प्रदीपिका सारस्वत
तीसरे दिन सुबह हम ओल्ड पाथ व्हाइट क्लाउड के तीन पाठ पढ़ते हैं।
“राजदरबार की कार्यविधि को सिद्धार्थ ने बहुत पहले समझ लिया था। हर अधिकारी की मंशा बस अपनी शक्तियों को बचाने और उन्हें दृढ़ करने की थी, न कि अभाव से जूझते लोगों की समस्याएँ हल करने की। उसने इन शक्तिशाली लोगों को एक दूसरे के षड़्यंत्र करते देखा था, जिससे उसे राजनीति से अरुचि हो गई थी।”
“उसने समझ लिया था कि जब तक लोग अपने हृदय में भरे स्वार्थ और ईर्ष्या से आगे नहीं बढ़ते, तब तक स्थितियाँ नहीं बदलेंगी। और तब आध्यात्मिक मुक्ति का मार्ग तलाशने की उसकी इच्छा और तीव्र हो गई।”
बुद्ध के समय की ये बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक जान पड़ती हैं। हम देखते हैं कि तमाम वैज्ञानिक और वैचारिक प्रगति के बाद भी मानव स्वभाव और सामाजिक संरचनाएँ लगभग वैसी ही हैं जैसी हज़ार साल पहले थीं।
9 बजे पंचायत भवन से चलकर हम गाँव के भीतर लोगों से बातचीत कर रहे हैं। आस-पड़ोस की बच्चियाँ हम अजनबियों को देखकर हमें जानने की उत्सुकता से भरी हुई हैं। स्कूल जाने से पहले अपनी चहचहाहट भरी गुड मॉर्निंग के साथ हमसे मिलने आती हैं। उनमें से एक को पेंटर बनना है, प्रीति को। वह ननिहाल में रहती है और दसवीं में पढ़ती है। गाँव के लोग बैठक में बढ़ते जा रहे हैं। वे बता रहे हैं कि बिजली प्राइवेट कर दी है, घर में कुछ बल्ब भर जलते हैं पर हर बार बिजली का बिल 1000 रुपए आता है।
यहाँ के सांसद और विधायक दो भाई हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि वे अपनी परेशानियों के लिए उनसे सवाल क्यों नहीं करते तो वे बताते हैं कि ‘कोई झंकवेई नहीं करत’। ग्रामवासी बताते हैं कि हमारे गाँव से एक भी वोट भाजपा का नहीं है पर हर बूथ पर भाजपा जीती। जिस जगह वोटों की बोहनी भी नहीं हुई वहाँ भी जीती। वे कहते हैं कि मशीन ख़राब हुई छह बार। जिसे भी वोट दो, भाजपा को मिलता था। पूछने पर वे बताते हैं कि नरेगा का काम अब नहीं चल रहा है।
राजनीति की बात शुरू होती है तो ग्रामीणों को रोकना मुश्किल हो जाता है। एक कहते हैं कि दिल्ली में चुनाव चल रहा है, टीवी पर बस मोदी जी के लिए वोट माँगे जा रहे हैं। नई सरकार ने कुछ नहीं किया, पुरानी चीज़ों को बेचना शुरू किया। एम्बुलेंस पहले से आती थी, अब उसका नम्बर बदल दिया। इस गाँव के लोग समाजवादी पार्टी के समर्थक हैं और वे ऊपरी तौर पर हिंसा और नफ़रत की निंदा करते हैं। वे समझते दिखते हैं कि नागरिकों को अपने अधिकारों और सरकार के कर्तव्यों के पालन के लिए एकजुट होने की ज़रूरत है। पर निश्चित तौर पर वे नहीं जनते कि कैसे। वे मौजूदा सरकार के निर्णयों के ख़िलाफ़ लड़ने की बात करते हैं, पर हम सब जानते हैं कि ये सिर्फ़ बातें हैं। लड़ने और बढ़ने के लिए लगातार इस दिशा में काम करने की आवश्यकता होगी, और प्रोत्साहन-मर्गदर्शन के लिए एक नेता की भी। वह सब यहाँ अभी हासिल नहीं है। एकजुटता की मरीचिका के नीचे हम जानते हैं कि हम सब अभी अपनी-अपनी व्यक्तिगत अराजकताओं में उलझे हैं।
पैदल चलते हुए मैं इस व्यक्तिगत अराजकता को दूर से देखने का प्रयास करती हूँ। देखतीं हूँ कि अपने अलावा किसी अन्य के समीप जाना उसकी अराजकता के नज़दीक जाना भी है। पर हम उसकी समरसता और सरलता चाहते हैं, उसके उलझाव और अराजकता के लिए तैयार नहीं होते। हमें जो चाहिए और जो इस समय का हासिल है, हम इन दो के बीच के द्वंद्व में फँस जाते हैं।
चलते-चलते यह भी याद आता है कि पिछले तीन दिन से मैंने मेल नहीं देखा। फ़ोन में जीमेल का एप्लिकेशन नहीं है। मैं तुरंत देखना चाहती हूँ। पर रुकती हूँ। ऐसी क्या जल्दी, अब जहाँ रुकेंगे देख लेंगे। हम गोरखपुर-आज़मगढ़ हाईवे पर चले जा रहे हैं, सड़क के दोनों तरफ़ सरसों और गेहूँ फूल रहे हैं, पर सड़क पर बस धूल का ग़ुबार है। मैंने मास्क पहना है, पर साथियों के पास ऐसी कोई सुरक्षा नहीं है। मुझे इनके लिए फ़िक्र होती है पर कुछ कर नहीं पाती। यह फ़िक्र मेरी असमर्थताओं के बोझ में एक पत्थर और जोड़ देती है। मैं समझने का प्रयास करती हूँ कि ये असमर्थताएं हमारे साथ क्या करती हैं, हमें किस तरफ़ ले जाती हैं।
ग्राम हाटा में कुछ देर के विश्राम के बाद अब हम फिर हाईवे पर आ गए हैं। मुझसे आगे चल रहे दो साथी अब इतनी दूर निकल गए हैं कि अब सिर्फ़ उनके कपड़ों के रंग से पहचान पा रही हूँ। वैसे उनके अलावा और कोई है भी नहीं जो इतनी लंबी दूरी तक इस बड़ी धूल भरी सड़क पर चल रहा हो।
सूरज अब मेरे दाएँ गाल पर तप रहा है। दायीं तरफ़ सड़क पर तेज़ गति से गाड़ियाँ निकल रही हैं बायीं तरफ़ पहले इक्का दुक्का मकानों में मुझे हैरानी से देखते लोग थे अब सरसों के फूलों से लदे खेत हैं।
मैं अब अपने बारे में सोच रही हूँ। मैं को परिभाषित करना थोड़ा कठिन है क्योंकि जब तक मैं को देखा और स्पर्श किया जा सकता है तब तक उसे जिस भी कोण से देखा-छुआ जाएगा, परिभाषा अपूर्ण ही रहेगी। एक कहानी याद आ रही है। सावन के दिनों में सुनाई जाने वाली गाज की कहानी। गाज एक सूत का टुकड़ा है, कहानी के मुताबिक जिसे सावन के दिनों में बिजली गिरने या विपत्ति से बचने के लिए औरतों को अपनी चूड़ी में बाँध लेना चाहिए। गाज न बाँधने पर एक राजा-रानी पर विपत्ति आती है। जब विपत्ति आती है तो दोस्त-परिजन सब साथ छोड़ देते हैं। अंत में दो वक़्त की रोटी की जुगाड़ के लिए उन दोनों को घोड़े की लीद उठाने का काम करना पड़ता है। मैं सोचती हूँ कि देखा जाए तो कौन है जो घोड़े की लीद नहीं उठा रहा? सामने से आती घास का गट्ठर सर पर उठाए किसान महिला भी। और दिल्ली में रहकर ख़ूब पैसा कमाने वाली नौकरी करने वाला भी।
कुछ देर बाद विकास और मनीष आगे मिल जाते हैं। विकास समझा रहे हैं कि सवर्ण का साथ सत्ता परिवर्तन की कुंजी है। संस्थान उनके क़ब्ज़े में हैं। आप देखिए कि हर सांसद-विधायक के पास एक न एक स्कूल कॉलेज ज़रूर होगा। एक स्कूल का मालिक कई सौ परिवारों को प्रभावित कर सकता है।
आज रात आज़मगढ़ ज़िले के बड़हलगंज में रुकना है। डॉक्टर संजय के अस्पताल में। उन्हें 2014 में कांग्रेस ने टिकट दिया था। उनका अस्पताल ढूँढ़ने में हमें दिक़्क़त होती है। सभी साथी थक चुके हैं।
डॉक्टर संजय हमारे लिए चाय का इंतज़ाम करते हैं। चाय पर बातचीत शुरु होती है। हम उनकी कहानी जानना चाहते हैं। वे कहते हैं कि उस बार कांग्रेस ने अच्छे टिकट दिए थे, जिसने काम किया उसे मिला। पर वे ख़ुद हार गए। कहते हैं, तब मोदी वेव थी पर अब सब मोदी से परेशान हैं। पहले आप बस, ट्रेन, चौराहे पर मोदी के ख़िलाफ़ बोलिए, भाजपाई लड़ जाता था। अब वह चुप रह जाते है। सब जानते हैं संप्रदायिकता सब बेकार है।
पर उन्हें कांग्रेस के संगठन पर गुस्सा है। कहते हैं पार्टी ज़मीन पर नहीं दिख रही। सबको बस दस जनपथ की नज़दीकी चाहिए। लोग कांग्रेस की तरफ़ बड़ी उम्मीद से देख रहे हैं, उन्हें उम्मीद चाहिए, विकल्प चाहिए। पर कांग्रेस जनता से संवाद नहीं कर रही। लोग परेशान हैं, उल्टे सीधे नियम क़ानून बन रहे हैं। देखिए, जिस लड़के ने इतना मेहनत से MBBS किया अब उसे इंटर्नशिप के लिए दोबारा इम्तिहान देना पड़ेगा। सब पैसा कमाने के नए तरीक़े बना रहे हैं।
संजय जी की अपनी जीवन यात्रा काफी असाधारण है। उन्होंने सरकारी प्राइमरी स्कूल से पढ़ाई की। दसवीं में ज़िले में पहला स्थान प्राप्त किया। 1993 में पीएमटी के रास्ते लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस किया, फिर एमडी किया।
2002 में लोन लेकर अमेरिका गए, वहीं काम किया, एमआरसीपी किया, वहाँ चार साल रहे। फिर सऊदी अरब में किंग फ़हद यूनिवर्सिटी चला गए, वहाँ बेस्ट मेडिकल प्रेक्टिशनर का अवार्ड मिला। फिर आख़िर में अपने गाँव वापस चले आए। सरयू में स्नान किया और यहीं बड़हलगंज में प्रेक्टिस शुरू की। अब अपना अस्पताल है। वे न्यूरो सर्जन हैं। कार्डियो में भी डिग्री है। बताते हैं कि गाय का दूध निकाल लेते हैं, फ़्रेंच और अरबी भी बोल लेते हैं। सब करते हैं। लेकिन पिछली बार टिकट न मिलने का दुःख है। बताते हैं कि जिसको टिकट दिया उसने कभी पार्टी का झंडा नहीं उठाया। “हारना उसे था ही। जिस तरह आख़िर में घटनाएँ हुईं और माहौल बीजेपी के पक्ष में मुड़ गया, मैं सोचता हूँ कि अच्छा ही हुआ मुझे सीट नहीं मिला, वरना फिर हारना पड़ जाता।”
वे यह भी कहते हैं कि मैं भाजपाइयों का इलाज करता हूँ, पैसा लेता हूँ, पर कोई भाजपाई मेरे यहाँ आकर भाजपा की तारीफ़ कर के नहीं जा सकता।
संजय जी हमारे खाने का इंतज़ाम पास के एक ढाबे पर करते हैं। खाने की मेज़ पर बैठते हैं तो गांधी की बात चल पड़ती है। विकास कहते हैं कि हमारी लड़ाई गांधी की लड़ाई से कहीं ज़्यादा मुश्किल है। उनकी लड़ाई ज़्यादा एथिकल लोगों से थी। जब गांधी को कुछ भी होता था तो जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे लोग सरकार को घेरते थे। पर यहाँ सरकार के ख़िलाफ़ बोलने वालों के साथ सरकार कुछ भी कर सकती है और उनके लोग कुछ नहीं बोलेंगे, क्योंकि उनके कोई एथिक्स, कोई नैतिकता नहीं है।
मनीष का कहना है कि आज हम सौहार्द की बात करते हुए यात्रा कर रहे हैं तब भी हमारे दिलों में स्टेट का डर है। यह कितनी भयावह बात है। हमें कभी भी पकड़ कर जेल में डाला जा सकता है। पुलिस हमारे ख़िलाफ़ दंगा भड़काने का केस बनाएगी, मीडिया इसे जस्टिफ़ाई करेगी, जनता उसी पर अपना मत बनाएगी और न्यायालय उसी के हिसाब से फ़ैसला देगा।
सरकारों का काम जनता तक नहीं पहुँच रहा। जनता जानती है कि सरकारें दरअसल काम करने के लिए नहीं हैं। वे भ्रष्ट हैं, बस ताक़त चाहती हैं। तो जनता भी अब काम करवाने के लिए लिए वोट देने नहीं निकलती। सरकार या शासन से किसी भी तरह की उम्मीद के अभाव में वोटर ख़ुद को अपनी मुसीबतों के बीच ख़ुद को अकेला पाता है। इस अकेलेपन में उसका संबल उसकी पहचान, उसकी आइडेंटिटी रह जाती है। इसी पहचान का फ़ायदा भ्रष्ट राजनीति उठाती है और उसे डर और संशय के ग़ुबार में फेंक, और अकेला कर देती है। जहाँ उसे प्रेम और प्रगति का रास्ता मिलना चाहिए था, वहाँ वोटर नफ़रत, डर, भ्रम और खोखले गर्व में फँसकर अपने मन की शांति और सौहार्द के साथ-साथ अपनी नागरिकता, नैतिकता सब खोता जाता है।
रात को हम सभी लोग आठ बेड वाले एक वार्ड में रुकते हैं। यह हमें बीमार होने जैसी अनुभूति देता है, हम बीमार नागरिकता के प्रतिनिधि हैं।
प्रदीपिका सारस्वत पत्रकार, रचनाकार और सोशल एक्टीविस्ट हैं। वे बतौर जर्नलिस्ट ‘सत्याग्रह’, ‘द क्विंट’ और ‘बीबीसी’ के लिए रिपोर्ताज लिख चुकी हैं। उन्होंने एक लंंबा अरसा कश्मीर में गुजारा है और पिछले दिनों उनकी किताब ‘गर फ़िरदौस…’ आई है।