दिव्यांशी
हमने जब ‘द मैरिड वूमेन’ सीरिज को और लेस्बियन संबंधों पर लाइव चर्चा करने के लिए मेरा रंग प्लेटफार्म को चुना तो आखिर क्यों लाइव के दौरान पुरुष वर्ग अपनी कामुकता नही संभाल पा रहा था? आखिर क्यों महिलाओं के बोलने पर उन्हें गालियां देकर डराने धमकाने में ट्रोलिंग होने लगी?
क्या पुरुषों को डर है कि यदि महिलाये इनपर बात करेंगी तो वे उनके पुरूषार्थ को दुत्कार देंगी? आखिर क्यों 21वीं सदी होने के बावजूद आज भी समाज को औरतों का किसी विषय पर बात करना चर्चा करना पसंद नहीं आता? और क्यों यदि चर्चा सेक्स जैसे मुद्दे पर हो तो वहां लोग जिज्ञासा से ज्यादा अपनी कामुकता ले आते हैं?
सोशल मीडिया पर लिंचिंग
आज सारा संसार आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा में लगा हुआ है जबकि भारतीय समाज डिजिटल इंडिया बनने के दावे में भी बस सोशल मीडिया पर औरतों को ट्रोल कर कर अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है। जैसे ही महिलाएं कोई विषय चुनती है जिस पर भी अपनी राय और विचार सबके समक्ष रख सकें तो उनकी लीचिंग शुरू कर दी जाती है ताकि वह डर जाए।
यदि मुद्दा सेक्सुअलिटी को लेकर हो तो वह पुरुष अहंकार से जुड़ जाता हैं क्यों ऐसा लगता है कि यदि स्त्रियां सेक्सुअलिटी पर बात करने लगेंगी तो वे बेशर्म हो जाएंगी जबकि इन मुद्दों पर यदि इतिहास की तरफ नजर दौड़ये तो पाएंगे कि खुलकर चर्चाएं होती थी। यह समझने की जरूरत है कि सेक्सुअलिटी एक नेचुरल प्रोसेस है यह प्रकृति तय करती है कि हमारी सेक्सुअलिटी क्या होगी। या आगे जाकर एक स्त्री या पुरुष क्या पसंद करेगा।
समाज की गति सही दिशा में चलती रहे इसके लिए यह बेहद जरूरी होता है कि सामाजिक ढांचे को अपनाया जाए लेकिन इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं होता की जानकारियों के अभाव में गलत रास्तों को चुना जाए और यदि विषयो पर बात नहीं होंगी तो जानकारियां कभी भी परिपूर्ण नहीं होंगी।
‘द मैरिड वूमेन’ पर बातचीत
‘मेरा रंग’ की इस कार्यक्रम में छह महिलाओं ने हिस्सा लिया। इसमें जर्नलिस्ट रूबा अंसारी, सोशल वर्कर और काउंसलर प्रतिमा त्रिपाठी, लेखक और फिल्म आलोचक गति उपाध्याय, हाईकोर्ट की एडवोकेट और सोशल एक्टीविस्ट नंदिता अडवाल तथा काउन्सलर और सोशल एक्टीविस्ट दिव्यांशी ने हिस्सा लिया। कार्यक्रम का संयोजन किया ‘मेरा रंग’ की संचालक शालिनी श्रीनेत ने।
हमने ‘द मैरिड वूमेन’ नाम की सीरीज को चर्चा के लिए इसलिए चुना क्योंकि वह इस पर चर्चा कर करके ज्यादा जानना चाह रही थी कि आखिर इस मुद्दे पर हमारा समाज इतना ढका छुपा क्यों है? क्या ऐसे रिश्ते सिर्फ शारीरिक संबंध के लिए होते हैं या इनमें भावनात्मक पहलू भी होता है? साथ ही वह इस पटकथा पर अपने अपने नजरिए से अपने विचार रखती है।
द मैरिड वूमेन पर मेरा रंग के लाइव स्टूडियो में बातचीत
समलैंगिकता पर बात करने में झिझक क्यों?
शायद कुछ लोगों को लगता है कि समलैंगिकता पर बात करने से अधिक से अधिक स्त्रियां समलैंगिक हो जाएंगी या औरतों की तरफ आकर्षित हो जाएगी तो बता दूं कि आपकी सोच गलत है क्योंकि जब इन मुद्दों पर बात नहीं की जाती या इन विचारों को नहीं समझा जाता तब भी समाज में समलैंगिक रिश्ते थे और है वे भले ही छुपे हुए ढंग से चल रहे हो। दूसरी बात समलैंगिकता किसी भी स्त्री या पुरुष का निजी चयन है। समाज में इसके निजी चयन की स्वीकार्यता होनी चाहिए।
आज जरूरत है ऐसे विषयो को चुनकर उनके पहलुओं को समझा जाए। जो लोग इस वर्ग से ताल्लुक नहीं रखते उनके लिए यह विषय यकीनन फिजूल हो सकता है लेकिन एक पूरे उस वर्ग के बारे में भी सोचिए जो इस से ताल्लुक रखता है लेकिन चाह कर भी अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं कर पाता क्योंकि समाज का डर उसके अंदर इस कदर भर दिया जाता है कि वह अपनी इच्छाओं को व्यक्त नहीं कर सकता।
इसलिए ना चाहते हुए भी उन्हें समाज के उन बंधनो को मानना पड़ता है जिसे वह नहीं मानना चाहते। इसे ऐसे उदाहरण के तौर पर समझा जा सकता है मान लीजिए किसी लड़की में बचपन से दूसरी लड़की के प्रति भावनाएं हैं जिसे हम समलैंगिकता या लेस्बियन कहते हैं यदि ऐसी लड़की की शादी एक पुरुष कर दी जाती है तो वह कभी भी अपने उस रिश्ते में खुश नहीं रह पाती इससे दो की जिंदगी तो खराब होती है साथ ही दो परिवार भी खराब होते हैं।
सभी को अपनी यौनिकता के साथ जीने का अधिकार है
हर इंसान की सेक्सुअलिटी अलग-अलग होती है अगर वह अपनी पहचान के साथ समाज में जीना चाहता है तो उसे जीने का मौका देना चाहिए क्योंकि यदि आप उसकी पहचान ढके छुपे ढंग से डरा धमका कर उस पर कंट्रोल रखना चाहेंगे तो वह अपने जीवन में कभी ना कभी अपनी इच्छाओं के लिए प्रयासरत रहेगा और मौका मिलते ही दूसरे रिश्ते को धोखा देगा और विद्रोही हो जाएगा। वह ना तो अपने इस रिश्ते में खुश रह पाएगा और ना ही दूसरे को रहने देगा।
पुरुषों को इस मानसिकता से बाहर आना चाहिए कि बस वही स्त्रियों को हर प्रकार से खुशी दे सकते हैं या खुश रख सकते हैं। मान लीजिए अगर किसी स्त्री का किसी पुरुष के प्रति कोई भावनात्मक लगाव है ही नहीं तो वह कैसे उनके साथ शारीरिक रूप से सहज हो सकती है। ऐसे में चाहे पुरुष कितने भी बेहतर ढंग से स्त्री को खुश रखना चाहे वह स्त्री उसके प्रति जुड़ाव महसूस नहीं करेगी।
इसलिए यह जरूरी है कि संबंधों के इस फैर को समझा जाए। सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से आप ऐसे रिश्तो में कमी ढूंढ सकते हैं लेकिन यदि व्यक्तिगत तौर पर भावनात्मक पहलू को समझने की कोशिश करेंगे तो कभी भी वह दो व्यक्ति जो भावनात्मक रूप से एक दूसरे से जुड़े हो गलत साबित नहीं होते हैं।
सेक्सुअल ओपनियन अलग होने से कोई बुरा नहीं हो जाता
जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया को अपनाये यही आपके आने वाले भविष्य को तय करेगा। किसी को अपशब्द कहने से आप खुद को संतुष्ट कर सकते हैं लेकिन भविष्य में जब आपकी पीढी इन पर चर्चा करेगी या इन्हें जानना चाहेंगी तो क्या आप उन्हें कह पाएंगे कि उनसे पहले जो लोग इन पर चर्चा कर रहे थे उन्हें आपने गंदी गंदी गालियां दी?
मुझे लगता है शायद नहीं कह पाएंगे क्योंकि कोई भी इंसान बाहर चाहे कैसा भी रवैया रखता हो लेकिन मैं अपने बच्चों और अपने अभिभावकों के सामने खुद को अच्छा प्रस्तुत करना चाहता है। कम से कम कोशिश करनी चाहिए कि संबंधों के रूपों को समझा जाए। आप इन रिश्तों को स्वीकार करें या ना करें यह आपकी व्यक्तिगत राय हो सकती है लेकिन सिर्फ विचारधारा यहां सेक्सुअल ओपिनियन अलग होने के कारण किसी को बुरा कहना अनुचित है।
जिस तरह खाना-पीना पहनावा एक व्यक्तिगत चुनाव होता है ठीक उसी तरह सेक्सुअलिटी भी किसी का व्यक्तिगत चुनाव होता है इसे प्रत्येक व्यक्ति के खुद के चुनाव पर छोड़ देना चाहिए। यदि किसी को दूसरों का व्यवहार पसंद नहीं आता तो उन्हें अपनी राय दे सकते हैं रोक-टोक सकते हैं लेकिन उनके लिए अपशब्द इस्तेमाल आप की विचारधारा कमजोर होना दिखाता है।
समय बदल रहा है बदलाव की इस बयार को बदलने में सार्थक प्रयास करे वरना आप निरर्थक साबित होंगे क्योंकि समय ना किसी के लिए रूका था ना रूकेगा। परिवर्तन ही संसार का नियम था है और रहेगा।
दिव्यांशी एक काउंसलर तथा सोशल एक्टीविसिट हैं। वे भिविन्न सामाजिक मुद्दों पर सोशल मीडिया पर भी लिखती रहती हैं।