‘थप्पड़’ फिल्म एक बहस को जन्म देती है, जिसमें सबको हिस्सा लेना चाहिए

Thappad Movie

एकता प्रकाश

‘थप्पड़’ सिर्फ एक की कहानी नहीं हो सकती। हर एक के जीवन में कभी-न-कभी ऐसा मोड़ आता है। अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘थप्पड़’ एक महिला में आए बदलाव की कहानी है। यह थप्पड़ स्त्री के जीवन को त्रस्त करता है और अनेक रूपों में हमारे आपके सामने फूटता है। हमारे समाज में दो परिवारों के बीच की कड़ी को, बनाये हुए पुल को तोड़ता है। स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर पुरुष वर्चस्व वाले समाज की ‘सांकले’ लगी हों, उसको खोलने का यह एक नजरिया है। एक थप्पड़ लगने से उसे अनेक ‘थप्पड़’ दिखने लगते हैं, जिसे वह देख कर भी अनदेखा करती आ रही थी।

जीवन में कई ‘थप्पड़’ बार-बार लगने से उस पीड़ा के भीतर किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी स्त्री को हम साफ तौर पर देख सकते हैं। जो अवाक है, शांत हैं, संवेदनशील है… अपने अंदर की स्त्री के लिये। भारतीय समाज में पितृसत्ता ने स्त्री को हमेशा हाशिये पर रखा है और उसको दोयम दर्जें का रख छोड़ा है। “पुरूष सत्ता द्वारा बनाए गए उस चक्र को समझने एवं उसे धवस्त करने की अपील करती है यह फिल्म। “एक ‘थप्पड़’ ही तो है, जाने दे…” कैसे हम इन बातों को नजरअंदाज कर जाते हैं या हल्के में लेते हैं। इस पर फिल्म बड़ी तार्किकता से अपनी बात कहती है।

एकबारगी तो ऐसा लगता है सिर्फ थप्पड़ के लिये घर छोड़कर ससुराल से मायके में रहने लगना। फिर पिटिशन दाखिल करना। उस थप्पड़ के खिलाफ लड़ना कहाँ तक युक्तिसंगत है? सारी लड़ाई की जड़ यही थप्पड़ है। पर ऐसा नहीं है। ‘थप्पड़’ एक बहस को जन्म देता है, जिसमें सबको हस्तक्षेप करना चाहिए। जो उन विचारों को खंगालती, टटोलती और उनकी छानबीन करती हैं, जिनमें पुरुष के पास थप्पड़ मारने का अधिकार है। पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करने में ही हमारी सफलता है। नहीं तो हम देखते हैं कि स्त्रियाँ अन्याय और उत्पीड़न के प्रति जितना विरोध कर रही है, उनके प्रति पितृसत्ता द्वारा दमन भी बढ़ रहा है।

परिस्थितियों से मुक्त होने का संघर्ष दोनों वर्गो को मिलकर करना होगा। सीमॉन द बुआ के कथन से सहमत होते हुए यदि कहा जा सकता है कि ‘स्त्री होती नहीं बना दी जाती है’ तो यह भी कहा जा सकता है कि ‘पुरुष होते नहीं बना दिये जाते हैं’। समाज में पितृसत्ता इस आधुनिक समय में पहले के मुकाबले ज्यादा प्रभावी ढंग से अवतरित होकर अपनी सत्ता पर कायम है। पारिवारिक संस्कारों, विचारों, समाजिक संरचना में आवश्यक बदलावों से ही स्त्री और पुरुष दोनों को पारंपरिक स्त्रीत्व और पुरुषत्व की जगह मनुष्यत्व और इंसानियत की प्रतिष्ठा की जा सकती है। लैंगिक बराबरी की शुरुआत करनी है तो उसे परिवार से शुरू करना होगा।

फिल्म की नायिका ‘अमृता’ संजीदगी से स्त्री-विमर्श से जुड़े प्रायः सभी तो नहीं लेकिन कुछ ही अहम सवालों की पड़ताल करती दिखती है। उसे कुछ समझ नहीं आता कि यह सब कुछ कैसे, क्या और क्यों हो रहा है। इस फिल्म में चर्चा शादी के टूटने या उसे तोड़ने की नहीं है। कोई महिला अपनी शादी को कैसे देखती है ये उस बारे में है। शादी क्या होती है और उसकी जिंदगी में किस तरह मायने रखती है। फिल्म में गैर जरूरी बातों, निरर्थक सवाल, बिना भाषणबाज़ी किये सीधे सवाल को उठाया गया है, “एक थप्पड़ ही तो है मगर नहीं मार सकता”। यहाँ फोकस स्त्री की स्थिति को दर्शाता है। पहले और फिर उसके बाद उसे किन परिस्थितियों से गुजरना होता है। क्या-क्या झेलना व सुनना पड़ता है।

सामाजिक संरचना में यह सत्य हमें धैर्य के साथ स्वीकार करना होगा कि सकारात्मक बदलाव के तौर पर हम तय किये गये मापदंडों को उखाड़े फेंकें। स्त्री विमर्श चाहे कितना भी आधुनिक हो जायें पर समस्याएं वहीं की वहीं ज्यों की त्यों खड़ी दिखाई देती है। मर्दवादी मान-मर्यादा व इज्जत-प्रतिष्ठा की इतनी ऊँची-ऊँची दीवारें खड़ी कर दी गयी है कि उन्हीं दीवारों में औरतों की इच्छाओं की अतृप्त लहरें ठोकर मारती रहती है। दीवारों से टकराकर वापस अपने ही घरौंदे में अपने उड़ते-खुलते पंखों को समेट-सकुचा कर अटाने की समायोजन करने की कोशिश करती है।

‘थप्पड़’ यह नहीं दिखलाना चाहती है कि आपकी जिंदगी में गलत कैसे हुआ? इस सवाल को पीछे छोड़ते हुए यह सवाल करती है कि गलत क्यों हुआ? इस सवाल को बार-बार दोहराया जाता है। आप चाहे महिला हो या पुरुष दूसरों के शर्तों, उसकी इच्छाओं, आंकाक्षाओं के अनुसार आप जिंदगी जीने लगते हैं। तो आप खुद की पहचान को धीरे-धीरे खोना शुरू कर देते हैं। और एक दिन ऐसा आता है आप खुद से नफरत करने के लिये मजबूर हो जाते हैं।

सबकी जिंदगी के कुछ खास छोटे-छोटे पहलू, छोटी-छोटी कहानियां… हमारा ध्यान इसी बात की ओर खींचती है। घर में काम करने वाली नौकरानी अपने पति से मार खाती है और घरेलू हिंसा की शिकार है। अमृता की वकील की लाइफ है जो बाहर लड़कियों के इंसाफ की लड़ाई लड़ती है। पर अपने खुद के पति से दबकर रहने में मजबूर है। अपने पति की शोहरत में घुटती है, वह किसी दूसरे के पास अपना दुख-दर्द साझा करती है। झूठी-सच्ची कहानियों के जाल में अटकी, निराधार दलीलों के बीच फंसी छटपटाती दिखती है।

एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार के लोग अपने बच्चों की जिंदगी सुधारने के चक्कर में अपने सपने से समझौता कर लेते हैं। अमृता की माँ ने अपने गानों के शौक की इसलिये तिलांजलि दे दी क्यूँकि उनका मानना है कि रिश्ता निभाने के लिये एक को हमेशा झूकना पड़ता है। अमृता की सास अपने बेटे के लिये अपने पति से अलग रहती है। उनकी राय यह होती है कि बेटा बर्दाश्त करो। “औरतें ही रिश्ते को जोड़कर रखती है।” दिनेश श्रीनेत अपनी समीक्षा में लिखते हैं, “औरतें अपने दुःख की पोटली घर में ऐसी जगह छिपा देती है, जहाँ से वह किसी को न मिलें!” तो मैं यह कहती हूँ कि हम महिलाएँ ही अपनी इस स्थिति के लिये जिम्मेदार हैं। हमें इसी दुख के पोटली की गिरह में पड़ चुकी गाँठों को खोलना है… तभी हमारी या हर किसी की आने वाली पीढ़ियों की मुक्ति संभव है।

एकता प्रकाश,  पटना विश्वविद्यालय पटना (बिहार) अनिसाबाद

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