जागी सोई रातों के सपनों का जखीरा : सुषमा गुप्ता का कहानी संग्रह ‘तुम्हारी पीठ पर लिखा मेरा नाम’

तुम्हारी पीठ पर लिखा मेरा नाम
सुषमा गुप्ता का कहानी संग्रह 'तुम्हारी पीठ पर लिखा मेरा नाम' पर वैभव श्रीवास्तव

वैभव श्रीवास्तव

हिन्दी साहित्य में अपने अलग भाव-बोध वाले कथा साहित्य के लिए सुषमा गुप्ता अब एक स्थापित नाम हैं। उनके लेखन से मेरा परिचय कहानी-संग्रह ‘तुम्हारी पीठ पर लिखा मेरा नाम’ से हुआ था।

लेखिका अपने पहले उपन्यास ‘क़ितराह’ के लिए पिछले दिनों लगातार चर्चा में रही हैं। उनके कहानी-संग्रह और उपन्यास की शैली और कहन में ख़ासा अंतर रहा है। जहाँ उनकी कहानियाँ मनोविज्ञान की राहें टटोलते हुए इंसानी वजूद की परतें उधेड़ने की यातनामय कोशिश हैं वहीं उपन्यास में दर्शकों को पूरी तरह बांध लेने वाली वाली किसी मनोरंजक फ़िल्म या वेबसीरीज़ सी सरसता दिखी। इस तरह लेखिका ने अपनी कृतियों में अलग-अलग क़िस्म के पाठकों तक पहुँचने की अपनी सामर्थ्य भी बख़ूबी दिखाई है। उपन्यास की घनघोर चर्चा के बीच उनके कहानी-संग्रह की गहरी कहानियों को सेलिब्रेट करते रहने की इच्छा ही इस पाठकीय टिप्पणी के लिखे जाने की वजह है।

प्रेम के जितने क़िस्से उतने पहलू होते हैं, हो सकते हैं। कहानी-संग्रह पंद्रह कहानियों के ज़रिए इन्हीं मुसलसल पहलुओं को देखने-समझने की कोशिश है। ज़्यादातर कहानियाँ दरअसल लेखिका की डायरी के सफ़हों पर उभरी सतरें हैं :

“मेरी रातें अजीब रहस्यमय रातें होती हैं। जखीरा है जागी सोई रातों के सपनों का मेरे पास, पर अब कौन हिसाब रखे। अब तो मुझे यह तक भूलने लगा है कि कौन-सी बात सपने की है और कौन-सी जागती आँखों की।”

इसीलिए लगभग सभी कहानियाँ अपनी बुनावट में स्वप्न और जाग के बीच आवाजाही करती रहती हैं।

पहली कहानी ‘तुम उस क़यामत के दिन रो लेना’ मोहब्बत के तिलिस्म को तिलिस्मी अंदाज़ में ही पकड़ती है। अपनी देह के अंधेरों में घुट रहे हम सबके वजूद को स्वर देते हुए कहानी की जादूगर बुढ़िया कहती है :

“मेरे लिए उस लड़के को चूम लेना प्रेम क़तई नहीं था, पर मैं इसे वासना मानने को तैयार नहीं। हाँ, मैंने ये कई बार पहले भी किया और बाद में भी ….. एक रोज वह भी चूमकर भूलना सीख जाएगा। हालाँकि मैंने उसे शुरू में ही चेताया था, इस सीखने में तुम्हारी रूह की परतें उखड़ती जाएँगी।”

शीर्षक कहानी ‘तुम्हारी पीठ पर लिखा मेरा नाम’ सहज प्रेम और समाज के बीच फाँक को परिलक्षित करती है। इस फाँक से घुटती मासूमियत तड़प कर कहती है :

“कि जब बेहद ज़रूरी हो किसी को भूलना….उस समय पूरी कायनात ही आपको अपनी हर एक शय से उसी की याद दिला रही होती है।”

‘छोटे अघोरी का शाप’ कहानी रानी कह कर औरतों को उम्र भर ग़ुलाम बनाए रखने के हज़ार तरीकों को अनावृत करने में सफ़ल होती है। प्यार भरे मीठे संबोधन कई बार बस औरतों को इस्तेमाल करने का ज़रिया होते हैं। इसे पढ़ते हुए समर्थ लेखिका लक्ष्मी शर्मा की मार्मिक कहानी ‘रानियाँ रोती नहीं’ का कथ्य भी खूब याद आता है। निर्मल वर्मा की डायरी में ये बात दर्ज है कि प्रेम इस दुनिया का अंतिम इल्यूज़न है। कहानी इस कश्मकश को भी पकड़ती है :

“मैं कौन हूँ तुम्हारी ?”
“आख़िरी उम्मीद !” उसने चमकती आँखों से कहा।
“उम्मीद !”
“हाँ… कि ज़िन्दगी में जिस लम्हा सबकुछ बिखर जाएगा, सब खत्म हो रहा होगा, उन घोर निराशा के पलों में अगर मैं तुम्हें आवाज़ दूँगा तो तुम आओगी जरूर।”
“हाँ, मैं ज़रूर आऊँगी। पर तुम्हें इतना विश्वास कैसे है? दुनिया में सब कुछ बदलता है। मैं भी तो बदल सकती हूँ?”

विश्वास-अविश्वास के इस हिंडोले पर हम सभी कभी न कभी सवार हुए ही हैं।

‘नींद जो ख़्वाब में टूटती है’ कहानी किशोरावस्था की उन यातनाओं को छूने-समझने का हृदयस्पर्शी प्रयास है जिनकी छाप सारी उम्र हमारा साथ नहीं छोड़ती। शरीर के खेल में उलझता किशोर मन कैसे पूरी ज़िन्दगी के लिए अपने और दूसरों के मन को ज़ख़्मी कर डालता है – इस पर कहानी का वृत्त केंद्रित है।

‘विनर’ कहानी रिश्तों और प्रेम का तमाशा बनाकर भी अपनी सुंदर शफ्फ़ाफ़ छवि के साथ जीते लोगों की कलई खोलने के लिए एक सरप्राइज़िंग तरीका चुनती है। स्मार्टनेस के गुमान में डूबे लोग अपनी छिछोरी इच्छाओं को पूरा करने के लिए अक्सर चाशनी में भिगोयी हुई एथिकल और इमोशनल बातों का रास्ता अख़्तियार करते हैं। बस वो ये भूल जाते हैं कि इस सो कॉल्ड स्मार्टनेस का हथियार दूसरों के पास भी हो सकता है।

‘चाँद रात का शैतान’ कहानी प्रेम के नाम पर लूडो और शतरंज खेलने वाली दुनिया को आईना दिखाती है। कितने ही लोगों को प्रेम में मिले घाव ज़िन्दगी के राग-रंग के प्रति उदासीन बना देते हैं। अंत में यही सवाल बचता है कि इस उदासीनता की राह में हमने अपना डर छोड़ा है या अपनी उम्मीद!

‘तुम्हारे पास कोई दास्ताँ है!’ एक नन्ही सी कहानी है। एक मोहब्बत भुलाने के लिए जाने कितनी मोहब्बत कर डालीं – इस इकलौते वाक्य में कहानी का मुक़म्मल सच तड़पता रहता है और इस तड़प में कितने ही लोग, ख़ासकर आज के युवा पहली मोहब्बत के ज़ख़्मों की वजह से हमेशा के लिए पटरी से उतर गई अपनी ज़िन्दगी का सच देख सकते हैं।

‘बदलते हाथों का सफ़र’ और ‘शह और मात’ – इन कहानियों को पढ़ कर मनीष झा की 2005 में आई फ़िल्म मातृभूमि की बेचैन यादें लौट आईं। लड़कियों की ज़िन्दगी को अभी भी हममें से ज़्यादातर लोग देह से ऊपर कुछ और नहीं समझ पाए हैं – इस एक सच के आगे दुनिया की सारी सभ्यताएं अपनी अब तक की सब उपलब्धियों को संदेह की नज़र से देख सकती हैं।

मंगलयान और चंद्रयान बना रहे देश में सरकार के ताज़ा आंकड़ों के हिसाब से हर दो मिनट में तीन लड़कियाँ बलत्कृत होने के लिए अभिशप्त हैं। इन आंकड़ों के पीछे इंसानी वजूद के सबसे भयावह और अन्तहीन अन्याय की कहानी साँसें ले रही है। इसी अन्याय के कुछ सिरे पकड़ने की कोशिश ‘शह और मात’ में है। कहानी के शिल्प और व्याकरण से परे देखिये तो यहाँ दुनिया के कुछ सबसे घटिया सच पूरी बेशर्मी के साथ विद्रूप हँसी हँसते हैं।

अख़बार के पन्नों में हर रोज़ छपती रेप और मर्डर की कहानियों को पढ़कर अक्सर मन में ये सवाल कौंधता है कि जो मासूम लोग इन घटनाओं के चाहे-अनचाहे चश्मदीद होते हैं वो इन दृश्यों से कैसे उबर पाते होंगे और अपनी ज़िन्दगी कैसे बिताते होंगे। इसकी एक बानगी इस कहानी में मौजूद है और पूरी निर्ममता से मौजूद है।

‘तुम मेरी प्रेमिका हो’ पर एक मीठी और खूबसूरत सी शॉर्ट फ़िल्म बनाई जा सकती है। जब प्रेम को प्रेम की तरह ही बरता जाता है तो वो किसी चीज़ का मोहताज नहीं होता। शब्दों से उनका अर्थ छिनते जाने के दौर में इस कहानी में पहाड़ी मंदिर की घंटियों की पवित्र ध्वनि के बीच प्रेम शब्द भी अपने पवित्र अर्थ की और लौट पड़ता है। लेखिका के उपन्यास क़ितराह की पीठिका भी इन पन्नों में साफ़ दिख जाती है।

‘रूई के फ़ाहे सी लड़की’ में साहित्य की दुनिया में जिये जा रहे झूठ को नंगा किया गया है। लच्छेदार भाषा, बौद्धिक जुगाली और ज़हीन से दिखते चेहरे के पीछे कैसे इंसानी वजूद की सबसे घटिया इच्छाएं अपना गंदा खेल खेलने का रास्ता बना रही होती हैं उसे इस कहानी में बेरियायत नुमाया किया गया है।

‘मैं चरित्रहीन’ इस संग्रह में मुझे सबसे ज़्यादा पसंद आई। जब इंसानी प्रेम की ज़द में सारी कायनात आ जाती है तो उसे चरित्रहीन जैसे सस्ते लेबल्स से फ़र्क पड़ना बंद हो जाता है। आज के बहुत से संवेदनशील युवा अपनी रिलेशनशिप्स की जद्दोजहद का अक़्स इस कहानी में देख सकते हैं।

‘यस मैडम, ओके मैडम, लव यू मैडम’ कहानी प्रेम में आदर और विश्वास की केंद्रीय महत्ता स्थापित करने का सुंदर प्रयास है। ‘उसकी देह मेरा निस्तारण’ कहानी प्रेम में देह और मन की आँखमिचौली की शाश्वत गुत्थी को पकड़ने की तकलीफ़देह कोशिश है।

स्त्री होने के अपने दुख-अपनी त्रासदी है। इन कहानियों में प्रेम साधने की लगभग असंभव कोशिश में लगी स्त्रियाँ बार-बार बिखरती हैं और फिर-फिर ख़ुद को समेटती हैं। इसी जद्दोजहद में बैंकॉक के रेड लाइट एरिया में कोई लड़की इस अर्थ का गीत गाने को मजबूर है :

“मैं अपने होने का मर्सिया गाना चाहती हूँ..
मैं स्त्री हो जाना चाहती हूँ….”

इन कहानियों के घर में जब-तब कविताओं की खिड़कियां भी खुलती हैं। कहानियाँ अक्सर सिनिकल अंत की तरफ़ जाती हैं। लेकिन इनमें स्टेटस क्वो बदलने की तड़प पैदा करने की ताक़त भी है।

प्यार कैसे-कैसे छलावे और भुलावे साथ लाता है इसे सुषमा गुप्ता ने खूब महसूसा है। इसीलिए वो कभी प्यार के कान उमेठती हैं, कभी उसे थप्पड़ मारती हैं, कभी उसे बाहों में भरकर बेज़ार रोती हैं और कभी उसके लिए लुट जाने को तैयार हो जाती हैं। झाँकी देखिए:

  • रूहानी प्रेम… इस जुमले का इस्तेमाल जितना आसान है, उतना ही कठिन है इसे साधना । प्रेम यक़ीनन भोग है। कहीं मन का, कहीं तन का। पर इसे करने वाला ताउम्र भूखा ही रह जाता है।
  • अक्सर मासूमियत, छल सहते-सहते एक रोज़ कुटिल हो जाती है। इसलिए भी कुटिलता को हमेशा मासूमियत पर प्यार आता है।
  • इकतरफ़ा प्रेम की लत छोड़ पाना, दुनिया के ख़तरनाक से ख़तरनाक नशे की तलब दबा जाने से ज्यादा मुश्क़िल है।

इन कहानियों में बेचैनी है, भूख है, पागलपन है, दीवानगी है, एक ही समय में भरपूर जीने और जल्द से जल्द मर जाने की ख़्वाहिश की धूपछाँही मौजूदगी भी है। फिर कहीं इन सब से परे ले जाती हुई वीतरागी उदासीनता भी है:

“चल रही हूँ और चलती रहूँगी… रेगिस्तान की रेत पर, समंदर के गीले गारे पर, ओस से भीगी घास पर, तरेड़ खाई हुई सूखी त्रस्त धरती पर। उस तलाश में, जिसके अंत में मुझे वह प्रेमी मिलेगा जो मेरी रूह की आँखों पर फूँक मारकर कहेगा, जाओ ख़ुदा ने तुमको मुक्त किया, अब तुम भी ख़ुद को माफ़ कर दो।”

प्रेम को इतनी शिद्दत से जीने और लिखने वाली लेखिका पर हिन्दी अदब की दुनिया फ़ख़्र कर सकती है।

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