स्मिता अखिलेश
पेरियार को दक्षिण पूर्व एशिया का सुकरात कहा गया। यूनेस्को ने उन्हें इसके अतिरिक्त ‘नए युग का पैगम्बर, समाज सुधार आन्दोलन का पिता, अज्ञानता, अंधविश्वास और बेकार के रीति-रिवाज़ का दुश्मन’ भी कहा था।
पेरियार अपनी मान्यता का पालन करते हुए मृत्युपर्यंत जाति और हिंदू धर्म से उत्पन्न असमानता और अन्याय का विरोध करते रहे। ऐसा करते हुए उन्होंने लंबा, सार्थक, सक्रिय और सोद्देश्यपूर्ण जीवन जिया था।
अमूमन हम पेरियार को ‘घोर नास्तिक’ के रूप में जानते है। लेकिन पेरियार द्वारा धर्म की आलोचना इसलिये की गई क्यूंकि, धर्म जन्म पर आधारित सामाजिक विभाजन को न्यायोचित ठहराता है; साथ ही वह जाति-आधारित भेदभाव को सांस्थानिक वैधता प्रदान करता है।
इसके साथ ही पेरियार ने स्त्री स्वतंत्रता, विवाह की प्रासंगिकता पर सवाल, स्त्रियों के लिये दैहिक शुचिता का विरोध, मार्क्सवाद की अव्यवहारिक पहलू, गांधीवाद और उदारवाद की असली मंशा और पाखण्ड के बारे में तर्कपूर्ण तरीके से अपने विचार रखे है।
फॉरवर्ड प्रेस में प्रकाशित लेख ‘महिलाएँ उन्हें कहती थीं पेरियार महान’ में ललिता धरा कहती हैं, “स्त्री-पुरुष संबंधों का कोई ऐसा पक्ष नहीं था जो उनकी नज़रों से छूटा हो। वे महिलाओं को सेक्स व प्रजनन के मामलों में असीमित व बिना शर्त स्वतंत्रता दिए जाने के हामी थे। उन्होंने पित्रसत्तामकता के ध्वंस के लिए वह सब कुछ किया जो वे कर सकते थे।”
लेख में कहा गया है, “सोये हुए समाज को झकझोर कर उठाने के लिए उत्तेजक बयान देने में उन्हें विशेषज्ञता हासिल थी। एक बानगी देखिये: “अगर इससे उनकी स्वतंत्रता में बाधा पड़ती हो तो महिलाओं को बच्चों को जन्म देना बंद कर देना चाहिए।” वे बिना लागलपेट के कहते थे कि जब तक ‘पितृसत्तात्मक पुरुषत्व’ है तब तक महिलाएं स्वतंत्र नहीं हो सकतीं। वे चाहते थे कि ‘सतीत्व’ और ‘चरित्र’ जैसे मानक या तो महिला और पुरुष दोनों पर लागू होने चाहिए या किसी पर भी नहीं।”
वे आगे लिखती हैं, “उनका कहना था कि माता-पिता को अपनी लड़कियों का पालनपोषण उसी तरह करना चाहिए जैसा कि वे लड़कों का करते हैं। यहाँ तक कि लड़कों और लड़कियों के नाम और उनका पहनावा भी एक जैसे होने चाहिये और लड़कियों को मुक्केबाजी और कुश्ती जैसों खेलों का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।”
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक रूप से उन्होंने हिंदी पट्टी के सांस्कृतिक वर्चस्ववाद का विरोध दर्ज किया और दक्षिण और उत्तर भारत मे राजनैतिक संतुलन बनाया। लम्बे समय तक वे कांग्रेस के साथ केरल में वायकॉम सत्याग्रह में बतौर नायक शामिल होकर उसे सफल बनाया था चूंकि यह सत्याग्रह ब्राह्मणवाद के विरोध में था इसलिये कांग्रेस में भी ब्राह्मणवाद के दोगलेपन से क्षुब्ध होकर अलग हो गए।
अपनी राजनीतिक आवाज को धार देने के लिए पेरियार ने 1938 में जस्टिस पार्टी का गठन किया. फिर 1944 में इसे भंग करके उन्होंने द्रविड़ मुनेत्र कझगम (डीएमके) बनाई। कांग्रेस को तमिलनाडु से बाहर करने का पेरियार का सपना 1968 में पूरा हुआ जब डीएमके ने पहली बार राज्य में सरकार बनाई।
पेरियार का मानना था कि सामाजिक न्याय, समानता और मनुष्य प्राप्ति में जो भी बाधाएं है, उन्हें तर्कसम्मत और बौद्धिक आलोचना की कसौटी में कसकर दूर किया जाना चाहिये।
पेरियार को राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती और विनोबा भावे सरीखे समाज सुधारकों की पांत में रखा जाता है।तमिलनाडु में पेरियार के विचारों के प्रभाव के कारण एक प्रगतिशील और समावेशी समाज बना है।
साम्यवाद से लेकर दलित आंदोलन, तमिल राष्ट्रवाद, तर्कवाद और नारीवाद तक हर धारा से जुड़े लोग उनका सम्मान करते हैं। सम्मान ही नहीं करते बल्कि उन्हें मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं। उन्हें एशिया का सुकरात भी कहा जाता है।
सोशल एक्टीविस्ट स्मिता अखिलेश का जमीन से जुड़कर काम करने का व्यापक अनुभव है। सहकारी बैंक की बैंक मैनेजर की हैसियत से वे पिछले कई सालों से किसानों, ग्रामीणों और महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में प्रयासरत है।