टीवी पर सेनेटरी नैपकिन का विज्ञापन आ रहा है और घर का प्रत्येक वयस्क सदस्य बगलें झाँक रहा है… बच्चे उत्सुकता से देख रहे हैं…।
यह कोई नई बात नहीं है। जब से टीवी पर विज्ञापनों ने अपनी जगह बनाई है तब से आज तक महिलाओं की निजी स्तेमाल की चीज़ों के विज्ञापन आने पर लगभग हर घर में यही दृश्य होता है। महिला होना इतना शर्मनाक क्यों बना दिया गया है?
एक बच्ची जब युवा होने की ओर पहला कदम उठाती है, तब सबसे प्राथमिक शारीरिक और मानसिक बदलाव होता है। पीरियड्स का शुरू होना ठीक उसी तरह से है, जैसे बच्चा युवा हेने की ओर बढ़ता है तो मूँछ दाढ़ी निकलने लगती है।
तो जब रेज़र शेविंग क्रीम के विज्ञापन और खरीद पर कोई शर्मिंदगी नहीं फिर सेनेटरी नैपकिन की खरीद और विज्ञापन पर इतनी शर्म और हिचक क्यों? क्या ये सहज और ज़रूरी प्रक्रिया नहीं है? क्या कोई पुरूष कल्पना भी कर सकता है… हर महीने 3 से 5 दिनों तक किसी पीड़ादायी स्राव के साथ सामान्य दिनचर्या की। महिलायें बेहद शालीनता के साथ इसे निभा रही हैं।
मासिक चक्र शुरू होते ही घर की महिलाओं का हिदायती पिटारा खुल जाता है जिनमें बहुत कम बातें काम की होती हैं और बाकी सब बेकार। इतनी बातें जो लड़कियों को समझाई जाती हैं अगर उसकी अाधी भी माँ- बाप लड़कों को समझा दें तो अाधी समस्या अपने आप खत्म हो जाए।
आज स्कूलों में लड़के-लड़कियाँ साथ पढ़ते हैं। ऐसे में पीरियड्स के दौरान लड़कियां भयभीत या तनावग्रस्त रहती हैं। इसका सीधा असर उनकी पढ़ाई और दूसरी स्कूली गतिविधियों पर पड़ता है।
अक्सर ऐसा होता है कि किसी लड़की के पीरियड्स आ जाते हैं तो लड़के उसका मज़ाक बनाते हैं शर्मिंदा करते हैं। क्योंकि उन्हें इस बारे में पता तो होता है पर ग़लत तरीके और ग़लत स्रोतों से। माँ को चाहिये कि वो अपने बेटों को भी सही तरीके और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ इन शारीरिक बदलावों के बारे में सही जानकारी दें, जिसस वे ज़्यादा संवेदनशील बन सकें।
अगर आप ख़ुद शर्म और झिझक में ग़लत जानकारी देंगी या हँसी उड़ायेंगी तो वे कहीं न कहीं से पता लगायेंगे ही…। और यहीं से सारी समस्याओं का जन्म होता है। अधकचरी जानकारी और स्त्री के शरीर को रहस्य की तरह प्रस्तुत करना ही हमारे समाज में समस्याओं को बढ़ा रहा है।
शर्मिंदगी की बात पीरियड्स होना नहीं बल्कि हमारा शर्मनाक रवैया है। सहज शारीरिक परिवर्तन और हारमोनल बदलाव पर एक लड़की का भी उतना ही अधिकार है जितना कि एक लड़के का। इसके लिये उन्हें शर्मिंदा करके उनके सहज शारीरिक और मानसिक विकास में बाधा न डालें बल्कि उनका साथ दें।
यह आलेख लिखा है मनीषा श्रीवास्तव ने। मनीषा पेशे से योग और फिटनेस ट्रेनर हैं। वे शास्त्रीय संगीत से एमए हैं और अपने लिखने-पढ़ने के शौक के चलते फेसबुक पर खुद को अभिव्यक्त करती रहती हैं।