निष्ठा अभिजित अग्निहोत्री
अनामिका अनु द्वारा संपादित किताब ‘यारेख’ अतुलनीय प्रेम पत्रों का संकलन है। लेकिन इन प्रेम पत्रों की चर्चा होने से पहले अनामिका द्वारा लिखे गए ‘संपादकीय’ हिस्से पर चर्चा करना भी आवश्यक लगता है। बकौल अनामिका इश्क ‘लोहरदगा की ख़दान’ है। लेकिन इस ख़दान से केवल ‘प्रेम’ प्रस्फुटित होता है। जिसके बहुत सारे रंग किताब में बिखरे पड़े हैं। प्रेम, जो बिछड़े हुए प्रेमी की यादों में सदियों तक खोया रह सकता है। व्यक्ति चाह कर भी प्रेम को ठीक वैसा नहीं व्यक्त कर सकता जैसा उसने इसे जिया होता है। फिर भी लिख देना बेहद हल्का करता है। फिर मन चाहे प्रसन्न हो या दुःखी।
यदि शब्द धड़कते तो इन्हे छूकर महसूस किया जा सकता था। फिर लिखने वाले चुनकर लाते जीवित शब्द, जो कभी लिखे हुए पन्नों से भाग जाते तो उनकी खोज शुरू हो जाती। प्रेम में प्रत्येक व्यक्ति अपने अलग अनुभव चुनता है। प्रेम कभी गंभीर दर्शन है तो कभी आध्यात्मिक सुख। यह कभी क्रोध है कभी पीड़ा, कभी डर तो कभी जोखिम। प्रेम किसी लाइब्रेरी में ब्रायोफाइटा की किताब पर पड़ी हुई धूल को देखना भी है और किसी नाले के बगल में उगे हुए फ़र्न को निहारना भी। ‘प्रेम है’ यह कहना जितना कठिन है उससे कहीं ज्यादा कठिन है प्रेम लिखकर बताना। तभी तो पहला प्रेमपत्र लिखते हुए भी आँखें नम होती हैं और अंतिम लिखते हुए भी। प्रेम की बेसब्री और प्रेम में धैर्य दोनों अप्रतिम हैं।
अनामिका नें अपने विशिष्ट कहन में बहुत से अलौकिक प्रेम को मिसाल के रूप में लिखा है। इन कथनों में दाग़ दहलवी और मुन्नी बाई, नेपोलियन और लूसी, सफ़िया और जाँ निसार अख्तर, अर्नेस्ट हेमिंग्वे और मैरी वेल्स, जॉन कीट्स और फेनी ब्राउन आदि के उद्धरण प्रवेश करते हैं। जिन्हे पढ़ते हुए मालूम पड़ते हैं प्रेम के अद्भुत और वृहद रूप, प्रेम का पर्याय और प्रेम की पौराणिकता। यदि कहा जाए कि पहला प्रेम पत्र आज से पाँच हज़ार ईसा पूर्व लिखा गया था तो एक सेकंड के लिए आश्चर्य जरूर होगा, लेकिन तत्काल ही ब्रह्मांड में दैदीप्यमान इस प्रेम शब्द से इश्क़ ज़रूर हो जाएगा। इस प्रेम शब्द का फ़लसफ़ा ऐसा है जिसमें बेचैनी लिख कर भी राहत नहीं मिलती।
जिस प्रकार पुराने घरों में आने वाली गौरैया चूल्हे पर चढ़ने वाली अल्मयुनियम की डेकची से निकलते धुएं को देख कर फुर्र हो जाया करती थी, ठीक उसी प्रकार आज यह धुआँ टेक्नॉलाजी से निकल रहा है और पत्र लेखन गौरैया समान फुर्र होता जा रहा है। आज भी ‘लाल डाक बक्से’ इन पत्रों की प्रतीक्षा में खड़े हैं इस उम्मीद के साथ कि लेखन की परंपरा लौटे और हर घर में गौरैया के फुदकने हेतु एक टहनी बची रहे।
अनामिका अनु ने ऐसे ही प्रेम को गुनकर इसे विलुप्त होने से बचाए रखने की आस में अपने परिचितों को इन्हें लिखने के लिए प्रेरित किया। इस बात का उत्सव मनाया जाना आवश्यक है।
इस किताब के यह ३६ प्रेम पत्र तिलिस्म बिखेरते हैं। इन सबके तिलिस्म को एकसाथ चुन पाना बेहद कठिन होगा, लेकिन थोड़ी बहुत चर्चा किए बिना रह जाना भी मुश्किल है न ? ध्यान से देखा जाए तो यह पत्र हमारे आस पास छिटकी कहानियाँ ही तो हैं जिन्हे सब के द्वारा महसूस किया जाना आवश्यक है।
- पहला पत्र ‘अनामिका’ का है जिसमें शुभाशंसा वाकई एक नन्ही गिलहरी सी है जिसे अब केवल एक असंभव सा जीवन जीना है। क्योंकि उसके लिए प्रेम असंभव है और इससे ज्यादा अपना उसके लिए कोई नहीं।
- वहीं किसी पत्र में ‘अनुज’ ने अपनी सोना के होने का रोमांटिसिज़्म उससे दूर होकर भी उसके लिए गीत गाकर बिखेरा है। यह प्रेम उन्हें थकने नहीं देता और जीवन पथ पर प्रतिपल अग्रसर रखता है।
- जहाँ ‘अनुराधा’ ने अपने पत्र में प्रेमी से नाराज़गी जताई है। वहीं ‘आकांक्षा’ ने पति-पत्नी के प्रेम की मधुरता एक दूसरे को पत्र लिखते रहने में बताई है।
- फिर आता है ‘आलोक’ का अपने बचपन की पाठशाला को प्रेम बताना, जहाँ एक ७५ साल का व्यक्ति प्रेम परिभाषित करते हुए खुद को प्रेम की उम्र में लेकर पहुँचता है और इसे पढ़ते हुए अचानक अगले पृष्ठ पर ‘उमर’ का प्रेमपत्र बिम्ब फैलाते हुए अंत में अपने दिल को गायब कर देता है। लेकिन क्यों ? पत्र पढ़कर स्वयं जानिएगा।
- ‘डॉक्टर ऊषाकिरण’ का पत्र यह याद दिलाता है कि इस दुनिया में ‘स्वदेश दीपक’ जैसे बहुत से व्यक्ति गायब हो जाया करते हैं। जिनके जाने के बाद उनसे प्रेम करने वालों पर क़यामत हमला करती है। और कोई न कोई अपनी अंतिम साँस तक अपने उस प्रेम की प्रतीक्षा करता है।
- ‘गीताश्री’ अपने पत्र में एक जगह कहती हैं… “प्रेमपत्र भरोसेमंद लोगों को देना ही सुरक्षित होता है अतः यह पत्र मैं दुनिया के किसी डाकघर में नहीं डाल सकूँगी। हम लेखकों का डाकघर है ‘किताब’ जहाँ हमारी सारी चिट्ठियाँ जमा होती हैं। इसलिए इसे यहाँ प्रेषित कर रही हूँ और यह किताब हज़ारों प्रेमियों तक इस ख़त को पहुँचाएगी”।
- ‘जमुना बीनी’ के पत्र में मिलता है उस बरगद का नया नाम, जिसकी छाँव तले उनका प्रेम पनपा, बढ़ा, जुदा हुआ और मिलकर फिर जुदा हुआ।
- ‘जयंती रंगनाथन’ का लुदु के प्रति प्रेम यह दर्शाता है कि एक निर्जीव वस्तु से भी जादुई प्रेम करना संभव है।‘तेजी ग्रोवेर’ अपने प्रेमी को लॉरेल का पत्ता कहकर अपने जीवन का हर रंग पत्र में दर्शाती हैं। इस पत्र में बर्फ की खुशबू है, काँच की चुभन है, समंदर की लहरे हैं, पेरिस की शामें हैं और खंडहर नुमा ज़ीने हैं, भूल भुलैया है, एक काँपता हुआ शरीर है जिसे पूरे दिन केवल पत्र लिखने की इच्छा है और साथ में है उस काँपते हुए शरीर द्वारा दी हुई बहुत सारी संस्तुतियाँ।
- ‘त्रिभुवन’ अपने पत्र में जुदाई के ग़म को अपनी संपत्ति बताते हैं। इस पत्र में दर्द से भी केवल प्रेम ही प्रस्फुटित होता दिखता है।
- ‘नन्द भारद्वाज’ का पत्र मित्रता में भी प्रेम होने के मायने बताता है। प्रेम के जिस अध्यात्म को दुनिया समझ नहीं पाई है अब तक उसे लिखकर समझाना बेहद ज़रुरी है। यहाँ मालूम होता है कि प्रेम का शादी तक पहुँचना या शादी में होते हुए किसी दोस्त के पवित्र प्रेम में होना कोई बड़ी बात नहीं।
- ‘नीलेश रघुवंशी’ का प्रेम उनकी डायरी के पन्नों में मिलता है, एक अंश देखिए…
“मुझे कुछ नहीं चाहिए और सब कुछ चाहिए, उनींदी रातें मुझे फिर से समेट रही हैं। मैं खुशियों के समंदर में गोते लगाना चाहती हूँ। लेकिन दुःख अपना जाल फेंक रहे हैं बार बार। क्या मैं जीवन में वह सब पा सकूँगी जिसके लिए मैंने छोटी खुशियों को अपने से दूर जाने दिया। उम्मीदें कभी साथ न छोड़ें।” - ‘मनीषा कुलश्रेष्ठ’ का पत्र शब्दों को स्वप्न के बादलों पर सवार कर इंद्रधनुष में पिरो कर दो युगलों के बीच के मौन को प्रेम रस में घोलता हुआ मिलता है। और ‘मैत्रयी पुष्पा’ का पत्र दुष्यंत और शकुंतला से पुनः मिलवाता है।
- ‘यतिश कुमार’ का पत्र, प्रेम होने के २२ साल बाद कविताओं में अपना प्रेम ढूँढता है। इस लिखाई में गद्य से पद्य और पद्य से फिर गद्य हो जाने के बीच कई रस कान में घुलते हैं, जैसे…
“फोन पर मानो
अनगिनत सिसकियाँ चिपकी पड़ी हैं
हूक मेरे मन का सीवन है
और मैं अबोले हैलो का गुबार लिए बैठा हूँ ”। - ‘शैलजा पाठक’ का पत्र एक अधूरे, पहले प्रेम के प्रति उसकी यादों का समर्पण है। और अंत में वहाँ यह लिखा मिलता है… “क्या फ़र्क पड़ता है, कम्बख़्त मोहब्बत के नाम लिखने से ज्यादा मिटाए गए। जो रह गया है, जो रह जाएगा इस यकीन के नाम मोहब्बत पहुँचे।”
- ‘सुदीप सोहनी’ अपने पत्र में कई जगह जादू बोते हैं, एक जगह वह लिखते हैं… “प्रेम की बहुत याद आने पर मैं अक्सर कोई शब्द एक ‘विश’ की तरह बादल पर टाक देता हूँ। कुछ समय बाद वह तारे सा टिमक आता है। बादलों का झुंड बेतरतीब मगर सम्भावना से भरा लगता है। अभी जहाँ संशय है शायद कुछ देर में साफ होकर किसी पेड़ पर उतर आए।”
- ‘संजय शेफर्ड’ का पत्र प्रेम में रोने वाले लड़कों का हृदय सुनाता है। ऐसे लड़के जो वर्तमान में घट रहे प्रेम के आह्लाद में ठीक उसी क्षण खुद को अपना पूरा जीवन व्यतीत करते हुए देख लेते हैं। जो प्रेम से ज्यादा प्रेम शब्द की खूबसूरती से प्रेम करते हैं और जीवन पथ पर भ्रमण करते हुए कई बार अपना प्रेम हासिल करते हैं। अंत तक सहेज कर रख लेने के लिए।
- ‘अनामिका अनु’ का तिलिस्मी प्रेम पत्र कई बार आँखें नम करता है। यह पत्र लेखिका के प्रकृति प्रेम को भी दर्शाता है। जहाँ सोनचंपा के वृक्षों से प्रेम हो जाता है वहीं प्रेम में और ज्यादा रमते हुए यह पत्र पंद्रहवीं शताब्दी के किसी मंदिर में अपने साथ ले जाता है। फिर किन्ही वाक्यों में जीवन के अंत तक प्रेम को पिरोते रहना समझाता है और दुःख के क्षणों में बड़े सुकून से सुख चुन लेना दर्शाता है।
पत्र में एक जगह नायिका सवाल पूछती है… “दुःखी आदमी को पृथ्वी कैसे ढो पाती है? दुनिया दुःख से भारी आदमी को ढोते ढोते ही घिसी होगी न ?” और फिर एक जगह वह अपना मरना देखते हुए कहती है…“मौत के बाद मैं देह से मुक्त हो जाऊँगी। सपाटू और नींबू के पेड़ों के पास जला दी जाऊँगी। वह कंटीली बेर कुछ नहीं कहेगी जिस पर मैं धड़ल्ले से चढ़ जाया करती थी, उसके काँटों की परवाह किए बिना। जामुन मुझे ख़ाक होता देख सिहरेगा और उसके स्याह फल धीरे धीरे टपककर माटी पर अपनी लिपि में मातम का गीत लिखेंगे।”
नायिका इस पत्र में अपने प्रेमी के साथ आखिरी बार रोना चाहती है और खत्म हो जाने के बाद पंछी बनकर लौट आना चाहती है।
सोचिए कितना अद्भुत होगा वह एहसास जब आप इन प्रेम पत्रों को स्वयं पढ़कर प्रफुल्लित होंगे। मेरा विश्वास है यह प्रेम पत्र आप सबको जीवन में आए हुए सत्य प्रेम का एहसास दिला कर मुक्त प्रेम करना सीखाएंगे। ऐसा प्रेम जीत-हार, लेन-देन, मिलन और जुदाई के दुःख से ऊपर उठ कर केवल प्रेम में मुसकुराना सिखाता है। इस किताब का जादू और इससे निकली प्रेममय मुस्कुराहटें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचनी चाहिए।
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मेरा नाम निष्ठा अभिजित अग्निहोत्री है। मैं बनारस से हूँ लेकिन फिलहाल मुंबई में रहती हूँ। यहाँ बनारस को याद करते हुए वहाँ के प्रसिद्ध कवि ‘व्योमेश शुक्ल’ की लिखी एक लाइन ज़रूर कहना चाहूँगी कि “बनारस मेरे लिए वह है जो मेरी हड्डियों में बसता है।” मैंने महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ वाराणसी से “मास कम्यूनिकेशन” में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की है। किताबें मुझे बचपन से आकर्षित किया करती थीं।
रस्किन बॉन्ड कृत ‘रस्टी के कारनामे’ मेरे द्वारा पढ़ी गई पहली किताब थी। हिन्दी साहित्य में मुझे निर्मल वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, रस्किन बॉन्ड, अमृता प्रीतम, मानव कौल का लेखन पढ़ना बेहद पसंद है। इसके साथ ही सेल्फ हेल्प की किताबें भी मुझे बेहद आकर्षित करती हैं। मैंने लिखना तीन साल पहले शुरू किया और मेरा मानना है कि लेखन एक ऐसी प्रक्रिया है जो पूरी तरह से आपके पढ़ने पर निर्भर करती है। व्यक्ति जितना ज्यादा से ज्यादा पढ़ने को समय देगा उतनी ही ज्यादा उसकी लेखनी मजबूत होगी।