वंदना बाजपेयी
बहुत पहले जब एकता कपूर ने ‘कहानी घर-घर की’ टाइप सीरियल बनाने शुरू किये थे तो हम घरों के अंदर गंभीर षड़यंत्र रचती महिलाओं से परिचित हुए थे। पर इनके साथ ही ‘तुलसी’ टाइप की बहु भी होती थी… बहुत अच्छी या कहें कि अच्छाई की अति। दोनों चरित्र आम घरों में ऐसे शत-प्रतिशत वर्गीकरण के साथ नहीं होते।
लाख कहा गया कि ये महिलाओं की सच्ची कहानियाँ नहीं हैं। ब्लैक एण्ड व्हाइट का इतना आदर्श वर्गीकरण कहीं नहीं होता। पर ये सीरियल खूब लोकप्रिय हुए… कारण ये था कि जब महिलाओं ने इन्हें देखा तो खुद को तुलसी टाइप बहु से आइडेंटिफ़ाई किया और अपनी सास, बहू, ननद, जेठानी, देवरानी को खलचरित्रों से। सासों ने तुलसी से तुलना कर अपनी बहु को ताने भी दे डाले और बहु ने उन पर षड्यंत्रकारी होने का आरोप भी लगा दिया। तमाम बुराइयों को तुलसी टाइप करेक्टर बैलेन्स भी करता है। और ‘मैं अच्छा और जग बुरा’ की आम मनोविज्ञान पर पकड़ के कारण सभी सीरियल खूब चले।
कॉरपोरेट जगत की महिलाओं का नकारात्मक रूप
पर हाल में लोकप्रिय हो रहीं वेब सीरीज जिनमें कॉरपोरेट जगत की महिलाओं को बहुत ही नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, वहां उन्हें बेलेन्स करने के लिए तुलसी टाइप कोई कारपोरेट महिला नहीं है। जिसका सीधा-सीधा एक अर्थ निकलता है कि महिलायें कॉरपोरेट जगत की टॉप पोस्ट पर पहुँच रही है वो बस षड्यंत्र करके या अपनी देह के बल पर यहाँ पहुंची हैं। उनकी प्रतिभा, उनकी मेधा का कोई सम्मान नहीं करते ये सीरियल।
अभी भी आईआईटी, आईआईएम में पढ़ने वाली या किसी अन्य इंस्टीट्यूट से पढ़कर कॉरपोरेट जगत में प्रवेश करने वाली महिलाओं का प्रतिशत बहुत कम है। लड़कियां जी तोड़ मेहनत कर रही हैं इन संस्थानों में पढ़ने के लिए या कारपोरेट के दवाब में रात-दिन मेहनत के साथ खुद को स्थापित करने के लिए। जरा सोचिए इन सीरियल्स में उनकी नकारात्मक छवि को देखकर आम लोगों पर क्या असर पड़ेगा ?
फिर से ‘मैं अच्छा और जग बुरा’ की आम मनोविज्ञान के आधार पर जब हमारी अपनी बेटी इस उच्च स्तर की शिक्षा और दवाब नहीं झेल पाएगी तो हम ही बड़े शान से कहेंगे, “ना जी, हमने ना भेजी अपनी बिटिया ऐसी जगह, सीधे हाथ पीले कर भेज दिया उसके घर। आँखें खुल गईं हमारी तो जे देख के, जे ऊँची-ऊँची पढ़ाई तो बहाना है, करना तो वही सब है।”
याद रखिए पाना मुश्किल है गिराना आसान…
अति महत्वाकांक्षी स्त्रियां तो हर कही हैं
अब बात करते हैं अति महत्वाकांक्षी स्त्रियों की… वो कहाँ नहीं है। क्या गृहणी के रूप में नहीं है। याद करिए ‘हम लोग’ में देवकी भौजाई का करेक्टर। क्या ऐसी घरेलू स्त्रियाँ हमने अपने घरों के आस -पास नहीं देखी? बहुत पहले रेखा की एक फिल्म आई थी (आस्था) जिसमें वो महत्वाकांक्षी गृहणी बनी है पर भौतिक सुविधाओं के लिए वो उसी स्तर पर जाती है, जिस स्तर पर जाते हुए कॉरपोरेट जगत की महिलाओं को दिखाया जा रहा है।
‘मैं अच्छा और जग बुरा’ की आम मनोविज्ञान की धुन पर हम गृहणियों से संबंधित ये कहानियाँ दूसरे की कहानी मान पर देख लेते हैं। ना ही समाज का काम गृहणियों के बिना चलेगा और ना ही इससे गृहिणी की प्रोन्नति या अवनति होगी। लेकिन जब हम एक सशक्त महिला को इस तरह दिखाते हैं तो समाज बहुत सारी लड़कियों का रास्ता रोकने लगता है। और महिला की काबिलियत को बर्दाश्त ना कर पाने वाले पुरुष वर्ग को ये कहने का अवसर मिल जाता है, “देखा है ना वो सीरियल… इन्हें तो बॉस के केबिन में आधा घंटा बैठने से वो सब मिल जाता है जिसके लिए हम रात दिन फ़ाइल में सर घुसाये रहते हैं।
अंत में बेवसीरिज के लेखकों से गुजारिश है अगर आप यथार्थ की नाम पर इन चरित्रों को ला रहे हैं तो बैलेंसिंग कैरेक्टर भी लाइये.. कॉरपोरेट तुलसी भाभी टाइप। जो अपनी प्रतिभा और मेधा के दम पर बढ़ा है। एक सही दिशा तो समाज को दिखे
अफसोस सरोकारों से परे सिर्फ मुनाफा कमाना उद्देश्य रह गया है।

वंदना बाजपेयी अटूट बंधन वेबसाइट की संस्थापक और प्रधान संपादक हैं। इससे पहले आप दैनिक समाचारपत्र ‘सच का हौसला’ में फीचर एडिटर तथा त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका गाथान्तर में सह -संपादक रही हैं। देश के प्रतिष्ठित समाचारपत्रों, पत्रिकाओ, वेब पत्रिकाओं में वंदना जी की कहानियां, कवितायें, लेख, व्यंग आदि प्रकाशित हो चुके हैं। कुछ कहानियों कविताओं का नेपाली तथा पंजाबी में अनुवाद हो चुका है।