फ़िल्म ‘जलसा’ : सच और झूठ के बीच अंतर्द्वंद्व

फिल्म जलसा की समीक्षा

सोनम तोमर

विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत का स्थान पिछले साल की तुलना में 142वें स्थान से खिसककर 150वें स्थान पर आ गया है। सन् 2016 में भारत का 133 वां स्थान था। सिनेमा ने समय-समय पर पत्रकारिता को अपनी विषय-वस्तु बनाया है। इनमें ‘नायक’, ‘नो वन किल्ड जेसिका’, ‘पीपली लाइव’, ‘रण’, ‘नूर’, ‘मद्रास कैफे’ आदि फिल्मों को देखा जा सकता है। अधिकतर फिल्मों में एक पत्रकार के जीवन और उसकी चुनौतियों व संभावनाओं को समाज के सामने लाने का प्रयास रहा है।

हाल ही में ऐसे ही एक महिला पत्रकार के जीवन को आधार बनाकर ‘जलसा’ फिल्म बनाई गई है। वर्तमान समय में तो ‘पत्रकारिता’ पर गहरा संकट मंडरा रहा है। एक दौर था जब पत्रकारिता ने स्वाधीनता आंदोलन से लेकर तमाम आंदोलनों में अस्त्र-शस्त्र के रूप में भूमिका निभाई थी। उस समय तलवार की जगह अखबार निकालने को प्रेरित किया गया। अकबर इलाहाबादी के शब्दों में-

खींचो ने कमानो को न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो

लेकिन वर्तमान समय को देखते हुए उम्मीद फ़ाजली का शेर याद आता है-

आसमानों से फरिश्ते जो उतारे जाएं
वह भी इस दौर में सच बोले तो मारे जाएं

‘जलसा’ फिल्म में पत्रकार के इसी सच और झूठ के बीच अंतर्द्वंद्व को दिखाया गया है। पत्रकार माया मैनन (विद्या बालन) अपने सच और झूठ के बीच में फंसी हैं, इनकी समस्या यह है कि ये न तो सच बता पाती हैं और न छिपा पाती हैं। लेकिन इनकी पहचान हमेशा ‘सच के साथ’ खड़ी होने वाली पत्रकार के रूप में दिखाई गई है।

‘जलसा’ फिल्म के माध्यम से हिंदी सिनेमा ने ईमानदार पत्रकार के चरित्र को दर्शाने का प्रयास किया है। साथ ही यह एक संदेश भी है कि चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति क्यों न आएं पत्रकार को सच के साथ ही खड़ा होना चाहिए।

पिछले कुछ सालों से ऐसा लग रहा है कि यह स्त्री चरित्र प्रधान फिल्मों का दौर है और ऐसी फिल्मों को बहुत सराहा भी जा रहा है। हाल ही में आई कृति सेनन की फिल्म ‘मिमी’ दर्शकों को बहुत पसंद आई। इसके अतिरिक्त ‘थप्पड़’, ‘पगलैट’, ‘छपाक’, ‘मरदानी’ आदि फिल्में इस बात का उदाहरण हैं।

‘जलसा’ सुरेश त्रिवेदी द्वारा निर्देशित है। इनके निर्देशन में ‘तुम्हारी सुलु’ जैसी फिल्में भी बन चुकी हैं। ‘तुम्हारी सुलु’ में भी विद्या बालन ने सुलोचना का किरदार और अशोक का मानव कौल ने निभाया था। ‘जलसा’ फिल्म में भी मुख्य भूमिका निभा रही माया मेनन के किरदार में विद्या बालन और उनके पति की भूमिका मानव कौल हैं।

फिल्म ‘तुम्हारी सुलु’ ने IIFA 2018 में ‘बेस्ट फिल्म’ का अवॉर्ड अपने नाम किया था। इस फिल्म में विद्या बालन का अभिनय कहानी में जान डाल देता है। लेकिन ‘जलसा’ फिल्म में विद्या बालन को टक्कर देती शेफाली शाह कम संवादों में भी अधिक प्रभावी दिखाई दी हैं।

अभिनेत्री शेफाली शाह ने ‘दिल्ली क्राइम’ सीरीज में भी बेहतरीन काम किया था। ‘जलसा’ फिल्म में दो बेहतरीन अदाकारा आमने-सामने दिखाई देती हैं, जिसमें माया मेनन (विद्या बालन) उच्च वर्ग और रुखसाना (शेफाली शाह) निम्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं।

माया पत्रकार हैं और रुखसाना उनके घर पर कुक और केयर टेकर का काम करती है। रुखसाना की एक बेटी और बेटा हैं। बेटी 19 साल की है। माया की मां का किरदार जानी मानी अभिनेत्री रोहिणी हट्टंगडी ने निभाया है। रोहिणी हट्टंगडी ने ‘गांधी’ और ‘पार्टी’ जैसी फिल्मों में काम किया है। फिल्म की कहानी माया मेमन द्वारा नशे में गाड़ी चलाने से हुई एक गलती पर आधारित है। उस गलती के इर्द-गिर्द ही पटकथा को बुना गया है।

गाड़ी की तेज रफ्तार, एक हल्की सी उन्मुक्त हँसी और अगले ही पल सब समाप्त जैसे आसमान में गुम हो गई हो होठों की मुस्कान, दौड़ते कदमों की आहट और सबकुछ एक नींद के झोंके से खत्म होकर एक चीख में बदल गया। ये चीख रुखसाना की बेटी की थी जिसको वह किसी भी कीमत पर पढ़ाना चाहती थी पर कल के बारे में कौन जानता है?

जीवन कितना अनमोल और अनिश्चितताओं से भरा होता है, एक पल पहले की खुशी एक पल बाद दुख में तब्दील हो जाएगी कोई कह नहीं सकता। ऐसा अनुभव बीते दो सालों के कोविड-19 में हम सभी ने किया है।

‘जलसा’ फिल्म के शीर्षक को देखकर लगता है कि यह किसी बड़े उत्सव या समारोह के संदर्भ में होगा। लेकिन फिल्म देखने के बाद इस शीर्षक से अधिक साम्य नहीं दिखाई देता, पूरी कहानी में एक दर्द और द्वंद्व बना रहता है। लेकिन अभिनय का कोई जोड़ नहीं है।

विद्या बालन और शैफाली शाह दोनों ने अपने किरदार को बखूबी जीया है। फिल्म के संवादों से अधिक जगह मौन को दी गई है जो कहानी के दर्शाने की विशेषता बतलाता है। चेहरे के भावों और धीमा संगीत कहानी को आगे बताते हैं कभी-कभी यह बात दर्शकों को बोर भी करती है।

इस फिल्म में दृश्य विधान पर काफी काम किया गया है मुझे एक दृश्य याद आ रहा है, जब रुखसाना की बेटी का एक्सीडेंट हो जाता है और वह सरकारी अस्पताल में भर्ती हो जाती है वहां से माया मेनन उसे अच्छे अस्पताल में भर्ती कराती हैं और रुकसाना को कहती है ‘आज रात आईसीयू में रहेगी, मोस्टली कल तक रूम में आ जाएगी’ रूम में बेड पर बैठी रुखसाना जिस तरह से नम आंखों से माया मैनन को देखती है उस पूरे दृश्य में कोई संवाद नहीं है और वह दर्शक की भी आंखें नम कर देता है।

ऐसे तमाम दृश्य हैं, फिल्म के अंत का दृश्य ही ले लीजिए दर्शकों को लगता है कि रुखसाना ने माया मैडम के बेटे को समंदर में ले जाकर डुबो दिया होगा लेकिन‌ वह रात के अंधेरे में समंदर के किनारे बैठी हुई उसे मिलती है और माया मैडम का बेटा और रुखसाना का बेटा एक नाव में खेल रहे हैं।

यह दृश्य इतना मार्मिक है कि बिना कुछ कहे भी सब कुछ कह देता है। आक्रोश में आकर बदला लेने के उद्देश्य से निकली रुखसाना चाह कर भी आयुष के साथ गलत नहीं कर पाती। इससे यह भी सीखा जा सकता है कि चाहे कितनी भी कठिन परिस्थितियों में हम क्यों न घिर जाए लेकिन हमारा मूल स्वभाव अगर किसी को कष्ट पहुंचाने का नहीं है तो हम कभी किसी को जानबूझकर कष्ट नहीं पहुंचा सकते।

‘जलसा’ इस तरह के मनोविज्ञान पर भी बात करती है। इसमें एक किरदार पत्रकार रोहिणी का है जो दक्षिण भारत की रहने वाली है। फिल्म अंत तक दर्शकों के मन में तमाम प्रश्न छोड़ देती है जिस पर वर्तमान समय में चिंतन करना बहुत जरूरी है फिल्म की कथा, पटकथा, संवाद, अभिनय और निर्देशन पर गंभीर काम किया गया है।

सोनम साहित्य और सिनेमा के अंतर्संबंधों पर शोधरत हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य तथा सिनेमा से जुड़े आलेख प्रकाशित। मेरा रंग में सिनेमा पर नियमित आलेख व टिप्पणियां। 

Jalsa movie review by Sonam Tomar. In the film ‘Jalsa’, the conflict between this truth and lies of the journalist has been shown.

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