सुधीर विद्यार्थी
वह आठ साल की है। दुबली-पतली काया। रंगत खूब दबी हुई। नाम है अफसाना। पश्चिम बंगाल के बर्नपुर में रहमतनगर की रहने वाली। बर्नपुर के अब्दुल बारी रोड पर सवेरे साढ़े छःह बजे उसने अपनी पुरानी साइकिल पर बिक्री के लिए तिरंगे सजा लिए हैं।
बरसात अभी थमी ही है और सड़कें भीगी हैं। हम बारी मैदान देखकर लौटे हैं जहां स्वतंत्रता दिवस के जलसे की तैयारियां चल रही है। इस मैदान की नई चहारदीवारी बना कर एक बड़ा-सा दरवाजा लगा दिया गया है, लेकिन बर्नपुर टाउन पूजा मंदिर के परिसर का भी एक गेट इसके भीतर की तरफ खुलता है। ऐसे में मंदिर इस मैदान का बेरोक-टोक उपयोग कर सकता है।
अफसाना को पता है कि आज पन्द्रह अगस्त है और इस दिन दोपहर तक अगर राष्ट्रीय झंडे थोड़े भी बिक गए तो उसके हाथों में मुनाफे के कुछ पैसे आ जाएंगे। वह आने वाले बच्चों और लोगों की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखती है।
अफसाना के साथ एक और लड़की है जो ज़मीन पर झुकी हुई थैले से झंडे निकालने में मशगूल है। वह उम्र में तीन-चार साल बड़ी होगी अफसाना से। पूछने पर बताती है कि उसका नाम मुन्नी खातून है और ये छोटी अफसाना उसकी चचेरी बहन है जो असम से उसके घर आई हुई है।
इनके लिए पन्द्रह अगस्त का मतलब वही नहीं है जो सामने अच्छी ड्रेस पहने और बड़ी गाड़ियों में स्कूल जा रहे बच्चों के लिए हैं जहां ‘जन-गण-मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता’ की गूंज के साथ मिष्ठान का वितरण होगा।
अफसाना और मुन्नी खातून का कोई स्कूल होता तो वे यहां झंडे बेचने क्यों आतीं। इन बच्चों के स्कूल नहीं हैं। इनके पास किताबें-कापियां नहीं हैं, फीस जमा करने के पैसे नहीं हैं। आखिर वे कौन हैं जिन्होंने इनके नन्हे कोमल हाथों को ज़िंदगी ठेलने का हुनर सिखा दिया। इनका जीवन-संघर्ष ने अपने बचपन को खोकर कब, कहां से कठोर पगडंडी की राह पकड़ ली, शायद ये इससे भी अनजान हैं।
दोनों बच्चियां बहुत मासूम हैं। उनके चेहरे बहुत खामोश हैं। जिस जर्जर साइकिल पर ये चलकर आई हैं उसके थके पहिए ही आज इनका राष्ट्रीय चक्र हैं।
मैं देश की इन बेटियों से बहुत कुछ जानना चाहता हूं, पर मेरा साहस काफूर हो जाता है। उनके चेहरों पर ही मेरे बहुत सारे सवालों के जवाब चस्पां हैं। सच यह है कि मैं इनकी आंखों का सामना नहीं कर पा रहा हूं।
हमारे मित्र शिव कुमार यादव ने अफ़साना से तीन झंडे खरीद लिए हैं। वह पैसे गिनने लगी है। शायद उसकी बोहनी हो गई है।
सामने मंदिर धुल-पुंछ रहा है। भीतर देवता नहलाये-धुलाये जा चुके होंगे। फिर इनका भोग लगेगा। आरती उतरेगी। घड़ियाल बजेंगे। शंख गूंजेगा और प्रसाद वितरण होगा।
अफसाना और खातून मंदिर की इन ध्वनियों से अनजान हैं। इनके कानों को मंदिर की घण्टियां भी सुनाई नहीं पड़तीं। इनके भीतर स्वतन्त्रता दिवस का जयगान भी नहीं गूंजता। कोई ग्राहक आ जाता है तो वे सिर्फ उसी की आवाज पर कान देती हैं।
मैं मुड़-मुड़ कर अफसाना और खातून के चेहरे देख रहा हूं…
सुधीर विद्यार्थी देश के क्रांतिकारी इतिहास पर काम करने वाले सबसे प्रमुख हस्ताक्षर हैं। इतिहास लेखन के अलावा उनके लेख, व्यंग, टिप्पणियां और कविताएं भी समय-समय देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।