एसआर हरनोट की कहानियां और पर्वतीय श्रमिक-स्त्री-जीवन का खुरदरा यथार्थ

उत्तराखंड का श्रमिक स्त्री जीवन

चैताली सिन्हा

एसआर हरनोट किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका लेखन ही उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का परिचय है। शिमला की पिछड़ी पंचायत व गाँव चनावग में 22 जनवरी, 1955 को जन्में हरनोट जी ने पर्वतीय जीवन की सुंदरता और जटिलताओं को जिस सूक्ष्मता से उकेरा है वह स्वानुभव से ही संभव है। किसी संचार माध्यम से प्राप्त की गई जानकारियों से नहीं। एसआर हरनोट की कहानियों में निहित स्त्री जीवन और उनका सामाजिक सरोकार यह सोचने पर विवश करता है कि आज भी स्त्रियों का जीवन सहज और सरल नहीं है। आज भी स्त्री दोयम दर्जे का जीवन जीती हैं। शायद इसीलिए स्त्री को ‘दुनिया का पहला दास कहा गया है।’

पर्वतीय सौंदर्य के विपरीत स्त्री-जीवन के खुरदरे यथार्थ को चित्रित करना एसआर हरनोट के कथा शिल्प की विशेषता है। इस घातक सौन्दर्य के भीतर घुसकर सामाजिक-यथार्थ को पकड़ लाने का साहस करते हैं हरनोट का रचना संसार। यह एक ज़मीन से जुड़े हुए रचनाकार ही कर सकते हैं, जिन्होंने पर्वतीय अंचल में नज़र आनेवाली खूबसूरती से परे उसके भीतर की जटिलताओं और अभावों को उजागर किया है। अब तक हमारे ज़हन में जिन पर्वतीय अंचल का सौन्दर्य विराजमान था, उन सारे प्रतिमानों को एक-एक करके ध्वस्त करती हैं ये कहानियाँ। ऐसी कहानियाँ जो पहाड़ों के सौन्दर्य को चीरते हुए उसके भीतर प्रवेश करके वहां के दुर्गम एवं अभावग्रस्त जीवन-शैली को उकेरने का प्रयास करते हैं। इतना ही नहीं हरनोट की प्रायः प्रत्येक कहानी में पर्यावरण की चिंता के साथ-साथ स्त्री-जीवन की पीड़ा भी दृष्टिगत होती है। जहाँ वे बताते हैं कि किस प्रकार यहाँ की सीधी-सादी दिखनेवाली जीवन-शैली के भीतर एक तनाव है।

एसआर हरनोट
एसआर हरनोट

दरअसल यह तनाव उनकी स्त्री-केंद्रित कहानियों में निहित वह तनाव है जो पितृसत्ता के विरुद्ध है। कथा की वस्तु और उसकी अंतर्वस्तु दोनों ही कहानियों की पृष्ठभूमि को मज़बूत बनाती है और पठनीय भी। वैसे तो हरनोट जी की प्रत्येक कहानी-संग्रह की अपनी एक अलग विशिष्टता है परन्तु यहाँ विशेष बल उन कहानियों पर दिया जाएगा जिनमें ‘स्त्री-जीवन’ एवं ‘श्रमिक-स्त्री-जीवन’ पर बात की गई हो। कहानी संकलन ‘मिट्टी के लोग’, ‘दारोश तथा अन्य कहानियां’, ‘जीनकाठी तथा अन्य कहानियां’ एवं ‘लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ इत्यादि के अंतर्गत कई कहानियाँ शामिल हैं। इन कहानियों में विषयों की वैविध्यता है। इन कहानियों में एक ऐसे समुदाय या वर्ग का चित्रण है जिन्हें उनकी जड़ों से बेदखल कर देने की साज़िश निरंतर चली आ रही है। उनकी समस्याओं के प्रति रचनाकार की छटपटाहट, विवशता एवं चिंता को हम इन कहानियों में देख सकते हैं। उदाहरणार्थ : “गरीबी में आटा उस समय गीला हो गया जब उस सड़क के काम पर भी कई किस्म की मशीनें पहुँच गईं। धीरे-धीरे मजदूरों के लिए मशीने चुनौती बनकर खड़ी हो गईं। जो काम बीस-तीस मज़दूर करते थे, उन्हें अब लंबी-लंबी गर्दनों वाली मशीनें करने लगी थीं।”

इसी से मिलती-जुलती उनकी अगली कहानी है जो मिटते अस्तित्वबोध की कहानी है। नदी का गायब होना अर्थात् हमारी जड़ों से हमारी चीजों को उखाड़ फेंकना है। नदी का गायब होना कोई जादुई शब्द लगता है परंतु लेखक ने इस शीर्षक के माध्यम से एक बहुत बड़ी समस्या को हमारे सामने रखा है। नदी का गायब होना कोई आकस्मिक घटना नहीं है बल्कि यह एक सुनियोजित योजना है जिसे धीरे-धीरे अंजाम तक पहुँचाया गया था। लेखक इसी योजना को समझाने का प्रयास करते दीखते हैं।

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पहाड़ी जीवन के चितेरे हरनोट ने अपनी कहानियों में पहाड़ी जीवन का अभाव, उसमें व्याप्त समस्याएं पाठक वर्ग के सामने बहुत ही बेबाक़ी से रखने का प्रयास किया है जो आज और अधिक चिंता का विषय बनी हुई है। संसाधनों का अभाव, विद्यालय, महाविद्यालय, अस्पताल आदि की कमी आस-पास बड़े अस्पतालों का अभाव पर्वतीय अंचल के लोगों के लिए कई बार जानलेवा भी सिद्ध होता है। पहाड़ों का दुर्गम मार्ग गाँव के लोगों के लिए मौत का कारण बन जाती है। खासकर तब, जब किसी गर्भवती स्त्री को शहर के किसी अस्पताल में ले जाना हो। इसका उदाहरण हम उनकी मार्मिक कहानी ‘चीखें’ में देख सकते हैं। इस कहानी में न केवल पहाड़ी जीवन की समस्याओं पर फोकस है बल्कि पूरी की पूरी कहानी स्त्री-अस्मिता से जुड़ी हुई है।

एक ऐसी कहानी जिसमें ग्रामीण परिवेश से लेकर शहरी परिवेश का संवेदनहीन चरित्र पेश किया है लेखक ने। एक स्त्री जो अपनी प्रसव-पीड़ा से कराह रही हो ऐसे में ससुराल और पति को इस बात की फिक्र ज़्यादा है कि यह बेटा जनेगी या फिर से बेटी को ही जन्म देगी! “माघीराम बेटा होने के लिए भगवान् और देवताओं को की गई मन्नतों की याद दिला रहा था। रामो की चीखें जितनी तेज निकलतीं वह उतना ही देवताओं को याद दिलाता।” हमें इस स्थिति को समझने की ज़रूरत है। “ज्यों-ज्यों समाज का विकास होता गया, पुरुष में सत्ता का लोभ बढ़ता गया। वह अपनी संतान का स्वामित्व और संतान के माध्यम से अपनी परंपरा का नैरन्तर्य चाहने लगा। स्त्री में प्रजनन की क्षमता होते हुए भी पुरुष उसका स्वामी था, जैसे वह ज़मीन का स्वामी था। स्त्री की नियति थी पुरुष की अधीनता। प्रकृति की भांति पुरुष ने भी उसका शोषण किया। पुरुष के हाथ प्रार्थना में देवी के सामने झुके, लेकिन उस देवी का निर्माता वह स्वयं था।”

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इन सबके बावजूद भी ‘चीखें’ कहानी में रामो जिस प्रकार पितृसत्तात्मक समाज से होड़ लेती है, उनका प्रतिरोध करती है, यह आज के भूमण्डलीकरण के दौर में आधुनिक समय के जागरूक महिला सशक्तिकरण का उदाहरण है। यही कारण है कि कहानी के अंत में जब रामो को बेटी पैदा होती है तो वह फुले नहीं समाती। लेकिन पुरुष वर्चस्ववादी समाज में जहाँ लड़की को अभिशाप माना जाता रहा है, उसे कोख में आते ही उसका गला घोंट दिया जाता है, लिंग की जांच कराई जाती है, वहां स्त्री-अस्मिता की बात करना बेमानी-सा लगता है। हम जानते हैं कि किसी स्त्री के गर्भ से पुत्र या पुत्री का जन्म होना पुरुष के गुणसूत्रों (Y factor) पर निर्भर करता है न कि स्त्री के ऊपर निर्भर करता है। परंतु हमारे समाज की दकियानूसी सोच इसके लिए सदैव ही स्त्री को ज़िम्मेदार ठहराता आया है। परिणामतः स्त्री आज भी प्रताड़ित होने को विवश है। पितृसत्तात्मक समाज का उदय होना ही स्त्री जीवन के लिए कष्टदायी साबित होना रहा है। एंगेल्स ने कहा भी है कि –“मातृसत्ता से पितृसत्तात्मक समाज का अवतरण वास्तव में स्त्री जाति की सबसे बड़ी ऐतिहासिक हार थी।”

“सन 1901 में प्रति 1000 पुरुषों के पीछे 972 स्त्रियाँ थीं और सन 1991 तक इनका अनुपात घटकर प्रति 1000 पुरुषों के मुकाबले 927 रह गई। इसका एक अन्य उदाहरण यह भी है कि भारत में स्त्रियों की जैविकीय (Biological) श्रेष्ठता के बावजूद उनकी मृत्युदर अधिक है। हर छठी बालिका शिशु की मौत लैंगिक भेदभाव व उपेक्षा के चलते होती है। इसके अतिरिक्त स्त्रियाँ न सिर्फ़ अधिक काम, कुपोषण अर्थात् स्वास्थ्य सुरक्षा, बार-बार गर्भधारण का शिकार होती हैं, बल्कि दहेज़ को लेकर उत्पीड़न, पति के हाथों पिटाई और बालिका शिशु हत्या (infanticide), जैसी व्यवस्थित हिंसा का भी शिकार होती हैं।”

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शायद इसीलिए “जॉन स्टुअर्ट मिल और स्टेंडाल ने माना है कि किसी क्षेत्र में स्त्री को कभी कोई सुविधा मिली ही नहीं।” राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार सन 2011 तक स्त्रियों को रोजगार के इतने अवसर मिले हैं जितने पहले कभी नहीं मिले। लेकिन “आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण रिपोर्ट (2017-2018) के मुताबिक, देश में आज़ादी के सात दशकों के बाद पहली बार नौकरियों में शहरी स्त्रियों की भागीदारी अधिक हो गई है। शहरों में कुल 52.1% स्त्रियाँ और 45.7% पुरुष कामकाजी हैं। परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्रियाँ नौकरियों में अभी भी पुरुषों से पीछे हैं। हालांकि पिछले छह वर्षों में उनकी भागीदारी दुगुनी हुई है और यह 5.5% से बढ़कर 10.5% तक पहूंच गई है।” “शहरी कामकाजी स्त्रियों में से 52.1% नौकरी-पेशा, 34.7% स्वरोजगार तथा 13.1% अस्थायी श्रमिक हैं।”

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक बहुत अच्छी बात कही थी कि – ‘आप किसी राष्ट्र में महिलाओं की स्थिति देखकर उस राष्ट्र के हालात बता सकते हैं।’ सच है। इस कथन के पीछे उनका मंतव्य यही था कि किसी भी राष्ट्र के सामजिक और आर्थिक विकास में स्त्रियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। इसे हमारे सड़े हुए समाज की त्रासदी कहा जाए या उनका दुःख ! जहाँ एक तरफ तो स्त्री को देवी की संज्ञा दी जाती है, तो दूसरी तरफ़ रण्डी की गाली से नवाज़ा जाता है ! ये जो समाज का दोहरा चरित्र है, क्या इसका मूल्यांकन नहीं होना चाहिए? क्या इतना ही काफ़ी नहीं कि स्त्री को केवल स्त्री होने के नाते ही सम्मान मिले ! स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराध समाज में स्त्रियों की हीन दशा को दर्शाता है। “वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में महिला साक्षरता दर मात्र 64.46 फीसदी है, जबकि पुरुष साक्षात्कार दर 82.14 फ़ीसदी है।

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उल्लेखनीय है कि भारत में स्त्रियों की साक्षरता दर विश्व के औसत 79.7 % से काफ़ी कम है।” देश में अनुमानतः 24 करोड़ 50 लाख स्त्रियाँ निरक्षर हैं। वर्तमान में भारत में स्त्री साक्षरता दर 65% है। इसके अतिरिक्त भारत में स्त्री-स्वास्थ्य की स्थिति चिंताजनक है, यहाँ लगभग 50 प्रतिशत विवाहित स्त्रियों में रक्त की कमी है। भारत में 14.5 प्रतिशत माताओं की मृत्यु का कारण असुरक्षित गर्भपात है। जबकि स्त्री-स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए गर्भपात को वैधानिक करार दिया गया है। “हालांकि गर्भपात औरतों के अधिकारों के सबसे विवादास्पद मुद्दों में से एक बना रहा है। भारत में गर्भ के चिकित्सकीय अंत अधिनियम (Medical Termination of Pregnancy), 1972, द्वारा गर्भपात क़ानूनी घोषित किया गया था। परंतु आज भी अधिकांश औरतों को सुरक्षित गर्भपात सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं।” हाँ ये अवश्य कह सकते हैं कि आज हालात थोड़े सुधरे हैं। जैसे कि “2016 में प्रसव के समय माँ की मृत्यु के आंकड़ों में प्रायः 12 हज़ार की कमी आई है और ऐसी स्थिति में मातृ मृत्यु दर का कुल आंकड़ा पहली बार घटकर 32 हज़ार पर आ गया है।

स्त्री-संघर्ष पर आधारित कहानी ‘चीखें’ में कहीं-न-कहीं उपर्युक्त सभी स्थितियां दृष्टिगत होती हैं। परंतु जहाँ तक श्रमिक-स्त्री का जीवन है वह श्रम विकास सूचकांक में दर्ज नहीं हो पाता। अरविन्द जैन ‘मर्दों के लिए घर आशियाना और औरत के लिए जेलखाना है।’ शीर्षक लेख (‘स्त्रीकाल’, 16 जून 2014) में लिखते हैं – “अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (संयुक्त राष्ट्र) की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की 98% पूंजी पर पुरुषों का कब्ज़ा है। पुरुषों के बराबर आर्थिक और राजनीतिक सत्ता पाने में औरतों को अभी भी हज़ार वर्ष लगेंगे।” कटु सत्य है जिसे स्वीकार करने में गले में एक धसक सी लगती है। जबकि सच तो यह है कि यदि घरेलू कामकाजी स्त्रियाँ काम करना बंद कर दें तो भारत की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएंगी। इसका उदाहरण हमें इस कहानी में भी दिखाई देती है। जहाँ लेखक स्त्री-श्रम पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं – “उसकी घरवाली रामो खूब सुरमी थी। वह घर का सारा काम संभालती। उसके पास एक बैल जोड़ी, तीन गायें और सात-आठ भेड़-बकरियां थीं। जिन्हें उसने खूब पाला था।”

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भूमंडलीकरण और उदारीकरण की नीतियों से वह परिचित नहीं है। मृणाल पाण्डे के अनुसार – वर्ष 1993 का बजट महिला कामगारों के जीवन से सीधे जुड़े क्षेत्रों को जिस दृष्टि से देखता है। वह वस्तुतः भारत की महिला आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा है, और वह है कृषि क्षेत्र की महिलाएं। वह लिखती हैं – “आयातित कृषि तथा खाद्य प्रसंस्करण सामग्री पर आयात शुल्क में भारी छूट। यानी धान की रोपाई को भी मशीनें आ रही हैं। हाथ से होनेवाली रोपाई की अपेक्षा इस तरह लगाया धान ज़्यादा सस्ता होगा। पर बेदखल हुई धान रोपनेवाली वे औरतें कहाँ जायेंगी, यह शायद वित्त मंत्रालय का सिरदर्द नहीं।” उसके किए हुए श्रम को ‘अनुत्पादक श्रम’ माना जाता है जबकि सर्वेक्षण में घरेलू कामों से सकल राष्ट्रीय आय और बचत में इजाफ़ा होती है इनकी प्रतिभागिता से। ज़ाहिर है जिस कामगार स्त्री को लेखिका हमारे समक्ष प्रस्तुत कर रही हैं वह रामो से इतर नहीं हो सकती। वह भी रामो या अमरो जैसी ही कोई श्रमिक-स्त्री होगी। अमरो एक ऐसी श्रमिक-स्त्री है जो हथकरघा के कार्यों में कुशल है। हथकरघा उद्योग में जिस बड़े पैमाने पर कामगार स्त्री-श्रमिकों की छंटाई हुई है उस पर भी मृणाल पाण्डे ने प्रकाश डाला है कि किस तरह – “पावरलूम लगने से हथकरघा बुनकरों में भी महिलाएँ बेदखल हुई हैं। मुंबई तथा बंगलौर की झोंपड़पट्टियों में रहनेवाली लाखों औरतें जिस तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के टूथपेस्ट, क्रीम, टेलकॉम पाउडर जैसे उत्पादों को डिब्बाबंद करने के काम में जुटी हुई हैं, शायद वैसी ही कुछ नियति उन औरतों की भी होगी जो छोटी स्वदेशी फैक्ट्रियों की तालाबंदी या छंटनी की शिकार होंगी।” साफ़ तौर पर देखा जाए तो हाड़तोड़ परिश्रम का पारिश्रमिकी शून्य के बराबर है।

स्त्री-श्रमिकों की इस स्थिति पर काम करने की ज़रूरत है। सरकार की उदासीनता इन्हें बेहतर सुविधाओं से वंचित करने में अहम् भूमिका निभा रही है। इस ओर केंद्र एवं राज्य, दोनों सरकारों को ध्यान देने की नितांत आवश्यकता महसूस की जानी चाहिए। स्त्री-श्रम से संबंधित दूसरी कहानी है ‘मिट्टी के लोग’ जिसमें अमरो के माध्यम से स्त्री-श्रम एवं हथकरघा शैली पर विशेष बल दिया गया है। साथ ही स्त्री को शिक्षा से वंचित रखने की दलीलें भी। इसके अतिरिक्त लेखक ने अपनी इस कहानी में स्त्री-श्रम के महत्त्व को भी बताने की चेष्टा की है – “गज़ब की कला है अमरो के हाथ में। पत्तों से बनी बहुत सी कलाकृतियाँ तहसील तक के स्कूलों और दफ्तरों की दीवारों में लगी है। जो चीज़ बनाती है, लगता है किसी मशीन से बनी होगी।” लेकिन यह महज़ एक भुलावे की प्रशंसा है। वास्तविक छवि सदैव ओझल है, एक षड्यंत्र के तहत।

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इस षड्यंत्र को प्रभा खेतान ने उजागर करते हुए लिखा है कि –“विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 1965 से 1990 के बीच पूर्वी एशिया की आर्थिक विकास दर उच्च कोटि की रही। एशिया के 23 देशों में, अन्य सभी देशों की तुलना में ज़्यादा प्रगति हुई। जिसका प्रमुख कारण बाज़ार-व्यवस्था को बताया गया। लेकिन इस रिपोर्ट में ऐसा बहुत कुछ है जिस पर ख़ामोशी बरती गई। क्योंकि इन देशों की सफलता की कीमत चुकाई वहाँ की ग़रीब स्त्रियों ने। इस कहानी का दूसरा पक्ष देखा जाए तो इस कहानी में भी स्त्री-शोषण को केन्द्रित किया गया है, जहाँ एक ही परिवार में माँ और बेटी दोनों का शोषण साथ-साथ एक ही खानदान के लोगों द्वारा किया जाता है। गरीब तथा दलित स्त्री का शोषण समाज के धनाढ्य वर्गों द्वारा किया जाता है। परन्तु दलित स्त्री या कहें जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता उन्हें किसी से डर नहीं लगता। न घर में और न ही बाहर, वह निडर हो जाती है। सीमोन द बउआर ने पुस्तक ‘स्त्री के पास खोने के लिए कुछ नहीं’ में इसी बात का सुझाव दिया है कि “औरत की मुक्ति के लिए हमें आज और अभी संघर्ष करना चाहिए, इससे पहले कि समाजवाद का हमारा स्वप्न पूरा हो।

इसके साथ ही मुझे यह भी लगता है कि समाजवादी देशों में भी स्त्रियों और पुरुषों के बीच वास्तविक बराबरी हासिल नहीं की जा सकी है। इसलिए अब यह बहुत ज़रूरी हो गया है कि स्त्रियाँ अपना भविष्य स्वयं अपने हाथों में लें।” उक्त कथन को सार्थक करती है रामेशरी की यह गर्जना – “चौधरी ! अपने इस हरामी को बाहर कर। देखती हूँ इसकी माँ ने कितणा दूध पलाया है इस लफंगे को। अमरो ने तो इसके दो दांत ही तोड़े हैं, मैंने इसकी गर्दन न काट दी तो रामेशरी न बोलियो।” हरनोट जी के यहाँ प्रायः स्त्री का मुखर रूप ही लक्षित होता है, जहाँ स्त्री अपना प्रतिरोध दर्ज कराती हुई दिखाई देती हैं। अपनी अस्मिता को बचाने की जद्दोजहद करती रामेशरी और बेटी अमरो पहले अपने घर में और फिर समाज, दोनों से लोहा लेती है। घर में रामेशरी का पति है जो दोनों की ही अस्मिता पर चोट करता है, जब वह कहता है कि- “रांड, महाराणी बन के बैठी रहती है। न खुद कुछ करती है, न अपनी इस लाडली को कमाणे देती। गाँव में ज़मींदारों का इतणा काम पड़ा है उसको करते अब तुम्हारे को शर्म आने लगी है। मेरे से नी होता अब कुछ कि तुम्हारे को बैठ के खिलाया करूँ। रण्डी निकल जा यहाँ से और इन अपणे जायों को भी साथ ले जा…l”

स्त्रियों को गाली देने की यह जो परंपरा हमारे समाज ने विकसित की है वह परंपरा भी उसी मर्दवादी सोच की परंपरा पर आधारित है। जहाँ स्त्री को ‘रण्डी’ कहकर पुरुष समाज अपनी कुंठा का विरेचन करते हैं। गाली देते समय जिस रस का वह पान करते हैं वह पुरुष की अतृप्त कामेच्छा को दर्शाता है। मर्दवादी भाषा का विकास भी इसी सोच से फली-फूली होगी इसमें कोई संदेह नहीं। इस गाली की परंपरा को हम यूँ भी समझ सकते हैं – “स्त्री के स्वभाव को दोहरी प्रकृति वाला माना जाता है। वह देवी और वेश्या दोनों है। उसे नियंत्रित तथा वश में रखने के लिए किसी पुरुष का होना अनिवार्य है। सिर्फ़ पुरुष ही स्त्री स्वभाव के सकारात्मक पहलुओं को विकसित कर सकता है तथा नकारात्मक पक्षों का दमन कर सकता है। इसलिए स्त्रियों की पूजा भी की जाती है और उनका तिरस्कार भी।” शायद इसीलिए जर्मेन ग्रीयर ने अपनी पुस्तक ‘बधिया स्त्री’ में कहा है कि- “हमारा समाज सिर्फ़ उन्हीं संबंधों को मान्यता देता है और पूरी सुविधाओं के साथ प्रतिष्ठित करता है जो बाँधनेवाली, सहजीवी और आर्थिक रूप से निर्धारित हैं।”

एसआर हरनोट से शालिनी श्रीनेत की बातचीत

पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के मानवाधिकार के संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि स्त्रियों के अधिकार मानवाधिकार हैं और स्त्रियाँ केवल लैंगिक भेदभाव के कारण अन्याय का शिकार बनती हैं। इसी कहानी में हम देखते हैं कि यह न केवल स्त्री समस्या पर बात करती दिखाई देती हैं अपितु स्त्री अस्मिता की लड़ाई को भी पुरज़ोर तरीके से पेश करते हैं। हम कह सकते हैं कि स्त्री-अस्मिता की लड़ाई की शुरुआत भी इसी संघर्ष और असमानता की लड़ाई के कारण हुई होगी। समान काम के लिए समान वेतन की मांग और स्त्री पारिश्रमिकी की गिनती न होने के एवज में ये आंदोलन उग्र हुए। आगे चलकर इस मुद्दे पर कई महत्वपूर्ण आंदोलन हुए जिसे हम राधा कुमार की पुस्तक ‘स्त्री संघर्ष का इतिहास (1800-1990)’ में देख सकते हैं।

स्त्री-जीवन से जुड़ी लेखक की अगली कहानी है – ‘लाल होता दरख़्त’। इस कहानी में हमें लोक-परंपरा और बाल-विवाह दोनों दिखाई देते हैं। इसे सामाजिक कुरीति कहें या अंधविश्वास या हमारी सड़ी-गली कुप्रथाएं। आज भी अपनी झूठी शान और दिखावे के लिए छोटी-छोटी बालिकाओं का विवाह करा दिया जाता है। सिर्फ़ यह सोचकर कि बड़ी होकर कहीं ये खानदान का नाक न कटा दे। वैसे भी बेटियां पराया धन होती हैं तो उसे पराये घर तो जाना ही है। “बेटी पराए घर का धन है। उसे घर का सारा काम आना चाहिए। इसलिए इस छोटी-सी उम्र में मुन्नी हर काम में आगे है।” छोटी उम्र में बालिकाओं का विवाह करा देना न सिर्फ़ उसके स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना है बल्कि किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए ख़तरा भी है। बाल-विवाह से राष्ट्र और समाज दोनों को हानि होती है। इसपर ‘द जेसोर इंडियन एसोसिएशन’ ( विशेष रूप से बरहम मालाबारी के नेतृत्व में ) ने टिप्पणी करते हुए लिखा – “छोटी उम्र में विवाह होने से राष्ट्र की भौतिक शक्ति का ह्रास होता है। इसके कारण राष्ट्र की प्रगति एवं विकास तो अवरुद्ध होता ही है, बाल-विवाह लोगों के साहस एवं ऊर्जा को भी प्रभावित करता है। कम उम्र में हुआ विवाह समूची पीढ़ी को निर्बल एवं रुग्ण बना देता है।”

यह तो हुआ इसका सामाजिक कारण परंतु इसके वैज्ञानिक कारणों पर ध्यान दें तो देखेंगे कि बाल-विवाह से सिर्फ़ और सिर्फ़ स्त्री शरीर की हानि होती है पुरुष शरीर का नहीं। सर्जन मेजर डी.एन.पारिख,( चीफ़ फिज़ीशियन, गोकुलदास तेजपाल हॉस्पिटल बॉम्बे ) के मतानुसार – “कच्ची उम्र में विवाह होने के कारण स्त्रियों के प्रजननांगों का ठीक प्रकार से विकास न हो पाने तथा हड्डियों के जोड़ सुदृढ़ न होने के कारण स्त्रियों को बड़े पैमाने पर शिशु जन्म के समय अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कई बार तो स्त्रियों की मृत्यु तक हो जाती है।” कई बार ऐसे बच्चे विकलांग भी पैदा होते हैं। दूसरी ओर इस कहानी में जिस लोक-परंपरा के माध्यम से पेड़-पौधों के साथ छोटी लड़कियों के विवाह करा देने की प्रथा दिखाने की लेखक ने चेष्टा की है वह प्रथा आज भी मौजूद है। हरनोट जी लिखते हैं – “आँगन की तुलसी का विवाह विधिपूर्वक बेटी के विवाह जैसा होता है।…इसे बड़ा धर्म माना जाता है।” लेखक के अनुसार पहाड़ी अंचलों में आज भी प्राचीन परंपरानुसार पीपल का विवाह बेटे की तरह होता है। जैसे मुन्नी का हो गया था विवाह पीपल के पेड़ से !

बहुत ही गंभीर और मार्मिक कहानी है यह जिसमें स्त्री संवेदना की चरम व्यथा देखी जा सकती है। लड़कियों को बोझ समझने और पराए घर भेजने की जद्दोजहद में उसका सारा बचपन, सारा जौवन, सारी इच्छाएं कब तिरोहुत कर दिया जाता है पता ही नहीं चलता। उसकी अधूरी शिक्षा जिसे वह कभी पूरा नहीं कर पाई समाज की बलि चढ़ गई। बेटी को शिक्षित करने की चिंता से ज़्यादा उसे ब्याह देने की चिंता महत्वपूर्ण हो जाती है हमारे समाज के लिए। जो धन उसकी शिक्षा में खर्च करने के लिए सोचना चाहिए वह दहेज़ इकठ्ठा करने के लिए सोचने में लगा देते हैं माता-पिता। समाज की इस कुरीति से स्त्री का कभी भला नहीं हो सकता। कहते हैं यदि किसी घर में एक स्त्री शिक्षित होती है तो उससे दो परिवार (अपना और पति का) शिक्षित होता है। पूरा समाज शिक्षित होता है। परंतु आज भी स्त्रियों को किताबी ज्ञान कम और रसोई का ज्ञान अधिक दिया जाता है। पढ़-लिखकर क्या करेगी, खाना ही तो बनाएगी ! कितना हास्यास्पद है यह। स्त्री की यही नियति बना दी गई है।

निष्कर्षतः हरनोट जी की प्रायः प्रत्येक कहानी पहाड़, वन, पशु एवं पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने के हिमायती हैं। प्रत्येक कहानी दलितों की समस्या, स्त्री समस्या, जल, जंगल, ज़मीन की समस्या पर चिंता व्यक्त करते नज़र आते हैं। उभयलिंगी अर्थात् किन्नर समुदाय की वास्तविकता पर गहन अध्ययन का परिचय देते हुए किन्नर एवं हिजड़ा जैसे प्रचलित शब्दों का स्पष्ट भेद भी करते दिखाई देते हैं। ब्राह्मण एवं दलित समुदायों के बीच का टकराव अमूमन हर कहानी में बयां हुई है। इनके साक्ष्य हैं संग्रह की समस्त कहानियाँ जिनके नाम हैं– ‘सड़ान’, ’चीखें’, मिट्टी के लोग’, बेजुबान दोस्त’, ’दीवारें’, ‘किन्नर’, ‘नदी गायब है’, ‘अ-मानव’ एवं ‘नंदी मेनिया’। ये कहानियाँ छोटी मुँह बड़ी बात कहती हैं और पाठक वर्ग को सोचने-विचारने के लिए विवश करता है।

एक दूरदर्शी रचनाकार का महत्त्व इसी बात में है कि वे भविष्य को भांप लेते हैं। आनेवाला समय कैसा रूप ले सकता है इस बात का उन्हें आभास हो जाता है। जैसे कवियों के लिए यह उक्ति है कि ‘जहाँ न पहुंचे कवि वहां पहुंचे रवि’ ठीक यही उक्ति लेखक के लिए भी उपयुक्त है। एसआर हरनोट की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने छोटी-से-छोटी चीजों को भी अपनी कहानी का विषय बनाया है। इसे उनकी कलात्मकता ही कही जाएगी। कहानी के कथानक (प्लॉट) का ताना-बाना वे ऐसे क्षेत्रों से चुनते हैं जो पाठक वर्ग को क्षण भर के लिए आश्चर्य में डाल देता है ।
हरनोट जी ने अपनी कहानियों में स्त्री श्रम को कहीं भी नज़रंदाज़ नहीं किया है। प्रायः हर कहानी में उन्होंने स्त्री कामगारों की बात अवश्य की है। इससे उनके स्त्रीवादी दृष्टिकोण का पता चलता है जो कहीं-न-कहीं स्त्री-पुरुष समानता को दर्शाता है। ये कहानियाँ अपने साथ कई विषयों को आपस में समेटे हुए हैं।

हरनोट जी की कहनियों को पढ़ते हुए जो बात मन में खटकती है वह है कहानी का बड़ा कलेवर। कहीं-कहीं ऐसा लगता है कि कहानी में अनायास ही विस्तार दे दिया गया है। कई घटना-प्रसंगों को पढ़ते हुए ऐसा महसूस होने लगता है कि कुछ चीजों को नहीं भी जोड़ते तो कहानी में तब भी उतना ही प्रभाव पड़ना था जितना कि उन्हें जोड़ने से पड़ रहा है। कहानी की विशेषता उसके छोटे कलेवर में ही है। लम्बी कहानियां, कहानी को अक्सर बोझिल और नीरस बना देती है। भाषा सरल-सहज रूप में है जो समझने के लिए उपयुक्त है परंतु कहीं-कहीं बेमेल शब्दों का प्रयोग खटकने लगती है। जैसे कई स्थानों पर एक शब्द पढ़ने को मिलता है – ‘जैसे-कैसे’ यहाँ जो सटीक शब्द होनी चाहिए वह ‘जैसे-तैसे’ होनी चाहिए।

अंततः उपर्युक्त जिन कहानियों पर यहाँ चर्चा की गई है वह कुछ गंभीर विषयों को छू रही थी, जिनपर और गहन अध्ययन संभव है। पहाड़ों की सुंदरता, पर्यावरण की शुद्धता और पर्वतीय इलाकों में बसते जीवन, उनके भीतर मौजूद स्त्री-संघर्ष आदि इन सभी का समावेश हमें हरनोट जी की कहानियों में ही मिलती है यह कहना अनुचित नहीं होगा। एक सजग रचनाकार होने का परिचय वे अपनी कहानियों के माध्यम से देते हुए दिखाई पड़ते हैं।

संदर्भ
  1. एसआर हरनोट, ’मिट्टी के लोग’, आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16,
  2. पंचकुला-134113 (हरियाणा), प्रथम संस्करण : 2010 : पृष्ठ. 29
  3. वही, पृष्ठ. 108
  4. प्रभा खेतान,‘स्त्री : उपेक्षिता ’, हिन्द पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, संस्करण : 1998 ; पृष्ठ.53
  5. प्रभा खेतान, ‘स्त्री : उपेक्षिता ’, हिन्द पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, संस्करण : 1998 ; पृष्ठ.52
  6. साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता (संपा.), ‘नारीवादी राजनीति : संघर्ष एवं मुद्दे’, हिन्दी माध्यम कार्यन्वय निदेशालय, बैरक नं.2 एवं 4, केवेलरी लाइन, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली -110007, प्रथम संस्करण : 2001; पृष्ठ. 219, 300
  7. प्रभा खेतान,‘स्त्री : उपेक्षिता ’, हिन्द पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, संस्करण : 1998 ; पृष्ठ.67
  8. https://www.drishtiias.com>hindi
  9. वही
  10. वही
  11. साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता (संपा),‘नारीवादी राजनीति : संघर्ष एवं मुद्दे’, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली -110007, प्रथम संस्करण : 2001 ; पृष्ठ. 295-296
  12. https://www.drishtiias.com>hindi
  13. एसआर हरनोट, ’मिट्टी के लोग’, आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ.267, सेक्टर-16, पंचकुला-134113 (हरियाणा), प्रथम संस्करण : 2010 ; पृष्ठ.103
  14. मृणाल पाण्डे, ‘परिधि पर स्त्री’, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 7/31, अंसारी मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली – 110002, पहला संस्करण : 2017 ; पृष्ठ. 53-54
  15. मृणाल पाण्डे, ‘परिधि पर स्त्री’, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 7/31, अंसारी मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली – 110002, पहला संस्करण : 2017 ; पृष्ठ. 55
  16. एसआर हरनोट, ’मिट्टी के लोग’, आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16, पंचकुला-134113 (हरियाणा), प्रथम संस्करण : 2010 ; पृष्ठ. 27
  17. प्रभा खेतान, ‘बाज़ार के बीच : बाज़ार के खिलाफ़’, वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली – 110002, संस्करण : 2004 ; पृष्ठ.89
  18. मनीषा पांडेय (अनु.) ‘स्त्री के पास खोने के लिए कुछ नहीं है’, संवाद प्रकाशन, आई-499, शास्त्रीनगर, मेरठ- 250004 (उ.प्र.), पहला संस्करण : फरवरी, 2004 : पृष्ठ. 39, (मुंबई : मेरठ)
  19. एसआर हरनोट, ’मिट्टी के लोग’, आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16, पंचकुला-134113 (हरियाणा), प्रथम संस्करण : 2010 : पृष्ठ. 37
  20. वही, पृष्ठ. 39
  21. प्रभा खेतान, ‘बाज़ार के बीच : बाज़ार के खिलाफ़’, वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली – 110002, संस्करण : 2004 ; पृष्ठ. 125
  22. जर्मेन ग्रीयर, ‘बधिया स्त्री’, (अनु.) मधु बी.जोशी, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि.,1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली – 110002, पहला संस्करण : 2001 ; पृष्ठ. 20
  23. एसआर हरनोट, ‘दारोश तथा अन्य कहानियां’, आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ. 267, सेक्टर – 16, पंचकूला – 134113 (हरियाणा), प्रथम संस्करण : 2001 ; पृष्ठ.70
  24. राधा कुमार, ‘स्त्री संघर्ष का इतिहास : 1800 – 1990’, वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली – 110002, संस्करण : 2002, आवृत्ति : 2014 ; पृष्ठ. 61
  25. वही, पृष्ठ. 61
  26. एसआर हरनोट, ‘दारोश तथा अन्य कहानियां’, आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ. 267, सेक्टर – 16, पंचकूला – 134113 (हरियाणा), प्रथम संस्करण : 2001 ; पृष्ठ. 81
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