स्मिता अखिलेश
खाये, पीये, अघाए लोगो के तथाकथित स्त्रीवाद का प्रतिनिधित्व करती फ़िल्म है ‘थप्पड़’। जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। यह कहीं न कहीं स्त्रियों की उस लड़ाई को कमजोर ही करेंगी जो वो सच मे अपने स्वाभिमान और अस्मिता के लिए लड़ रही है ।
कहानी का पूरा फोकस एक ‘थप्पड़’ पर केंद्रित है जिसके सहारे यह बताने का प्रयास किया गया है कि उस थप्पड़ से नायिका का स्वाभिमान जाग जाता है और वह सोचने लगती है उन अघटित थप्पड़ों को या उन समझौतों को जो वह अब तक करते आई है या सहती आई है। घटनाओं की बार बार पुनरावृत्ति के बाद भी कहानी का प्लाट यह बताने में असफल रहा है कि नायिका ने वाक़ई अपने सपनों के साथ कोई समझौता किया होगा।
नायिका सुबह उठती है, अपने लिये चाय बनाती है, इत्मीनान से सवेरे का फोटो खींचती है, दिन में बाजू में डांस सिखाती है, अकेले मायके भी चले जाती है, देर रात तक रुक भी जाती है, घर मे खाना बनाने के लिये सर्वेंट है और कोई सवाल भी नही है। निर्देशक को यह पता नहीं कि स्त्रियों को शादी के तुरंत बाद के सालों में इतनी छोटी छोटी बात के लिये भी मशक्कत करनी पड़ती है। लड़ना होता है जवाब भी देना पड़ता है। जिन्हें नायिका एक प्रेमिल माहौल में कर रही होती है।
अब सवाल यह उठता है कि आसानी से हासिल तमाम सुख-सुविधा भोगी नायिका को क्या थप्पड़ मारा जा सकता है? नहीं। यह थप्पड़ किसी पुरुष द्वारा स्त्री को मारा गया थप्पड़ नजर नहीं आता। निर्देशक इसे एस्टेब्लिश करने में असफल रहे हैं। यह सामान्य सी घटना लगती है कि किन्ही दो की लड़ाई के बीच मे अचानक से आवेश में आकर अचानक मारपीट शुरू हो गई हो और बीच बचाव करने वाला कोई भी उसका शिकार ही गया हो, जो किसी के साथ भी हो सकता है, कहीं भी हो सकता है।
यह थप्पड़ उस परिस्थिति में उसकी मां, पिता या किसी मित्र के गालों पर भी पड़ सकता था। जिसका रिक्शन वाकई बुरा ही रहता। यदि नायिका अपनी मेड के साथ होती हिंसा में उसके साथ खड़ी होती, हिंसा का विरोध करना सिखाती, तब कहीं लगता कि स्त्री के पक्ष में फ़िल्म में कोई बात है और एक स्त्री अस्तित्व की अवधरणा को जीने वाली स्त्री को, उसका पति थप्पड़ मार देता है, और वह ठगा महसूस करती है ।
लेकिन नायिका अपनी मार खाती मेड को लेकर ‘ओके’ है। इतनी ही ओके वह अपने खिलाफ पिटीशन में लगाये गए आरोपों को लेकर भी है। यह आरोप उसे मानसिक हिंसा नहीं लगती, जो कभी भी शारिरिक हिंसा से कमतर नहीं है ।
लेकिन नायिका को यह बुरा नहीं लगता वह इन सबके बावजूद भी अपने पति से सामान्य बात करती है। उसका प्यार पति से खत्म हो जाता है, लेकिन यह फ़िल्म में नज़र नहीं आता, एक तो इन परिस्थितियों में कोई अपने बच्चे को जन्म देना ही नहीं चाहेगी, फिर भी मान ले कि यह उसका व्यक्तिगत फैसला है तो भी कोई स्वाभिमानी स्त्री उसे बताने या फेवर लेने अपने पति के पास नहीं जाएगी।
बहुत से लूप होल्स है, कहानी में। यहाँ पर सब अच्छे हैं। पिता भी अपनी बेटी के प्रति हिंसा को लेकर ओके है। माँ भी सास भी वकील भी। यहां तक पति भी अच्छा है। विक्टिम सिर्फ वह एक घटना है और उस घटना को गलत समझे जाने के समर्थन में और कोई गलत घटना नही है। इतना ओके मूवमेंट तो सूरज बड़जात्या की फिल्मों में भी नही होता।
लेकिन दिक्कत इस बात से नही है दिक्कत इस फ़िल्म को ओवररेटेड किए जाने से है । कोई सार्थक या गंभीर सिनेमा नही है न ही समाज मे कोई समाधान या संघर्ष की अंतर्कथा ही कहती है। न ही कोई ऐसा प्रेम है कि स्त्री अपना सारा अस्तित्व ही भूल जाये।
यदि स्त्री एक नरक से निकल कर बाहर आना चाहती है तो उसे पता होता है कि वहाँ एक दूसरा नरक सजा इन्तज़ार कर रहा होता है और जब वह इसके जोखिमों को जानकर भी अपने वजूद, अपनी पहचान की लड़ाई लड़ती है तभी वह समाज के लिये समाधान दे सकती है ।
अफसोस कहीं से भी इस फ़िल्म में ऐसा नज़र नहीं आता। इतना सहज सामान्य रास्ता नहीं होता ।