गीत की सिमसिम : गीत चतुर्वेदी के नए उपन्यास पर वैभव श्रीवास्तव

गीत चतुर्वेदी की किताब सिमसिम पर वैभव श्रीवास्तव
गीत चतुर्वेदी अपने नए उपन्यास 'सिमसिम' के साथ

वैभव श्रीवास्तव

उसके पास प्यार से बड़ा कोई तर्क नहीं – और इससे ज़्यादा वह कुछ कह भी नहीं पाता।
गीत चतुर्वेदी, सिमसिम

फ़रवरी के शुरुआती दिन थे। हिन्द युग्म के ऑफिस में एक किताब पर चर्चा करनी थी। चर्चा के बाद चाय-समोसे का दौर चल रहा था जब सामने किताबों वाली मेज़ पर गीत चतुर्वेदी का ताज़ा उपन्यास सिमसिम दिखा। पिछले कई दिनों से इस किताब के कोट्स सोशल मीडिया पर घूम रहे थे। गीत का लेखन पसंद रहा है इसलिए ये किताब तुरन्त ले ली गई। घर लौटकर इसके पन्ने पलटने शुरू किये। कई अधूरी पढ़ी किताबें इंतज़ार करती रहीं लेकिन अगले दो दिन मैं सिमसिम में ही खोया रहा। और अच्छे साहित्य की एक ज़रूरी शर्त पूरी करते हुए इस किताब ने पूरी होकर भी ख़तम होने से इनकार कर दिया।

सिंधियों के जीवन और रहन-सहन पर मेरा अध्ययन बहुत कम रहा है। ये उपन्यास याद दिलाता है कि उनकी दुनिया और उनके दुख भी हमारे अपने ही हैं। भारत के विभाजन के ग्रैंड नैरेटिव्स में उनकी कहानी उस शिद्दत से नहीं कही-सुनी गई जिस शिद्दत से पंजाब या बंगाल को कहा और सुना जाता है। सिमसिम पूरी संवेदनशीलता और तरतीब के साथ इस दुनिया पर पड़े पर्दे के कई धागे खोलती है। ऐसे अवसर आते हैं जब आप ग्लानि से भर जाते हैं कि विभाजन की तकलीफों में हमने सिंधियों की यातना को क्यों बिसरा दिया। ‘पंजाब सिंध गुजरात मराठा’ – की राष्ट्रीय लय में सिंध हमारे लिए क्या सिर्फ़ एक शब्द बन कर रह गया ?

विभाजन से गुज़र चुके सिंधी हिंदुओं का दर्द किताब में बार-बार उभरता है : “ज़िंदगी का एकमात्र संघर्ष था, बचते-बचाते ख़ुद को बसाना और अपनी संस्कृति को बचाना। उन्होंने औरतों के कपड़ों पर कढ़ाई की, काज-बटन लगाए, और साड़ियों पर फ़ॉल-पीको किया, बाँस के खोमचों पर बटर- पापड़ी जैसे झटपट नाश्तों की दुकान लगाई, मुंबई के वड़ा-पाव में ख़ास अपनी तरह का स्वाद भरकर बेचा। सस्ती मजदूरी से लेकर दलाली तक, छोटी-मोटी चोरियों से लेकर सुपारी किलिंग तक, उन्होंने हर तरह के काम किए।”

सिमसिम के सारे पात्र जितने साधारण हैं उतने ही विलक्षण भी। बसरमल जेठाराम पुरस्वाणी विभाजन झेलने वाले सिंधियों की त्रासदी और नियति का प्रतिनिधि पात्र है। उसकी खो चुकी कमसिन और मासूम प्रेमिका ‘जाम’ की कहानी दरअसल विभाजन का दंश सहने वाले सिंधियों की गुम हो चुकी मासूम दुनिया की ही कहानी है। बसरमल की पत्नी जो बिना किसी मंगण की माँ बने ही मंगण माँ कहलाती है – उसकी कहानी उसी सुनहरे भविष्य की कहानी है जिसे इतिहास और सियासत ने कभी तामीर होने का मौका ही नहीं दिया। दिलख़ुश सम्बोसेवाले की मासूम दुनिया भी यूँ ही उजड़ रही है। “क्या बिना स्पष्टीकरण दिए मेरा कोई अस्तित्व नहीं हो सकता?” – पूछने वाली नयी पीढ़ी की पिछली पीढ़ी के साथ पनपती खाई भी यूँ ही बढ़ती जाती है। एक भरी पूरी लाईब्रेरी भी उजड़ रही है। और इन सबके साथ दरक रही है एक दुनिया, एक सभ्यता और इंसानियत का साझा सपना।

उपन्यास संवेदनहीनता के नित नये कीर्तिमान रचती दुनिया को उघाड़ते हुए ‘बैक टू बेसिक्स’ का धप्पा भी मारता है :
“दुनिया के किसी नक्शे में इंसान नहीं दिखाई देता। इंसानियत का कभी कोई नक्शा नहीं बनता। उसे याद आता है, बरसों पहले बेरहमी से हिंदुस्तान के नक्शे को दो फाँक कर दिया गया था। तब भी उस नक्शे को बसरमल ने बहुत ध्यान से देखा था, उसमें ज़मीन से उखड़े अनगिनत इंसानों का झुंड कहीं नजर नहीं आया था, लेकिन उसमें से जलती हुई चिताओं की बू ज़रूर आ रही थी।”

इससे इतर बाज़ार और कॉर्पोरेट भी अपने विरोधाभासी नंगे स्वरूप में सिमसिम में जब तब आते-जाते रहते हैं। जिस ढीठाई के साथ ये इंसानों से उनकी इंसानियत छीन रहे हैं – गीत उसकी लौहवत अनिवार्यता को सटीक पकड़ते हैं। ऐसी अनिवार्य आपदा से निपटने के लिए उनके असहाय पात्र अक्सर प्रार्थना और करुणा के शाश्वत भारतीय उपाय पर जाकर टिकते हैं :
“छल जिन लोगों का बल है,
उनकी पेशानी पर ठंडे पानी की पट्टियाँ रखना, हे झूलेलाल !”

हम सब के हिस्से के दुख इस उपन्यास में आएंगे। बचपन के अटपटेपन के, पीढ़ियों के बीच कम्युनिकेशन गैप के, भूले बिसरे प्रेम के, भुलाई जा चुकी जीवन शैलियों के, हमारे होने के, हमारे जीने के, सभ्यताअों की त्रासदी के – सब। ऐसा वक़्त भी आता है जब ये दुख हमें लापता ईश्वर का पता ढूँढने पर मजबूर करते हैं। एरिक हेलर की बात याद आती है कि कहीं कोई ईश्वर नहीं है, पर कहीं किसी ईश्वर का होना बहुत ज़रूरी है। गीत इस बात को कुछ इस तरह कहते हैं – “हम सब अपना-अपना ईश्वर खुद बनाते हैं।” त्रासदी देखिये कि ” हर युग का ईश्वर पिछले युग के ईश्वर के मुकाबले अधिक अपूर्ण, अधिक असिद्ध दिखाई पड़ता है।”

एक प्रसंग में यह उपन्यास कलाकार के जीवन और कला में फाँक के चिरंतन पेचीदा सवाल को टटोलता है, बिना किसी आत्मछलना का सहारा लिए, पूरी ईमानदारी और बेरहमी से :
“शायरों जैसी ज़बान वाला कोई शख़्स क़त्ल कर सकता है? क्या कोई हत्या उतनी ही कोमलता से की जा सकती है, जिस कोमलता से कविता लिखी जाती है?” विडंबना यह है कि हम सब का मन इस बात के भयावह उत्तर से नज़रें मिला पाने में अक्सर अक्षम साबित होता है।

फिर इन सब दुखों से परे एक दुख किताबों का भी है जिसे सिमसिम चीन्हती है :
“मैं किताब हूँ और मैं यह बात अच्छे से जानती हूँ कि मनुष्यों के सबसे पुराने पुरखे की कहानी को मैंने ही बचाया है। लेकिन क्या कोई जानता है कि इस दुनिया की पहली किताब कौन-सी थी ? वह बची भी या नहीं? कोई नहीं जानता, क्योंकि किसी मनुष्य ने उस किताब को बचाया ही नहीं….इंसान आपस में एक-दूसरे को नहीं बचाते, तो किताबों को भला क्या बचाएँगे?”

इस क्षोभ को गीत आगे भी स्वर देते हैं और फिर सबको कटघरे में खड़ा करते हैं :
“किसी मस्जिद का मुल्ला किताबों को जला देता। कभी किसी चर्च का पादरी, तो कभी किसी मंदिर का महंत। सैनिकों ने जलाया। नेताओं ने जलाया। सेठों ने जलाया। गुलामों ने जलाया। कार्यकर्ताओं ने जलाया। नात्सियों ने जलाया। उनका विरोध करने वाले कम्युनिस्टों ने जलाया। उनका विरोध करने वाले लोकतंत्र-समर्थकों ने जलाया। आतंकवादियों ने जलाया। आतंकवाद का विरोध करने वालों ने जलाया।”

लेकिन सिमसिम इस दुख पर ही नहीं टिक जाती। वो इससे आगे जाकर किताबों का महोत्सव भी मनाती है। किताबें इंसानी वजूद की अंतहीन जद्दोजहद की सबसे पुख़्ता साथी हो सकती हैं। सबसे ज़रूरी। सबसे सुंदर। सबसे सहृदय। और सबसे ज़्यादा धैर्यवान। इसीलिए सिमसिम में एक भटकता दरवेश कहता है : “जो कुछ भी तुमने खोया है, उसे तुम किताबों में पाओगे।”

किताबें यहाँ उपन्यास के मानीखेज पात्र के रूप में तो मौजूद हैं ही साथ ही दुनिया भर के साहित्य के अध्ययन से चुन कर लाए हुए मोतियों को गीत हर अध्याय के ओपनिंग कोटेशन के रूप में इस्तेमाल करके इसे और ख़ूबसूरत बना देते हैं।

सिमसिम साहित्य है। साहित्य अपने भरपूर रूप में। अपनी बिरंगी धज में। अपनी समूची ठसक में। अपनी पूरी चमक में।
इसे पाठकीय आस्वाद के साथ-साथ किसी ज़रूरी ज़िम्मेदारी की तरह भी पढ़ा जा सकता है। इसके साथ समय गुज़ारा जा सकता है । ठहरा जा सकता है। जिया जा सकता है।

सिमसिम ऊपरी बुनावट में कैथार्सिस है। लेकिन इस में अंतर्निहित त्रासदी के साथ-साथ कहीं गहरे में एक हल्की थपकी भी है। एक प्यार भरा मीठा बोसा भी है। जीने की राह दिखाने की एक मीठी कोशिश भी है। तभी तो एक प्रेमी भोलेपन के साथ यहाँ इस बात को दर्ज करता है :
“मैं चाँद का अर्क हूँ, तुम्हारी आँखों में रहता हूँ,
तुम्हें पता है, तुम्हारी आँखों की रोशनी मुझसे है… ”
और उसकी काल्पनिक प्रेमिका कहती है –
‘जानते हो प्यार क्या है? किसी के मन में रहना! प्यार क्या है? किसी को मन में रखना!’

गीत इस उपन्यास के ज़रिये याद दिलाते हैं कि हम सबके पास ‘खुल जा सिमसिम’ वाली चाबी है। उसे पहचाना जा सकता है। और फिर उसके सहारे उम्मीदों से भरापूरा एक जीवन जिया जा सकता है। इस चाबी को जानते हम सब हैं लेकिन शायद अपनी सीमाओं की वजह से पहचान नहीं पाते। प्रेम की ताक़त को भूलना इतना ही आसान है आख़िर। लेकिन क्या प्रेम से ज़्यादा कारगर कोई चाबी हो सकती है जो इंसानी नियति के बंद दरवाज़े खोल सके?

इसीलिए गीत बार बार इतनी सहजता से दोहराते हैं कि उनके पास प्रेम से बड़ा कोई तर्क नहीं है। सिमसिम को कायदे और इत्मीनान के साथ पढ़ा जाना चाहिए। उसके बाद शायद हम सब भी इस इकलौते ज़रूरी तर्क को समझ पाएं।

गीत चतुर्वेदी के बारे में

27 नवंबर 1977 को मुंबई में जन्मे गीत चतुर्वेदी को हिंदी के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले समकालीन लेखकों में एक माना जाता है। कविता, कहानी और अनुवाद की उनकी बारह किताबें प्रकाशित हैं। उनके कविता-संग्रह ‘न्यूनतम मैं’ और ‘ख़ुशियों के गुप्तचर’ हिंदी की बेस्टसेलर सूचियों में शामिल रहे। कई पुरस्कारों से सम्मानित गीत को हिंदी साहित्य में योगदान के लिए यूरोप की संस्था ‘वातायन यूके’ ने ‘वातायन अंतरराष्ट्रीय साहित्य सम्मान’ दिया है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ सहित कई प्रकाशन संस्थानों ने उन्हें भारतीय भाषाओं के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में शुमार किया है। गीत की रचनाएँ देश-दुनिया की 22 भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। उनके उपन्यास ‘सिमसिम’ के अँग्रेज़ी अनुवाद (अनुवादक अनिता गोपालन) को ‘पेन अमेरिका’ ने विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित ‘पेन/हैम ट्रांसलेशन ग्रांट अवार्ड’ किया है।

किताब : सिमसिम
प्रकाशक ‏ : हिंद युग्म
पेपरबैक : ‎256 पेज
मूल्य : 249/-

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