मनीष आज़ाद
‘नदी सिंदूरी’ पढ़ते हुए मेरे जेहन में लगातार पाल रॉबसन का मशहूर गीत ‘ओल्ड मैन रीवर’ गूँज रहा था। इसकी पहली ही पंक्ति हैं- ‘नदी बहुत कुछ जानती है, लेकिन बोलती कुछ नहीं’। सिंदूरी नदी भी बहुत कुछ जानती है, लेकिन बोलती कुछ नहीं।
मिसिसिपी नदी के पास अगर रॉबसन थे तो नदी सिंदूरी के पास अपना शिरीष खरे और इसीलिए दो दर्जन से अधिक बेहतरीन कहानियाँ हमारे पास हैं, जो अन्यथा सिंदूरी नदी में ही खूंटा की तरह हमेशा के लिए खो जातीं और हमारी दुनिया कुछ छोटी रह जाती।
‘नदी सिंदूरी’ ‘राजपाल प्रकाशन’ से छपी शिरीष खरे की नई किताब है। कोलकाता से दिल्ली की यात्रा में ‘नदी सिंदूरी’ और इससे जुड़ी तेरह बेहतरीन कहानियों की अतल गहराइयों में गोते लगाने का मौका मिला। सोचा तो यही था कि दो या चार कहानियाँ ही पढूँगा लेकिन अवधेश, भूरा, कल्लो, मुग्गा, धन्ना, शिया, सत्या पंडित जी, यादव मास्साब, खूंटा और खूंटा की लुगाई, बसन्त, रामकली चमारन, ठाकुर कृपाल सिंह, बिना नाम की सिंघवी सेठ की लड़की और सबसे बढ़कर खुद लेखक से ऐसा आत्मीय रिश्ता बना कि कब उपसंहार तक पहुँच गया, पता ही नहीं चला।
इन कहानियों की एक खास बात यह है कि जिस ‘मदनपुर’ की कहानी यह कहती है, वह ज्यादातर 90 के दशक में उस संधि पर घटित होती है, जब शब्दों के अर्थ बदलने शुरू हो गए थे। चाहे वह ‘विकास’ हो ‘उदारीकरण’ हो या फिर ‘शिक्षा’। ये शब्द अपने बदले अर्थ में किस तरह जीवन पर सेंध लगा रहे थे (हैं), वह एक त्रासदी बनकर इन कहानियों में प्रकट होती है। इसी किताब की एक कहानी ‘दूध फैक्ट्री से लाओ’ के शहरी बच्चे राहुल के साथ लेखक का संवाद इसका शानदार उदाहरण है।
यह किताब साधारण में असाधारण वृतांत रचती है। यह संवाद देखिए- “धन्ना ने अपनी पत्नी शिया से कहा कि तू राधा नहीं जो किसी की मर्जी से मंदिर में या यहाँ वहाँ बिराजेगी। जा भाग जा अपने गोविंद संग।” इसी तरह, अवधेश और भूरा की कहानी है, जो पुरुष-पुरुष के रिश्ते को आज की ‘आधुनिक चेतना’ और संवेदना के साथ प्रस्तुत करती है, लेकिन बिना किसी ‘जार्गन’ के।
‘यादव मास्साब’ में आपको ‘दिवास्वप्न’ के लेखक ‘गिज्जु भाई’ की तस्वीर नजर आएगी। ‘यादव मास्साब’ का ‘मर’ जाना (वास्तव में मार दिया जाना) आज के दौर की शायद सबसे बड़ी त्रासदी है। अब नया जमाना तो ‘राहुल’ जैसो का है, जिसे यही पता है कि दूध गाय-भैस से नहीं बल्कि फैक्टरी से निकलता है।
‘सत्या पंडित’ में मुझे ‘श्रीधर बलवंत तिलक’ (लोकमान्य तिलक के बेटे) नजर आते हैं, जिन्हें अपने रैडिकल विचारों और डॉ. अम्बेडकर का साथ देने के कारण महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने इतना परेशान किया कि उन्हें आत्महत्या करनी पड़ी। डॉ. अम्बेडकर ने उनकी मृत्यु पर कहा था कि असली लोकमान्य तो श्रीधर बलवंत हैं। सूरज यांगड़े ने उन्हें ‘कल्चरल सुसाइड बॉम्बर’ कहा है। सत्या पंडित भी ‘कल्चरल सुसाइड बॉम्बर’ ही थे, जिन्होंने ब्राह्मणवादी संस्कृति को अपनी ‘बाल बुद्धि’ द्वारा विस्फोट करके उड़ा दिया था और ठीक इसी कारण उनकी जान गई थी।
यहाँ कुछ बहुत ही दिलचस्प बातें हैं। जैसे हाफ शर्ट का एक अर्थ है, लेकिन उसी को अगर हिंदी में कह दे, यानी आधी शर्ट, तो उसका दूसरा अर्थ हो जाता है। इसी तरह, अवधेश से यह पूछने पर कि पढ़े लिखे हो? उसका जवाब है-“पढ़ा तो हूँ लेकिन लिखा नहीं हूँ।”
दरअसल ये कहानियाँ ‘राग दरबारी’ का भी ‘फ्लेवर’ लिए हुए हैं। लेकिन, एक महत्वपूर्ण अंतर है। ‘राग दरबारी’ में जहाँ श्रीलाल शुक्ल तटस्थ भाव से जनता के सभी हिस्से का मजाक उड़ाते हैं, वहीं इन कहानियों के लेखक की सघन सहानुभूति दलितों-पिछड़ों और महिलाओं के साथ है। यही चीज इन कहानियों को ‘राग दरबारी’ से अलग कर देती है।
एक जगह लेखक ने बाबरी मस्जिद के लिए ‘विवादित’ शब्द का इस्तेमाल किया है। मेरे हिसाब से इसे कोट (” “) में होना चाहिए, क्योंकि यह कतई विवादित नहीं थी। इसे पहले अंग्रेजों ने बाद में कांग्रेस और भाजपा ने विवादित बनाया है, अपनी राजनीति के लिए।
हम सबके भीतर एक ‘नदी सिंदूरी’ बहती है। हमें इसे किसी भी कीमत पर बचाना है, तभी हम बचेंगे और तभी मानवता बचेगी।
किताब: नदी सिंदूरी
लेखक: शिरीष खरे
प्रकाशक: राजपाल प्रकाशन, दिल्ली
विधा: लघु कहानियाँ
पृष्ठ: 160 (पेपरबैक)
प्रकाशन तिथि: 7 मार्च, 2023