थे
मैं माँ की ऊंगली पकड़े
चुपचाप उन्हें देखती रहती थी
मुझे अच्छा लगता था
जब माँ गर्व से कहती थी
“ये नहीं करती ज़िद
बहुत सीधी है…”
थोडी बड़ी हुई तो एक अलग समाज दिखा मुझे
बस में ननिहाल आते जाते
किसी की कोहनी भी छू जाती मुझे
तो अंदर तक काँप जाती थी मैं
बस में भोली बनकर माँ से चिपककर
बैठ जाती मैं
माँ मेरे चेहरे को टकटकी लगा देखती रहती
बेटी पर विश्वास था उन्हें
पर समाज पर नहीं था
मैं भी किसी की तरफ़
आँख उठाकर नहीं देखती थी
मुझे माँ से सीधी, शरीफ़ लड़की सुनना
पसंद था
जब किशोर हुई
तो मन में अजीब भाव उठने लगे
अपना शरीर भी अलग लगने लगा
कुछ कपड़े भी कुछ कपड़ों के नीचे
सुखाने की नसीहतें देते हुए माँ ने कहा
शरीफ़ लड़कियां ऐसे खुले में नहीं
डालती कपड़े
उस रोज़ सीधे और शरीफ़ जैसे शब्दों के
अर्थ अलग लगे मुझे
और पहली बार माँ के सामने
दिल खोलने का मन किया।
मैं अब रूह के कदमों पर चलने लगी
एक रोज़ रूह तक पँहुच गयी
वहां पँहुची तो प्रेम हुआ
प्रेम हुआ तो प्रेम कविताएं लिखी
हीर, साहिबा और सोहणी
अपनी बहने लगने लगी मुझे
पर लोग कहते हैं
प्रेम करने वाली लड़कियां शरीफ़ नहीं होती
और ये शरीफ़ लड़की माँ के लिए भी
शरीफ़ ना रही।
लोग मेरी बहनों को (हीर, साहिबा, सोहती)
अब तक भी कोसते हैं
मेरी भी शरीफ़ बनने की कोई रीझ नहीं रही
हाँ ‘मैं शरीफ़ लड़की नहीं हूँ’
4.
सपनों में आना
रोज़ाना होते है तेरे बाल मेरे तकिये पर
अब छोड़ भी दो मेरे सपने में आना
सुख कर आँसू बन चुके है पत्थर
दो लफ़्ज़ बोल कर इनको पिघला देना
चुपचाप से घड़ियाँ बदल रही हैं पैर अपने
मेरे नाप की नही रही, अब तुम नए मोज़े ले आना
मेरी क़लम के आगे जो कालिख है ना
छोड़ो लिखना
तुम उसका आँखों में काजल लगा लेना
बन्द कमरे में होता हूँ ‘मैं’
यूँ ही ना भीड़ मेरे अंदर ले आना
तुम्हे बुरा लगता है शराब और मयखाना
और मुझे अच्छा नही लगता तेरा किसी के आगे सिर झुकाना
अब तकिये से पूछता हूँ तेरे एहसास के बारे में
मैं होता हूँ नींद में जब तेरा होता है आना
रोज़ाना होते है तेरे बाल मेरे तकिये पर
अब छोड़ भी दो मेरे सपने में आना
5.
वादा मत करना
कोई वादा मत करना उस मोड़ तक चलने का
मैं सफर में हूँ इम्तिहान में नही।
टूट कर बन जाऊंगी कंकर भूल जाना
हवा हूँ, टूटना मेरे ईमान में नही।