अनुराधा ‘ओस’ की कविताएं सामाजिक यथार्थ की दृष्टि का विस्तार करती हैं। वे रोजमर्रा के जीवन से स्त्रियों की छवियों को जिस तरह से अपनी कविताओं में लाती हैं, वे एक अलग तरीके से स्त्री विमर्श रचती हैं। स्त्रियां अक्सर अनुराधा की कविताओं का केंद्रीय विषय बनती हैं। वागर्थ, आजकल, अहा! जिंदगी, वनिता आदि पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। सहित्यायन मिर्ज़ापुर द्वारा ‘युवा लेखन सम्मान, डॉ दयाराम स्मृति सम्मान, सोनभद्र तथा मप्र तुलसी साहित्य अकादमी द्वारा’ तुलसी सम्मान’ कई पुरस्कार।
बारिश में भीगती लड़कियाँ
बारिश में भीगती लड़कियाँ
सोचती है
इससे पहले कपड़े शरीर पर
चिपकें
घर पहुंच जाऊँ
इससे पहले की
कई जोड़ी आँखें चिपकने लगे.
पाँव से चप्पलें
उतार कर हाथ में पकड़ लेती है
क्या पता ये चप्पलें जो हमें
सधा हुआ चाल चलने की आदत देतीं हैं
कभी कहीं फंसा न दे किसी दलदल में
और वहाँ बस मेरी चप्पलें ही मिलें
इन्ही बारिशों को
पिछले आषाढ़ -सावन में
चाय के कप पकड़ कर
घण्टों देखती थी
भीग जाते थे बूंदों के संग
मन प्राण भी
बारिश और लड़की का
गहरा नाता रहा है
उसे ऐसी ही बारिशों का सामना
हमेशा करना पड़ता है
भीगता शरीर
परिवर्तित हो जाता है पानी में
और करेजा काठ ।।
देखा है
देखा है !
अपनी ओढ़नी में
कपास के फूल को
महसूस उस हल्की
छुवन को
रूई की धुनकी की तरह
धुन रहें मन प्राण
कात-कात कर
सूत की तरह
मन को बन रहा
एक मजबूत साड़ी
तह -तह में
छिपा सकूँ कुछ न कुछ
आँचल में बांध लूँ
हल्दी अक्षत
बुरी नजर से बचाने के ।।
कभी बतियाते हैं!
कभी बतियाते हैं!
एकांत में गिरे
उस फूल से
जिसकी झड़ती पंखुरियों ने
बचाया है
न जाने कितनी मुस्कानों को
और चलना निरन्तर
उस चींटी की तरह
जिसकी जिजीविषा ने
न जाने कितनी बार
जीना सिखाया है
प्रकृति का दिया
उसे सूद समेत लौटाते हैं
जीवन से कुछ क्षण
बतायाते हैं
मूक रहकर
पर्वत की तरह, बादलों को
लिखतें हैं पत्र
नाव के काठ की
तरह पानी-पानी
हो जाते हैं
फूल सी कोमलता
हो मन मे हमारे
जितना पाया धरा से
कुछ धरा को लौटाते हैं ।
खलिहर औरतें
खलिहर औरतें
खाली बैठे-बैठे
लगा देती हैं टूटे बटन
सिल देतीं हैं फ़टी कमीज
खाली बैठे बना लेती है
तरह-तरह कर मसाले
जिनकी महक घुल जाती है
हमारे खाली जीवन मे
सालों तक,
जिनके भरोसे घर
छोड़कर जाया जा सकता है
कहीं भी
दूध की कमोरी से मलाई मथ
घी बनाना
और नीलकंठ बन
विष पी जाना
ऐसी ही तो होतीं हैं
ख़लिहर औरतें।
सुनो तुम वहीं हो न
सुनो तुम वही हो न!
जो अडिग चट्टानों को
चीर कर
शिलाओं का रस बन जाती हो
या फिर एक लड़की की
खिलखिलाहट में बदल जाती हो
शायद आदि कवि की
कविताओं से उपजी
वियोग का कोई शब्द
पहाड़ की ऊंचाई पर खड़ी
स्त्री जो खोंस लेती है
जूड़े में फूल
या हल का मूँठ पकड़ी हुए
औरत जो बो रही है बीज
जबकि आज नाम लेने पर
लगा दी जातीं हैं आपत्तियां
मैं तुम्हारी भाषा में
जानना चाहती हूँ
कैसा होता है?
नदी का प्रेम
कैसा होता है?
कैसा होता है
सांकलों का किवाड़ों से प्रेम?
या ठुकराई स्त्री का प्रेम
शायद तुम भी जीती होगी
उन शब्दों को