प्रभाव नहीं छोड़ सकी ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की आधुनिक और नारीवादी प्रस्तुति


सोनम तोमर

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की ओर से पिछले दिनों 26 मार्च से लेकर 30 मार्च तक महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का मंचन हुआ। नाटक आधुनिक दृष्टिकोण के साथ शुरू होता है और प्रारंभ में ही एक सवाल सामने आता है। सूत्रधार, विदूषक और उनकी एक साथी ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की प्रासंगिकता को एक पंक्ति में समेटते हुए कहती हैं कि यह नाटक आज भी इसलिए प्रासांगिक है क्योंकि आज भी मुंबई, श्रीलंका से आने वाले लोग लड़कियों को प्रेम कर छोड़कर चले जाते हैं।

इसके बाद शकुंतला का प्रवेश दिखाया गया है और राजा दुष्यंत जो वन में शिकार करने आए हैं उनका शकुंतला से मिलन। मिलन के बाद शकुंतला के मन में राजा दुष्यंत के लिए प्रेम भाव उत्पन्न होता है और वह बैठी हुई है, तभी उसकी एक सखी उसको चिढ़ाते हुए प्रेम-प्रसंग के बारे में पूछती है, तब शकुंतला उससे इसका समाधान मांगती है। समाधान में सखी कोई गीत या प्रेम-पत्र लिखने का सुझाव देती है। शकुंतला गीत लिखकर सखी को सुनाने ही वाली थी कि दुष्यंत का प्रवेश दिखाया गया है और दुष्यंत इस गीत को क़तील शिफ़ाई की शायरी में तब्दील करके मंच पर शायराना अंदाज में कहते हैं,

रब्त-ए-बाहम पे हमें क्या न कहेंगे दुश्मन
आश्ना जब तिरे पैग़ाम से जल जाते हैं
जब भी आता है मिरा नाम तिरे नाम के साथ
जाने क्यूँ लोग मिरे नाम से जल जाते हैं

इस दृश्य के बाद सभागार एकदम शांत एवं दृश्य समाप्त होने पर हल्की-फुल्की तालियों की आवाज सुनाई देती है पर सच्चाई यह है कि हर दर्शक के चेहरे पर एक सवाल है, कुछ धीमी आवाजों में सुनाई दिया, ‘अभिज्ञान शाकुंतलम् नाटक में तो यह नहीं था इस शायरी की जरूरत क्या थी मजा खराब कर दिया यार’। इसके बाद 15 मिनट का विराम दिया गया और उसके बाद शकुंतला का अपने मायके से ससुराल जाने का एक लंबा दृश्य। जब वह राजा दुष्यंत के राज्य में पहुंचती है। वहां पर जो दो दृश्य दिखाए गए हैं, वह आश्चर्यचकित कर देने वाले हैं।

पहले दृश्य में एक स्त्री वैश्या का रूप धारण कर, जैसे ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ फिल्म में गंगूबाई अपने कोठे के बाहर खड़ी होती है हुबहू उसी रूप में खड़ी है और कुछ पुरुष बराबर में बैठे हुए सिगरेट पी रहे हैं। एक पुरुष उठकर आता है और उस स्त्री को ‘चल यार’ कहता हुआ अंदर खींचकर ले जाता है, दूसरे दृश्य में शकुंतला उन्हीं पुरुषों के बीच से गुजर रही है और वे उससे छेड़खानी करने का प्रयास करते हैं, दृश्य समाप्त।

इन दोनों दृश्यों में ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ के नाम पर, रंगमंच पर सिनेमाई दुष्प्रभाव दिखाई पड़ता है। अभी तक तो ठीक था, लेकिन सर्वाधिक दर्शकों को नाटक के समापन ने चौका दिया। समापन के दृश्य में राजा दुष्यंत वनों में शकुंतला को खोज रहे हैं। शकुंतला का पुत्र भरत अब कुछ बड़ा हो गया है और शेर के साथ खेल रहा है। उसकी माता जानवर को परेशान करने से उसे मनाकर रोकती है और अपने साथ खेलने को कहती है।

नाटक ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ का पोस्टर

आंख पर पट्टी बांधकर दोनों खेलने लगते हैं। तभी राजा दुष्यंत का प्रवेश होता है। भरत अपनी माता से पूछता है। माता यह कौन हैं? शकुंतला जवाब में कहती है, बेटा यह तेरे पिता हैं। सुनते ही भरत राजा दुष्यंत की गोद में जा बैठता है। तब राजा दुष्यंत शकुंतला को साथ चलने को कहते हैं पर शकुंतला चलने से मना कर देती है, कहती है अब मैं नहीं जा सकती लेकिन आप अपने वारिस को ले जाइए। इसी दृश्य में राजा अपने शायराना अंदाज में मुनीर नियाज़ी की ग़ज़ल पेश करता है,

बदलते मौसमों की सैर में दिल को लगाना हो
किसी को याद रखना हो किसी को भूल जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

किसी को मौत से पहले किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ उस को जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं हर काम करने में

इसके बाद शकुंतला कहती है कि राजा मैं आपके साथ नहीं जाऊंगी। अब मैं सबला और स्वाबलंबी हूं। इतना सुनते ही राजा दुष्यंत बिना विलंब किए बेटे को गोद में उठा चले जाते हैं और इस प्रकार नाटक का समापन होता है।‌ नाटक का संगीत, मंच परिकल्पना, नृत्य संयोजन एवं निर्देशन प्रो.विदुषी ऋता गांगुली ने किया है। मुझे लगता है कि इस तरह की परिकल्पना एवं समापन के पीछे निर्देशिका स्त्री सशक्तिकरण को दिखाना चाहती हैं लेकिन वह स्वयं भी अपने अंदर बैठे पितृसत्तात्मक समाज से मुक्त नहीं हो पाई हैं।

एक पत्नी जिसको उसके पति ने स्वीकार नहीं किया और ना ही परिवार ने प्रसव स्थिति में वन में छोड़ दिया गया। कितनी कठिनाइयों से वह अपनी संतान का लालन-पोषण करती है और अंत में एक दिन पति आता है और संतान को घर का जिराग कहकर मांग लेता है और सबला स्त्री संतान को झट से उसे सौंप देती है। यह कैसा सशक्तिकरण हुआ? खैर…

नाटक की पटकथा बहुत कमजोर लिखी गई। भाषा की कोई तारतम्यता नहीं न तो वह पूरी तरह से संस्कृत, न ही हिंदी, न ही देशज थी, मिलाजुला कोई नया रूप था। पटकथा और संवादों ने बहुत निराश किया। कथा को इस रूप में बदलने का क्या उद्देश्य है जहां पर मूल कथा दर्शकों तक पहुंच ही नहीं पाती। उस सभागार में न जाने कितने दर्शक ऐसे होंगे जिन्होंने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ के विषय में पहली बार जाना होगा, उनके मन में क्या धारणा पैदा होगी कि कालिदास द्वारा रचित अभिज्ञान शाकुंतलम् की कहानी यह है।

इस तरह की घटनाएं दर्शकों को भटकाव की ओर भी ले जाती हैं। यह बहुत दुखद है। ऐसे समय में जहां पर रंगमंच के प्रति रुचि रखने वाले लोगों की संख्या में कमी आई है, रंगमंच को समर्पित लोगों पर ही सिनेमा का इस तरह का प्रभाव दिखाई दे रहा है, बहुत निराशाजनक है। यह सब करके हम समाज और आने वाली पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहते हैं? आप भी सोचिए…

ख़ैर अभिनय बेजोड़ रहा, सभी का अभिनय बहुत प्रभावी था। मुझे सबसे अधिक प्रभावित शकुंतला और हिरनी के अभिनय ने किया। नाटक के बीच में शिव स्तुति की प्रस्तुति का भी दृश्य था, अद्भुत दृश्य था वह। संगीत और नृत्य भी प्रभावी था।

सोनम तोमरसोनम तोमर युवा लेखिका तथा हिंदी साहित्य की शोधार्थी हैं। साहित्य और सिनेमा के अंतर्संबंधों तथा रंगमंच में उनकी विशेष रुचि है।  

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