‘लिपिस्टिक अंडर माइ बुर्का’ कैसी फिल्म है, मुझे मालूम नहीं! लेकिन इस फिल्म ने हमारा ध्यान कुछ ऐसी बातों की तरफ खींचा है, जो बेहद बुनियादी हैं, मगर उन्हें पुरूष प्रधान समाज मानना ही नहीं चाहता।
महिलाएं फैंटेसी की दुनिया में जीती हों या ना जीती हों… पुरूष ज़रूर जीते हैं। पुरूष अगर ये सोचता है कि एक महिला ख्यालों में भी किसी और के बारे में नहीं सोचती या रोमांचक कल्पनाएँ नहीं करती तो वो एक तिलिस्मी दुनिया में जी रहे हैं जो उनकी ख़ुद की बनाई है।
लड़की जब टीन एज में कदम रखती है तो कल्पनाओं की दुनिया की सैर करने लगती है। जिस तरह कोई लड़का किसी लड़की के शरीर को लेकर कल्पनाएँ करता है, जानना चाहता है, साथ चाहता है… ठीक उसी तरह एक लड़की भी चाहती है।
लड़के खुल कर बोल लेते हैं उनको कई प्रकार की अतिरिक्त सुविधाएं मिली हुई हैं। वहीं लड़कियां खुल कर भले ना बोलें… पर अपनी हम-उम्र सहेलियों के साथ खूब खुलकर बोल लेती हैं (हर तरह की बात)।
किसी दिन लड़की को प्रेम भी हो जाता है। पर परिवार के दबाव में शादी कहीं और हो गई तो आपको क्या लगता है कि वो हिन्दी फिल्मों की तर्ज़ पर एक झटके में अपने प्रेमी को भूल कर पति परमेश्वर वाली फ़ीलिंग में आ जाती है? जी नहीं, हो सकता है वो अपने पति के साथ सदेह होने के बावजूद उसके साथ ना हो…
किसी कम उम्र लड़की की शादी ज़बरदस्ती किसी अधेड़ से कर दी जाय और वो मूर्ख ये सोचे कि ख्यालों में भी उसकी बीवी उसी के साथ है तो फैंटेसी में तो वो अधेड़ हुआ।
इसी तरह कोई अधेड़ औरत भी ख्यालों में ख़ुद को किसी नौजवान के साथ रोमांस करते संबंध बनाते देख सकती है। एक बूढ़ा आदमी कम उम्र लड़की से शादी कर सकता है, ख़रीद-फरोख़्त कर सकता है और एक बूढ़ी औरत ख़्यालों में भी किसी नौजवान के बारे में नहीं सोच सकती?
ऐसा मानने वाले फैंटसी में ही तो हैं… जहाँ उन्हें लगता है कि एक औरत अपनी ख्यालों की दुनिया में भी वही देखती सोचती है जो वो चाहते हैं। आप लिपस्टिक को घूँघट या बुर्के में कैद कर सकते हैं पर वही बुर्का या घूँघट फैंटसी की दुनिया में बिकनी के साथ लिपिस्टिक लगाकर किसी के साथ भी घूम सकता है।
आप औरत को ले कर फैंटसी की दुनिया में तैरते रहिए कि वो आपके चश्मे से खुद को देखती है। पर वो एक सामान्य मनुष्य की तरह ही व्यवहार करेगी… और वही देखेगी जो वो देखना चाहती है। महिलाओं की फैंटेसी की दुनिया आपके बुने तिलस्म को चकनाचूर कर सकती है। इसलिए आप उसकी फैंटसी की दुनिया के ख्याल से भी डरते हैं।
जिस तरह औरतों पर अपने संस्कारों का ठीकरा फोड़ रखा है सबने, जो उसका अपनी मर्ज़ी से हँसना-बोलना तक दूभर कर रखा है, बिना फैंटसी के झेल सकती है क्या वो ये सब?
यह आलेख लिखा है मनीषा श्रीवास्तव ने। मनीषा पेशे से योग और फिटनेस ट्रेनर हैं। वे शास्त्रीय संगीत से एमए हैं और अपने लिखने-पढ़ने के शौक के चलते फेसबुक पर खुद को अभिव्यक्त करती रहती हैं।
एक पुरुष ने लिखा प्रेम
रची गयी एक नयी परिभाषा
एक स्त्री ने लिखा प्रेम
लोग उसके शयनकक्ष का भूगोल तलाशने लगे ..
– रश्मि भारद्वाज
मैं स्त्रियों की वैचारिक स्वतंत्रता से तो सहमत हूँ लेकिन दैहिक उच्छश्रृंखलता के विरुद्ध हूँ, स्वतंत्रता और उच्छश्रृंखलता की विभाजन-रेखा बिल्कुल ही क्षीण होती है। अतिश्रृंगार तो हमेशा से कामुकता की निशानी रही है और भड़कीले वस्त्रों ने मूक-निमंत्रण दिए हैं।