सपना भट्ट का कविता संग्रह ‘चुप्पियों में आलाप’ : रचनाकार के हिस्से का सच बताती कविताएँ

Poems of Sapna Bhatt

वैभव श्रीवास्तव

कुछ किताबें ज़िंदगी में दोस्त बन कर आती हैंं! ऐसी दोस्त जो आपका मन आपसे भी बेहतर चीन्हती हैं।

निर्मल की ‘धुन्ध से उठती धुन’ और अरुंधति रॉय की ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ की ही तरह सपना भट्ट की ‘चुप्पियों में आलाप’ भी ऐसे दोस्तों की फेहरिस्त में शुमार हो गई है जिनकी तरफ़ मैं बार-बार लौटता हूँ।

इस किताब की कविताएँ दर्शन और सूक्तियाँ नहीं देती, वो काम करती हैं जो कविता को सबसे पहले और सबसे ज़्यादा करना चाहिए – ये कवि के हिस्से का सच बताती हैं। पीड़ा की साझेदारी ऐसी कि ये कविताएँ अपनी बात कहते-कहते कब हौले से हम सबके दुखों को सहला जाती हैं, पता ही नहीं चलता।

आत्म दर्प से चमचम उनके सुख-दुख से इतना अपनत्व महसूस होता है कि आंखें कब दुख से भीगती हैं और कब ख़ुशी से भर आती हैं- इसका ठीक-ठीक अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है। बानगी देखिये :

“मैं अब पत्थरों, पेड़ों और नदियों से अपने दुख कहती हूँ।
तुमसे कहना चाहा था, कभी कह नहीं पाई।”

“बिन कहे मेरी पीर समझना
बंजर आँखों का नीर समझना
मैं तुमको याद करती हूँ, मगर कहते लजाती हूँ।”

बौद्धिकता के आतंक में डूबते उतराते कृत्रिम विमर्शों से बजबजा रही कविताओं की दुनिया में उनका भोला-भाला सच अपने मन की बात ऐसे भी कहता है :

“मन के आकुल बेतार पर
भेजती हूँ एक चिंतातुर मनुहार
सुनो! अपना ख़याल रखना….
यह कोई कविता-वविता नहीं
प्रेम है…
बस इतना समझना”

ग़ालिब की ही तर्ज पर ‘ग़म-ए-हस्ती’ के किसी ‘जुज़ मर्ग’ इलाज का सहारा न लेते हुए वो प्रेम को अपना सहचर बनाकर अक्सर ही मृत्यु के सामने पूरी विनम्रता और समर्पण से प्रस्तुत होती हैं :

“जीवन बेहद क्षणिक और भंगुर है मेरे प्यार!
मैं बहुत सी कामनाएँ ढोकर नहीं मरना चाहती।
तुम पलटकर एक बार देख लेना बस ।”

उदयन वाजपेयी अपने उपन्यास क़यास में लिखते हैं – प्रेम अनंत में भागीदारी का नाम है इसलिए मृत्यु उसे समाप्त नहीं करती, उसमें शामिल हो जाती है। ये बात सपना दी की कविताओं में खूब निखरकर आती है :

“मेरे पैरों में डाल कर ताबीजी धागे
ले चलना मृत्यु के अनंत उत्सव तक मुझे।”

अकेलेपन की भीषणता और अनिवार्यता को वो इस तरह अपनी ज़िन्दगी में गूंथ लेती हैं कि ईश्वर के अकेलेपन के प्रति भी संवेदना से भर उठती हैं :

“तुम मेरे लिए इतना करना
मेरा हाथ थामकर
अकेलेपन से उकताए ईश्वर की
पेशानी चूमकर उसे शुक्रिया कहना।”

Chuppiyon Men Aalap by Sapna Bhatt
सपना भट्ट का कविता संग्रह ‘चुप्पियों मे आलाप’

और फिर कुछ पंक्तियाँ एकदम से महादेवी वर्मा की याद दिला देती हैं। उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच झूलती ज़िन्दगी में ये पंक्तियाँ बार बार गुनगुनाने का मन करता है :

“झरते हों जब बेमन मौसम
घिरता हो मन में तम ही तम
तिरती हों स्मृतियाँ मन में
अनहद नाद बजे धड़कन में
श्वास माधुरी सरगम गाए
सखी कोई दिन यूँ भी आए।”

मुझे अक्सर ही ऐसा लगा है कि इंसानी वजूद उम्र भर प्रेम को साधने में संघर्षशील रहता है। लेकिन प्रेम को साधना लगभग असंभव है। इस असाध्य को साधने की लड़ाई इन कविताओं में सपना दी जिस सलाहियत से करती हैं उससे कई बार ऐसा लगता है कि उन्होंने प्रेम के लिए चलने वाले इस अनवरत संघर्ष को ठीक उसके मर्म स्थल पर स्पर्श किया है :

“मैं तुम्हारी याद का भारी पत्थर पीठ पर नहीं
सीने पर बाँधे जाने कितने जन्मों की असम्भव यात्रा पर हूँ
कहते हैं, कुछ यात्राएँ कभी पूरी नहीं होतीं,
कहते हैं कुछ यात्री कभी कहीं नहीं पहुँचते”

‘चुप्पियों में आलाप’ की ज़्यादातर कविताएँ संवेदनाओं का महोत्सव सा मनाती दिखती हैं। वे रुलाती हैं, हँसाती हैं, कभी ढेर सारे सवालों तो कभी कुछ जवाबों से हमारा तआ’रुफ़ करवाती चलती हैं। एक से बढ़कर एक इन कविताओं में सभी की ख़ुसूसियत समेटना यहाँ संभव नहीं।

मुझे इल्म है कि ज़िंदगी की बारिश में पुर नम होने की मेरी राह साहित्य की ऐसी अज़ीम कृतियों से ही होकर जाती है। ये किताब मेरे साथ खूब लंबे समय तक रहने वाली है। निर्मल वर्मा कहते हैं न कि किताबें मन का शोक, दिल का डर या अभाव की हूक कम नहीं करती हैं, सिर्फ़ सबसे आँख बचाकर चुपके से दुखते सिर के नीचे सिरहाना रख देती हैं। ये किताब मेरे लिए वैसा ही एक सिरहाना है।

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